वियोग  का संयोग – विजया डालमिया

आरोही ….आरोही…. आरोही… कहकर आनंद ने उसे आवाज दी। पर वह आवाज बिना प्रत्युत्तर के उसी के पास फिर आ गई। आनंद बड़े गौर से आरोही को ही देख रहा था। उसकी आँखें …वे आँखें जिन्हें देखकर वह सब कुछ भूल जाता था। आखिर हुआ क्या है आरोही को? अचानक उसने कहा…” डॉक्टर आरोही” उसके इतना कहते ही आँखों में एक हल्की सी हलचल हुई और आनंद के दिल में एक उम्मीद की किरण लहराई ।वह बार-बार कहने लगा …हैलो डॉक्टर आरोही …क्या आप मुझे सुन पा रही हैं ?तभी नर्स ने आकर कहा… अब यह ना सुन सकती हैं। ना ही कोई जवाब दे सकती हैं और ना ही इन्हें कुछ महसूस होता है ।यह एक जिंदा लाश की तरह है। आनंद गुस्से में तमतमा कर कहने लगा…” चुप रहो। तुम्हारी हिम्मत भी कैसे हुई इनके बारे में ऐसा कहने की? जानती ही हो क्या हो तुम इनके बारे में”? तभी नर्स ने कहा… मैं तो आपको भी जानती हूँ आनंद बाबू और अभी से नहीं तब से जब आप यहां पेशेंट बन कर आए थे।… क्या?… कहकर आनंद ने आश्चर्य से उसे देखा।… जी कहते हुए नर्स की आँखें और गला भर आया। आनंद ने उसे दयनीय नजरों से देखा और कहा फिर तो तुम्हें डॉक्टर आरोही की इस हालत की वजह भी पता होगी?नर्स प्लीज… मैं सब जानना चाहता हूँ ।नर्स थोड़ी देर खामोश रही। फिर उसने खिड़की की तरफ देखते हुए कहना शुरू किया …

डॉक्टर आरोही ..कितने ही मरीजों की जिंदगी बचाने वाली ऐसी डॉक्टर जो जिससे भी मिलती  उसी को अपना बना लेती। इतनी भावुक कि  उनकी सांसों की डोर से  खुद को बंधा महसूस करती। तभी शायद हर मरीज उन्हे अपने से ज्यादा चाहते थे ।पर यही चाहत उनकी दुश्मन बन गई ।…कैसे?… कहकर आनंद ने उसकी तरफ देखा तो वह खामोश हो गई ।पर फिर उसने एक लंबी साँस ली और कहना शुरू किया …मुझे नहीं पता कि यह बात आपको बतानी चाहिए या नहीं। फिर भी जब आज इत्तेफाक से आप यहाँ आ ही गए हैं तो सुनिए… जब पहली बार आरोही ने आपको देखा तो वह मेरे पास आकर कहने लगी… “तुम्हें पता है, वह वार्ड नंबर 9 वाला मरीज कौन है? मैंने कहा…” कौन है?.. तो उसकी नजरें झुक गई। कहने लगी …”मेरे सपनों का शहजादा”… क्या ?मैंने हैरानी से उसे कहा। तो वह मेरा हाथ पकड़ कर एक छोटी बच्ची की तरह गोल -गोल घूमते हुए कहने लगी… “तरु, यही है वह जो मेरे सपनों में बसता है। तू देख मैं बहुत जल्द इसे ठीक कर दूँगी और अपने प्रेम का इजहार भी कर दूँगी”।



वह आरोही उस वक्त मुझे पागल-सी लगी। सच वह पागल हो गई थी आपको देखकर आनंद बाबू। आपका भोलापन। आपकी सादगी।  आपकी खामोशी सब उसे और ज्यादा आपकी तरफ लेते चली गई। बाकी मरीजों से कुछ ज्यादा ….नहीं …शायद बहुत ज्यादा वो  आप पर ध्यान देने लगी। धीरे-धीरे आप ठीक हो चले। मुझे याद है वह दिन जब उसने मायूस होते हुए कहा…. “तरू , अब वह चले जाएगा”।.. “हाँ तो अच्छा है ना”।… पता नहीं तरु मैं चाह रही हूँ कि वह यहीं रह जाए। कहीं ना जाए।   किसी के ठीक होने पर सबसे ज्यादा मुझे खुश होना चाहिए। पर मैं खुश नहीं हो पा रही हूँ”।….”आर यू सीरियस”?… हाँ पर मैं  स्वार्थी नहीं हूँ ।हम अपने आपको चाहने के लिए किसी को मजबूर नहीं कर सकते। फिर यह तो मुझसे खुलकर कभी बात भी नहीं करता बाकी मरीजों की तरह। बस खामोशी से जब वह मुझे देखता है तो मैं उसकी आँखों में डूब कर रह जाती हूँ ।मैं किस तरह उसे…. कहकर आरोही  रोने लगी ।जिस दिन आप डिस्चार्ज होकर जा रहे थे उसी दिन हमारा एक ऑपरेशन था। ऑपरेशन थिएटर में भावनाओं को बाहर उतार कर ही भीतर जाना चाहिए ।यह बात उस वक्त समझ में आ गई जब आपके एक तरफा प्रेम में पागल एक डॉक्टर की गलती से पेशेंट की जान पर बन आई। हालांकि पेशेंट तो ठीक हो गया पर आरोही उस सदमे से उबर नहीं पाई। दो सदमे से वह एक साथ गुजर रही थी। सब सोचते हैं डॉक्टर बहुत मजबूत होते हैं। पर सच्चाई तो यही है आनंद बाबू की भावनाओं की ही ताकत हमें मजबूत भी करती है और कमजोर भी। दोनों बातें है तो विरोधाभास… पर सच्चाई यही है। धीरे -धीरे डॉक्टर आरोही कब और कैसे वार्ड नंबर 9 वाली मरीज बन गई कोई भी समझ नहीं पाया और मैंने नर्स के रूप में उसके साथ रहने की ठान ली क्योंकि मैं भी नहीं जानती थी कि इसका दुष्यंत आएगा भी या नहीं। अच्छा आनंद बाबू एक बात बताइए… क्या आपने कभी एक पल के लिए भी डॉक्टर आरोही को याद किया? कहकर जैसे ही वह पलटी उसने देखा आनंद बाबू की आँखों से आंसू का झरना फूट रहा था। फफक कर रोते हुए बड़ी मुश्किल से वे यही कह पाए…” डॉक्टर आरोही को कहने की हिम्मत नहीं कर पाया क्योंकि उसे भगवान की तरह चाहा। पर आरोही को इंसान की तरह चाहकर कहना चाहता हूँ कि …आई लव यू सो मच आरोही… तरु भी अपने आँसू नहीं रोक पाई।

सच है। प्रेम की कोई पराकाष्ठा नहीं होती। वह संयोग में असीम और वियोग में अनंत होता है।

विजया डालमिया 

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