सपनों की उड़नपरी – सीमा पण्ड्या

रीमा और उसका परिवार आज शोरूम से  अपनी ड्रीम कार ऑडी ख़रीद कर पूजा करवाने मंदिर जा रहे थे।पिछले तीन दशकों में उसकी और उसके पति की मेहनत और लगन ने एक छोटे से व्यवसाय को एक बहुत अच्छे मुक़ाम पर पहुँचा दिया था।पूरा परिवार बहुत प्रफुल्लित था पर रीमा चुप थी, उसकी आँखें छलछला रही थी।

सोंच रही थी ज़िंदगी कहाँ से कहाँ ले जाती है , काश आज माँ होती…..

माँ ने रीमा को कभी भी रीमा कह कर नहीं बुलाया ।अपने अंतिम समय तक भी वे रीमा को “छोटी” कह कर ही बुलातीं रहीं ।

रीमा माँ के ख़्यालों से होती हुई  ८० के दशक में पहुँच गयी।

पापा की दुर्घटना में अचानक मृत्यु हो जाने से परिवार पर मानसिक के साथ साथ आर्थिक क़हर भी टूट पड़ा था।

माँ गृहणी थी, कभी नौकरी का सोचा भी नहीं था पर अब सारी ज़िम्मेदारी उन्हीं पर आ गयी थी।

१२ वर्षीय छोटी को समझ नहीं आता था कि कि आख़िर मैं माँ की मदद करूं तो कैसे?

माँ बुनाई के काम में बहुत निपुण थी सो अब वो आय के स्रोत के लिये स्वेटर बुनने लगीं।

हॉंलाकि दुकानवाले बुनाई का पैसा कम देते थे लेकिन काम पूरे साल देते थे इसीलिए माँ ज्यादातर दुकान वालों के ही स्वेटर बुनती थीं ।दुकानवाले ऊन के बड़े बड़े गट्ठर तौल कर दे देते, फिर माँ उनके स्वेटर वना कर वापस दुकान पर दे आती। ऊन लेने और स्वेटर देने माँ कभी पैदल तो कभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाती। माँ अक्सर कहती थी आने-जाने में बहुत वक़्त बिगड़ता है, इतनी देर बुनाई भी नहीं हो पाती, थकान हो जाती है सो अलग।एक बार छोटी ने कहा  …”काश एक छोटी सी साइकल होती मेरे पास…. . । ऊन के गट्ठर और स्वेटर लाने लेजाने का काम तो मैं ही चुटकी में कर देती साइकल के कैरियर पर बांध कर”। पर माँ की उदास हँसी देख कर छोटी ने फिर कभी साइकल का ज़िक्र नहीं किया ।

छोटी भी समझती थी, साइकल याने चार सौ रुपये। कहाँ से लाएगी माँ चार सौ रुपये ?




एक दिन माँ स्वेटर देने दुकान पर गयी। छोटी को ५० रुपये और लिस्ट दे कर गई थी कि आवश्यक किराना ले आना। छोटी किराने की दुकान पर किराना तुलवा  रही थी कि सामने से एक अटाले वाला निकला, उसके ठेले पर एक साइकल देख छोटी की आँख में चमक आ गयी। वो कूद कर दुकान से उतरी और अटाले वाले  से पूछा- “भैया, ये साइकल आप मुझे दे सकते हो क्या”?

अटाले वाला — “६० रू लगेंगे “।

छोटी- -“नीचे उतार के दिखाओ”!

अटाले वाले ने साइकल नीचे उतार दी।जगह-जगह से कलर उखड़ा हुआ था साइकल का,  छोटी चला कर देखने लगी पर चली नही।

पूरी साइकल जाम हो रही थी। पहिये भी मुड रहे थे।

सामने ही साइकल रिपेयरिंग और पंचर जोड़ने वाले की दुकान थी । छोटी ने उस दुकानदार को बुला कर पूछा- “भैया ठीक हो जाएगी ये साइकल”?

