तिरस्कार कब तक? – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

सुबह का समय था। रसोई में बर्तनों की खनक, गैस पर उबलती चाय, और बाहर से आती बच्चों की चहल-पहल… सब कुछ एक व्यवस्थित ग़ुलामी जैसा था। सीमा रसोई में झुकी हुई थी, हाथ रोटियों में, कान सास की आवाज़ में और मन… मन कहीं गुम था।

श्रवण कमरे से बाहर आया। उसके हाथ में कुछ काग़ज़ थे — ज़मीन की रजिस्ट्री। एक बार फिर वही बात –

“कितनी बार कहा है, इन काग़ज़ों से दूर रहा कर। ये तुम्हारे समझने की चीज़ नहीं हैं।”

सीमा ने कुछ नहीं कहा। बस हल्के से सिर झुका लिया। लेकिन अंदर ही अंदर कुछ काँपा था। वो सोचती रही — ये घर जो मैंने अपने हाथों से सजाया, जिसमें हर कोने में मेरी मेहनत की छाप है… उसकी रजिस्ट्री मेरे नाम क्यों नहीं हो सकती?

दोपहर में सहेली कविता आई थी। बातों ही बातों में सीमा ने वो कड़वाहट ज़ाहिर कर दी —

“कभी-कभी लगता है मैं इस घर की नौकरानी हूँ। सबका ख्याल रखती हूँ, पर किसी ने कभी नहीं पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ।”

कविता ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा –

“तो अब अपने लिए कुछ चाहना शुरू कर। तू पढ़ी-लिखी है सीमा। ऑनलाइन ट्यूशन, ब्लॉग, डिज़ाइनिंग — कुछ भी कर सकती है। तुझे बस शुरू करना है।”

सीमा हँसी, लेकिन वो हँसी बहुत फीकी थी –

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“मेरे पति को पसंद नहीं। कहते हैं, पैसा कमाना मर्दों का काम है।”

कविता के चेहरे पर गुस्सा था –

“अरे तो क्या झाड़ू-पोंछा, खाना बनाना, बच्चों की परवरिश… ये सब काम नहीं हैं क्या? क्या वो मर्द अकेला घर चला सकता है?”

सीमा की चुप्पी में एक गूँज थी। रात को सब सो गए थे। छत पर बैठी थी वो, हवा के साथ उसके बाल उड़ रहे थे। मोबाइल में एक वीडियो चल रहा था — एक महिला की, जिसने ज़ीरो से शुरू करके खुद का काम खड़ा किया था।

“राजकुमार के भरोसे मत बैठो,” आवाज़ गूँजी, “अपनी दुनिया खुद बनाओ।”

सीमा के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आई। पहली बार उसने खुद के लिए कुछ सोचा था।

अगली सुबह जब दरवाज़ा बजा, सामने एक नया किरायेदार खड़ा था। नाम था — श्रेयस। गलती से घंटी बज गई थी, लेकिन सीमा को ये गलती ‘सही समय पर हुआ इत्तेफाक’ लगा।

कुछ ही दिनों में बातों-बातों में श्रेयस ने कहा –

“मैं महिलाओं को ऑनलाइन काम सिखाता हूँ — कंटेंट राइटिंग, डिज़ाइन, बेसिक मार्केटिंग… अगर जान-पहचान में कोई हो तो बताइएगा।”

सीमा ने पहली बार किसी अनजान पुरुष से बात की, जिसमें न दया थी, न झल्लाहट — सिर्फ़ सहयोग। उसने मोबाइल में वो फॉर्म भर दिया जो कई दिनों से खुला था — अधूरा। अब पूरा था।

रातों को सबके सो जाने के बाद सीमा चुपचाप टाइप करना सीखती। पढ़ती। लिखती। धीरे-धीरे उसके शब्दों में धार आने लगी।

कविता उसकी पहली क्लाइंट बनी। बेटी के लिए एक कविता और डिज़ाइन कराया। जब कविता ने उसे 500 रुपये दिए, सीमा के हाथ काँप रहे थे। ये 500 रुपये उसके जीवन की पहली ‘कमाई’ नहीं थी, ये उसकी पहली ‘पहचान’ थी।

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धीरे-धीरे उसने सोशल मीडिया पर पेज शुरू किया — “सीमा की सच्ची रसोई और शब्दों की मिठास”। वो घर-गृहस्थी से जुड़े लेख, कहानियाँ और टिप्स पोस्ट करने लगी।

श्रवण ने देखा, पर कुछ नहीं कहा। शायद उसे समझ में नहीं आया कि कैसे उसकी चुप पत्नी अब दुनिया से संवाद करने लगी थी।

अब सीमा के दिन थोड़े अलग हो गए थे। वो अब वही सारे काम करती थी — पर अंतर था। अब वो जानती थी कि वो केवल काम नहीं कर रही, वो ‘निर्माण’ कर रही है। खुद का, अपनी पहचान का, अपनी आर्थिक आज़ादी का।

कुछ ही महीनों में उसका पेज हज़ारों तक पहुँच गया। ऑनलाइन लेखन के लिए आमंत्रण आने लगे। और एक दिन… एक महिला ने उसे मैसेज भेजा –

