वक्त का फेर- पुष्पा पाण्डेय : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : बंद घर में आज रौशनी देख विनायक परिवार को खुशी हुई कि चलो, अब पड़ोस में कोई आया। जब से विनायक जी यहाँ आए थे ये घर बंद ही पड़ा था। पड़ोसी धर्म निबाहने पति-पत्नी उनके घर गये। पता चला सेवानिवृत्त कर्नल हैं। पत्नी जवानी में ही अलविदा कह गयी। माता- पिता के जाने के बाद घर बंद ही पड़ा था। औपचारिक बातें होने के बाद विनायक जी उन्हें सुबह नाश्ते पर आमंत्रित कर वापस आ गये।

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सुबह समय पर कर्नल संतोष आ गये। विनायक जी की बेटी आस्था ने नमस्ते किया। नाश्ते के टेबुल पर दुनिया जहाॅन की बातें हुईं। कर्नल संतोष की बातें करने के अंदाज से आस्था काफी प्रभावित हुई।

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अब तो कर्नल के साथ विनायक जी सुबह सैर पर भी जाने लगे। अक्सर आस्था से उनकी मुलाकात होती ही रहती थी। काँलेज आते- जाते भी आस्था कर्नल अंकल से मिल ही लेती थी।

एक बार छुट्टी के दिन कर्नल साहब ने अपने फार्म- हाउस पर पिकनिक का कार्यक्रम बनाया।

” ये आपका फाॅर्म हाउस है।”

विनायक जी ने पूछा।

“हाँ, मेरे ससुर जी का था। मेरी पत्नी एकलौती बेटी थी। जाते-जाते ससुर जी इसकी जिम्मेवारी मुझे सौप गये। दिल्ली और मुंबई में भी उनका घर है। मेरे लिए सम्भालना भी मुश्किल है। मैं अकेला, कोई खाने वाला भी नहीं है। ये सारी सम्पत्ती किसी संस्था को दान कर देने को सोचता हूँ।”

त्वरित आस्था ने जवाब दिया।

” अंकल, आपके रिश्तेदार तो होंगे ही, वो सम्भाल लेंगे।”

“पत्नी की सम्पत्ति रिश्तेदारों को क्यों देना। मेरे पास जो है वो सब तो उन लोगों का है ही।”

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अब तो अक्सर आस्था उनके साथ उनके फाॅर्म हाउस जाने लगी। माँ की नाराजगी पर काॅलेज से ही कर्नल के साथ निकल जाती थी।

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एक दिन कर्नल ने कहा-

” तुम मुझे अंकल बुलाती हो तो मुझे अच्छा नहीं लगता है।”

” ठीक है मैं अब से आपको सिर्फ कर्नल कहूँगी।”

वैसे कहने को तो कर्नल नौकरी से निवृत्त थे, लेकिन कहीं से भी उम्र उनपर हावी नहीं थी। गठिला शरीर, चौड़ी छाती, युवक-सी फुर्ती, पैंतीस- चालीस से अधिक नहीं दर्शाती थी।

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दिल का कोई ठिकाना नहीं। कब क्या कर बैठेगा। फिर युवा उम्र की भी खराबी है कि वह दूरदर्शी नहीं है।

“कर्नल, आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की?”

“फौजी था, दूसरी मिली ही नहीं।”

“अब मिलेगी तो कीजियेगा?”

” अब इस उम्र में?”

“प्रेम उम्र नहीं देखता।”

“आस्था, तुम क्या कहे जा रही हो? तुम्हारी जिद्द को बचपना समझकर मैं तुम्हें यहाँ लेकर आता हूँ। तुम्हारे माँ- बाप इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे।”

“शादी तो मुझे करनी है और मैं बालिक हूँ।”

आस्था की जिद्द और अनुनय अदालत में याचिका तक दे डाली।

माता-पिता अपनी परवरिश को कोसते रहे और अंत में लाचार माता- पिता दुखी होकर अमेरिका बेटा के पास चले गये।