उसने साइकल देखी और बोला -“ बीस रु में बढ़िया हो जाएगी। पहियों का छल निकाल दूँगा, छर्रे-कटोरी बदल कर बढ़िया ओव्हरऑईलिंग कर दूँगा”।

बस फिर क्या था, छोटी ने अपने हाथ के ५० रू अटाले वाले को दिखाएं और बोली- “भैया ५० में दे दोगे क्या? मेरे पास तो इतने ही हैं”।

अटाले वाले ने भी २० रू में ली थी सो तुरंत तैयार हो गया।

छोटी ने साइकल ले कर तुरंत रिपेयरिंग वाले को दे दी कहा- “भैया फटाफट तैयार कर दो मेरी साइकल “।

किराने वाला सब देख रहा था बोला – “छोटी किराना ……………”?

छोटी—“अभी आती हूँ भैया …. आप तौल  कर के रक्खो “।

छोटी का दिल बल्लियों उछल रहा था। वो तीर की तरह दौड़ते हुए घर पहुँच गयी। फटाफट ताला खोला और पोण्ड्स पाउडर के डब्बे से बनी अपनी गुल्लक निकाली। संड्सी, पेचकस, चिम्टा सब आज़मा कर जैसे तैसे उसने गुल्लक खोल ही ली।पलंग पर उलट कर उसने सारे पैसे निकाल लिये। पाँच पैसे,दस पैसे, बीस पैसे,चवन्नी , अठन्नी  के सिक्के।  एक के, दो के,पाँच के नोट सब अलग-अलग कर लिये । एक दस का नोट भी निकला।गिनती शुरु की तो कुल मिला कर अस्सी और एक (इक्यासी )रुपये निकले। गणित में पक्की छोटी ने मन ही मन हिसाब लगाया, पचास किराने के, बीस साइकल रिपेयरिंग के हुए सत्तर, बचे ग्यारह । अरे वाह ………इसका मतलब मेरी नयी साइकल का प्रसाद भी आ जाएगा ग्यारह रूपये का।

ख़ुशी से झूमती हुई छोटी ने फटाफट पाउडर की ख़ुशबू से महकते हुए सिक्के और नोट एक कपड़े की थैली में रखे , ताला लगाया और जिस तेज़ी से आई थी उसी तेज़ी से वापस कॉलोनी के बाज़ार की ओर दौड़ पड़ी। सीधे साइकल वाले की दुकान पर गयी—“भैया ठीक हो गयी मेरी साइकल”?

“बस थोड़ी देर ओर ……. वहीं कर रहा हूँ”। साइकल वाले ने कहा।

वो तुरंत सामने किराने की दुकान पर गयी- “भैया तौल दिया सामान “?

किराने वाला—“हाँ तौल दिया … ले जाओ”।

छोटी ने अपनी पैसे वाली थैली दुकानदार को दी तो वो बोला – “अरे ….. बड़े ख़ुशबूदार पैसे लाई है छोटी, गुल्लक तोड़ी क्या? मम्मी तुझे डाँटेंगी तो नही”?

“बिलकुल नहीं.. …” पूरे आत्मविश्वास के साथ बोली छोटी। मन ही मन सोच रही थी कि माँ की मदद के लिये ही तो ख़रीदी है साइकल ।

किराने वाले का हिसाब कर छोटी ने पास की दुकान से ग्यारह रू के पेड़े ख़रीदे और साइकल वाले के पास पहुँच गयी। साइकल वाला बोला- “लो चलाने में तो बिलकुल एवन हो गयी है तुम्हारी साइकल बस दिखने में ही थोड़ी बदरंग ……”

इतना तो सुनना ही कहाँ था छोटी को। उसने तो पैसे दिये , किराने की थैली पिछे कैरियर पर लगाई और उत्साह से पैडल मारते हुए चल दी घर को। उसे तो लग रहा था मानो सपनों की उड़नपरी अपनी पीठ पर बैठा कर ले जा रही थी उसे, उसकी ख़ुशी को तो पंख लग गये थे।

घर पहुँच कर साइकल आगे वाले कमरे में रख दी। फिर घर के बाहर लगे चॉंदनी के फूलों की एक छोटी सी माला बनाई। पूजा घर में से कंकु, चांवल निकाल कर पूजा की थाली सजाई, तेल डाल कर दीपक भी तैयार कर थाली में रख लिया। माचिस भी रख ली। बैचेन होकर अब माँ का इंतज़ार करने लगी कि कब माँ आए और मेरी नई साइकल की पूजा हो।