“मैं तुम्हारे लेख पढ़ती हूँ, तुम्हारी कहानी ने मुझे भी शुरुआत करने की हिम्मत दी।”

सीमा की आँखों में आँसू थे। उसने खुद से कहा –

“मुझे अब किसी रजिस्ट्री में नाम की ज़रूरत नहीं है। अब मैं खुद ही दस्तावेज़ बन गई हूँ — प्रेरणा का, संघर्ष का और बदलाव का।”

वो अब राजकुमार की बाट नहीं देख रही थी। वो जान चुकी थी –

“जिसे मैं पसंद करूँगी, वो खुद राजकुमार बन जाएगा। लेकिन मैं इंतज़ार नहीं करूँगी… मैं अपनी रियासत खुद बनाऊँगी।”

सीमा की उंगलियाँ अब सिर्फ़ बेलन से रोटी नहीं बनाती थीं, वे अब की-बोर्ड पर विचारों की रोटियाँ बेलती थीं — जिन्हें हजारों लोग पढ़ते, सराहते और बाँटते थे। दिन-रात की मेहनत रंग ला रही थी।

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धीरे-धीरे उसकी कमाई बढ़ने लगी। जहाँ शुरुआत में महीने के पाँच सौ थे, अब वो पाँच अंकों में पहुँच चुकी थी। फिर एक दिन… दसवाँ महीना था, जब सीमा ने अपना अकाउंट देखा — ₹1,12,000 की इनकम थी। उसका दिल धड़क उठा।

उस दिन पहली बार श्रवण ने भी मुस्कुराते हुए कहा —

“काफ़ी अच्छा कर रही हो तुम…”

सीमा मुस्कुराई, पर उसने कुछ नहीं कहा। उसे पता था, शब्दों से ज़्यादा नज़रों में जो बदलाव है, वही काफ़ी है।

अब श्रवण की मुस्कान के पीछे एक हल्की-सी ईर्ष्या भी थी। शायद उसे अच्छा नहीं लगा कि उसकी पत्नी अब उससे ज़्यादा कमाने लगी थी। लेकिन… बच्चियों के सामने उसे वही बात दोहरानी पड़ती थी —

“तुम्हारी मम्मी तो अब सेलिब्रिटी बन गई हैं।”

बेटियाँ चहकतीं –

“हाँ पापा, मम्मी अब हमें कॉलेज भी अच्छे में दिलाएँगी!”

शायद वही पल था जब श्रवण को समझ आया — अब सीमाएं सिर्फ़ नाम की नहीं रहीं, अब सीमा खुद ही दिशा बन गई है।

धीरे-धीरे उसके भीतर भी बदलाव आया। अब वह रसोई में बर्तन धोते हुए सीमा से पूछता —

“अगला आर्टिकल किस टॉपिक पर है?”

सीमा हँस पड़ती —

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“पति के सहयोग पर लिखने की सोच रही थी…”

दोनों एक-दूसरे को देख मुस्कुराते — वो पुरानी दीवारें अब हँसी की दरारों से गिर रही थीं।

एक दिन सीमा ने उसे एक ज़मीन दिखाने को कहा। छोटे शहर की वो एक शांत-सी कॉलोनी थी। घर बहुत बड़ा नहीं था, पर उसमें सीमा की आँखों के सारे सपने समाए हुए थे।

कागज़ों पर दस्तख़त करते हुए श्रवण थोड़ा चौंका —

“रजिस्ट्री में सिर्फ़ तुम्हारा नाम?”

सीमा ने कहा —

“घर दोनों का होगा। पर अगर नाम की बात हो, तो एक बार… सिर्फ़ एक बार… मैं चाहती हूँ कि मेरे नाम की भी पहचान हो।”

श्रवण ने बिना कुछ कहे दस्तख़त कर दिए। शायद वो जानता था — ये सिर्फ़ नाम नहीं, एक समय का दस्तावेज़ है।

नया घर बनकर तैयार हुआ। दीवारों पर अब सिर्फ़ पेंट नहीं था, वहाँ संघर्ष की गंध थी, सपनों की परछाइयाँ थीं और उस स्त्री की पहचान जो रसोई से निकल कर समाज तक पहुँच गई थी।

उस दिन जब घर में गृह प्रवेश हुआ, सीमा ने बच्चों के सामने कहा –

“इस घर का हर कोना तुम्हारे पापा ने सम्भाला है, और मैंने बस उस पर थोड़ा-सा नाम लिख दिया है।”

बेटियाँ तालियाँ बजा रही थीं। श्रवण ने धीमे से सीमा का हाथ थामा –

“नाम तो कब से था… बस मुझे दिखना अब आया है।”

अब श्रवण उसे दफ्तर के बाहर रिसीव करता था, बच्चों के प्रोजेक्ट में उसका नाम बताता था, और मोहल्ले के दोस्तों से कहता था —

“मेरी बीवी है, अब लेखिका भी है, उद्यमी भी… और पहले से कहीं ज़्यादा सुंदर भी लगती है।”

सीमा हँसती थी। लेकिन अब उसकी हँसी में संकोच नहीं, स्वाभिमान था।

और यही था परिवर्तन।

तिरस्कार अब स्मृति बन चुका था।

और सीमा… एक नई परिभाषा।

#तिरस्कार कब तक?

दीपा माथुर

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