इधर आस्था हनिमून के नाम पर कर्नल के साथ देश-विदेश घूमती रही। अब अपनी गृहस्थी हैदराबाद से मुम्बई जाकर बसायी। दो सालों तक तो सबकुछ सामान्य रहा। एक दिन कर्नल साहब सुबह की सैर पर गये थे और पार्क में ही बेहोश होकर गिर पड़े। कुछ लोगों ने अस्पताल पहुँचा दिया। उच्च रक्तचाप के कारण ऐसा हुआ था। काफी हिदायतों के साथ डाॅक्टर ने वापस घर भेज दिया। अब कर्नल का बाहर निकलना थोड़ा कम हो गया। वो अपनी सेहत का ख्याल रखने लगे। खान- पान में भी परहेज करने लगे। आस्था को यह सब अखरने लगा। बोलती तो कुछ नहीं थी, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर उसे कुछ खटकने लगा।

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एक दिन कर्नल के दूर का भतीजा उनसे मिलने आया। वह भी मुम्बई में ही नौकरी करता था, लेकिन मिलने का मौका आज मिला। आदर-सत्कार करने के बाद आस्था ने खाना खाकर जाने को कहा। वैसे भी वह अकेले रहता था। राजी हो गया। आस्था अपने रसोइए को निर्देश दे भतीजा रंजन के साथ दूरदर्शन पर पिक्चर देखने लगी। कर्नल साहब बैठे- बैठे थक गये, आराम करने शयन कक्ष में चले गये।

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जाते- जाते आस्था ने रंजन का ठिकाना भलि- भाँति समझा और पता लिख लिया।

अब वह कर्नल की सेहत से ज्यादा रंजन की यादों में खोई रहती थी और एक दिन रंजन के घर पहुँच गयी।

“अरे आप यहाँ?”

क्यों , मैं यहाँ नहीं आ सकती?”

“नहीं, अंकल वहाँ अकेले….”बीच में ही रोककर बोल पड़ी।

” अकेले कहाँ हैं? नौकर घर पर ही रहता है।”

रंजन के नजदीक बैठकर उससे खूब सारी बातें की। कुछ बातें ऐसी भी थी जो रंजन को अचम्भित कर डाली। वह अपनी बातों से ये सिद्ध करना चाहती थी कि शरीर और आत्मा दोनों अलग है। मेरी आत्मा कर्नल से जुड़ी है। मैं उनसे प्रेम करती हूँ, लेकिन शरीर की अपनी अलग जरूरत होती है।

रात गहराने लगी तो आस्था घर लौट आई। स्वयं कार चलाकर गयी थी। वापस आते- आते काफी रात हो गयी। कर्नल इंतजार में खाना भी नहीं खाए थे। आस्था का इस तरह रात तक बाहर रहना उन्हें अच्छा नहीं लगा। उन्होंने आगे से ऐसा करने को मना भी किया।

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अगले हफ्ते आस्था फिर पहुँच गयी। अब तो हरेक रविवार को वहाँ जाने लगी।

कर्नल सबकुछ समझकर भी अनजान बने रहे। इस रविवार को आस्था गयी तो दूसरे दिन सुबह ही लौटी। आस्था ने पीने- पिलाने का कार्यक्रम बनाया और इस हद तक चली गयी कि दोनों को कुछ भी होश नहीं रहा।

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कर्नल बैठक में ही सोफे पर लेटे थे। वहीं मेज पर शराब की बोतल और गिलास पड़ा था। आस्था उनके नजदीक गयी तो उनका शरीर शिथिल पड़ा था। तुरत नौकर को बुलायी और डाॅक्टर को फोन किया, जो कर्नल का दोस्त भी था।

“डाॅक्टर साहब क्या हुआ इन्हें?”

” आस्था जी, कर्नल साहब नहीं रहे। उच्च रक्तचाप के कारण दिल की गति रूक गयी। साँरी।”

आज आस्था दुनिया में अकेली पड़ गयी। कर्नल की मौत का जिम्मेवार स्वयं को मानने लगी।

ये आत्मग्लानि का बोध होते ही ठहाके लगाकर हँसने लगी। कर्नल का दोस्त डाॅक्टर ने उसे मानसिक अस्पताल पहुँचा दिया और उनके रिश्तेदारों को सूचना दे दी।

रिश्तेदार आए और तीन दिन में ही श्राद्ध-कर्म निपटाकर चले गये।

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

 

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