वक़्त नहीं कट रहा था तो टीवी चला लिया। टीवी में क्रिकेट मैच चल रहा था। बेंसन एण्ड हेजेस कप। भारत की जीत हुई थी और रवि शास्त्री को इम्पोर्टेड कार गिफ़्ट मिली थी जिसका नाम था “ऑडी” ।छोटी भी ताली बजाने लगी। फिर उसने एक गत्ता लिया और उस पर स्केच पेन से मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा – “ऑडी”,  और अपनी साइकल के आगे हेंडल पर लटका दिया और बोली – मेरी साइकल का नाम होगा “ऑडी”।

अब बारामदे में खड़ी होकर माँ का इंतज़ार करने लगी। जैसे ही दूर से माँ दिखी उसने घर का दरवाज़ा बाहर से बंद कर दिया, वो सरप्राइज़ देना चाहती थी माँ को!

जैसे ही माँ पास आई तो अकबर-बीरबल के क़िस्से पढ़ने वाली छोटी नाटकीय अंदाज में बोली— “ बा अदब बा मुलाहिज़ा होशियार……. ऑडी गाड़ी की मालकिन पधार रही हैं…………”

और झुक कर नाटकीयता से माँ का स्वागत किया।

माँ मुस्कुरा दी उन्हे छोटी को इतना ख़ुश देख कर अच्छा लग रहा था पर कारण की प्रतीक्षा थी।

अब छोटी ने कहा- “अपनी आँखें बंद किजिये”! माँ ने आँखें बंद कर ली।

फिर छोटी ने मुँह से फ़िल्मी संस्पेंस म्यूज़िक निकाला- “ ढेन टेऽऽऽऽ णेण ऽऽऽऽऽऽ” और घर का दरवाज़ा खोल दिया।

माँ से कहा – “अब आँखें खोलिये मालकिन”! माँ ने आँखें खोलीं तो एक बदरंग सी पूरानी साइकल पर चॉंदनी की माला चढ़ीं थी, आगे गत्ता लटका हुआ था जिस पर लिखा था “ऑडी”।

छोटी फिर उसी नाटकीय अंदाज में झुक कर बोली- “ मोहतरमा , अब आपको ऊन और स्वेटर लाने ले जाने की चिंता की आवश्यकता नहीं है, आपकी ये ख़िदमतगार इस “ऑडी गाड़ी” से आपका सारा बाज़ार का काम कर देगी”।

माँ ने पूरे कमरे में नज़र दौड़ाई,

स्टूल पर पूजा की थाली और पेड़े की मिठाई रखी थी।पलंग पर छोटी की गुल्लक टूटी पड़ी थी।माँ को कुछ-कुछ माजरा समझ में आने लगा था।

माँ के होंठों पर मुस्कान और पलकों में आंसू थे।

टीवी में शैम्पेन की बॉटलें खुल गयी थी, ख़ुशीयॉं मनाई जा रही थी।

छोटी अपनी माँ के साथ साइकल की पूजा कर , प्रसाद के पेड़े खा रही थी।

रवि शास्त्री को मिली ऑडी गाड़ी पूरे मैदान में घुम रही थी उस पर चढ़े रवि शास्त्री, स्टेडियम में और घरों में टीवी देख रही पूरी दुनिया का अभिवादन कर रहे थे।

 छोटी जिसकी पूरी दुनिया ही उसकी माँ थी, अपनी माँ को अपनी ऑडी साइकल से करने वाले काम, बचने वाले समय, पैसे और सुविधाओं का लेखा-जोखा बता रही थी।

रवि शास्त्री को पूरी दुनिया सराह रही थी।

छोटी को उसकी माँ गले लगा रही थी और कह रही थी एक दिन तेरे पास भी ऑडी कार ज़रूर होगी।

“मम्मी कहाँ गुम हो गईं, अपने सपनों की उड़नपरी “ऑडी”  में खो गयीं क्या? देखो मंदिर आ गया “। बेटे की आवाज़ से रीमा की तंन्द्रा टूटी। पलकों के आंसुओं को झटकते हुए बोली-“ हाँ, अपने सपनों की उड़नपरी “ऑडी” में ही खो गयी थी”। और मुस्कुराते हुए उतर कर मंदिर की ओर चल दी।

स्वरचित

सीमा पण्ड्या

#ज़िंदगी

उज्जैन म.प्र.

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