साल १९९६ की बात है। बिहार के पटना शहर से कुछ ही दूरी पर बसे एक साधारण गाँव में रीना सुमन अपने पिता के छोटा-सा घर में बैठी, किसी अनजाने भय से जूझ रही थी। उसका विवाह तय हो चुका था – एक ऐसे युवक से, जो दिखने में अच्छा था, लेकिन बेरोजगार था,फिर भी उसके परिवार की दहेज की भूख असहनीय थी।
“पचास हजार नकद और एक रंगीन टीवी, गोदरेज आलमारी सोफा सेट व सोने की अंगूठी,चेन की मांग,नहीं तो बारात नहीं आएगी!”- यह लड़के के पिता का साफ़ शब्दों में फरमान था।
गरीब पिता ने आँखों में आँसू भर कर बेटी से कहा -“बेटी, हम क्या करें? तुम्हारी माँ के इलाज में ही सब कुछ चला गया। अब कहाँ से लाएँ यह सब?”
रीना, पढ़ी-लिखी, समझदार और स्वाभिमानी लड़की थी। परंतु उस उम्र में जहाँ सपने बुनने चाहिए, वहाँ उसकी दुनिया बोझ और बेबसी में डूब चुकी थी। वह टूट चुकी थी – अंदर से, बाहर से।
एक मोड़ पर मिला एक नया रास्ता…
उसी समय, पटना शहर से एक युवक, गौरव राज, अपने परिवार के साथ अपने मौसी के घर आया था।
संयोग से, वहीं उसकी नजर रीना पर पड़ी। मौसी के कहने पर, उसने रीना से विनम्रता से बात की। उसे रीना की नज़रें, विनम्रता, और मौन पीड़ा तकलीफ़ दे गई।
मौसी से पूछा – “दहेज की बात तो नहीं हो रही है न?”
मौसी चुप रहीं। पर मौन में ही सब कुछ कह गईं।
गौरव राज दहेज के विरोधी थे शब्दों में नहीं, कर्मों में।
उन्होंने अपने माता-पिता से खुलकर कहा – “मैं उसी लड़की से विवाह करूँगा जो मेरे विचारों का सम्मान करे। मैं रीना से विवाह करना चाहता हूँ – बिना दहेज, बिना दिखावे।”
विश्वास और बदलाव की शुरुआत:
जब रीना को यह समाचार मिला, वह कुछ समझ नहीं सकी। यह वही समय था जब वह स्वयं को ठुकराए जाने योग्य मानने लगी थी।
पर गौरव राज ने न केवल उसे अपनाया, बल्कि उससे वादा किया – “तुम्हारे स्वाभिमान को मैं अपना सम्मान मानूंगा। मैं सिर्फ़ एक जीवनसंगिनी चाहता हूँ, सामान नहीं।”
धीरे-धीरे, दोनों परिवारों में बातचीत हुई।
रीना का परिवार सहमा हुआ था, उन्हें डर था कि यह प्रस्ताव भी कहीं दिखावा न हो।
लेकिन जब गौरव राज ने दो टूक कहा – “विवाह सिर्फ़ मन और संस्कार का बंधन है, सौदे का नहीं।”
तब उनके शब्दों ने सबका दिल जीत लिया।
दहेज रहित विवाह – एक सामाजिक सन्देश
विवाह बेहद सादगी से हुआ। न कोई बाजा, न बारात का प्रदर्शन, न कोई लेन-देन।
सिर्फ़ रीति, संस्कृति, और आत्मसम्मान। हिन्दू रीति से मंदिर में विवाह सम्पन्न हुआ और विदाई के बाद मुहल्ले में वरवधू स्वागत समारोह हुआ।
गाँव और मोहल्ले में यह विवाह चर्चा का विषय बना।
कुछ ने मज़ाक उड़ाया — “दूल्हा तो पगला गया है!”
कुछ बुज़ुर्गों ने कहा — “ऐसे लड़के हों तो बेटी की चिंता ही न हो!”
पर बहुतों ने सीखा —
कि बेटी कोई बोझ नहीं, और दहेज सिर्फ़ एक लालच है, परंपरा नहीं।
समय बीता, पर सिद्धांत नहीं बदले
आज २९ वर्ष बीत चुके हैं। रीना सुमन और गौरव राज का दांपत्य जीवन एक मिसाल बन चुका है —
जहाँ साथ है, समझ है, संघर्ष की साझेदारी है।
रीना ने कभी गौरव राज को पति से अधिक साथी माना।
और गौरव राज ने कभी रीना को कमज़ोर नहीं, अपने विचारों की शक्ति माना।
दोनों के दो पुत्र हुए — दोनों आत्मनिर्भर, संस्कारवान, और पिता की तरह दहेज विरोधी सोच रखने वाले।
कहानी का सार — एक नई सोच की आवश्यकता:
आज भी समाज में दहेज के नाम पर बेटियाँ तोड़ी जाती हैं, माँ-बाप कर्ज़ में डूबते हैं, और रिश्ते बोझ बन जाते हैं।
पर रीना और गौरव राज की कहानी बताती है कि – “यदि सोच बदले, तो समाज भी बदले।”
“यदि एक बेटा दृढ़ हो जाए, तो एक बेटी का जीवन संवर सकता है।”
“यदि एक विवाह बिना दहेज के हो जाए, तो हजारों को दिशा मिल सकती है।”
उपसंहार: इस कथा का उद्देश्य केवल स्मृति नहीं, प्रेरणा है।
यह केवल गौरव राज और रीना की जीवन-यात्रा नहीं,
बल्कि हर उस युवा की पुकार है जो विवाह को सौदा नहीं, संस्कार बनाना चाहता है।
@सुरेश कुमार गौरव,सिमली सहादरा रामधनी रोड मालसलामी पटना सिटी, पटना-800008 (बिहार)
कहानी मौलिक एवं अप्रकाशित