ज़िंदगी “कलंक” नहीं कस्तूरी है – शुभ्रा बैनर्जी

सुगंधा ने ट्रेन छूटते ही बच्चों को फोन पर जानकारी दे दी।आज कॉलोनी की हम उम्र महिलाओं के साथ बनारस जा रही थी,घूमने। बनारस का नाम सुनते ही, जाने क्यों मन बांवरा सा हो जाता था उसका।वैसे बनारस से इश्क़ करने वाली वह पहली और अकेली नहीं थी।बनारस के रस ने ना जाने कितनी जिंदगियों को डुबोया है सराबोर।

चलती ट्रेन से बाहर का नज़ारा देखना अपने आप में एक अलग ही आनंद देता है।आज ज़िंदगी को फिर से करीब पा रही थी सुगंधा।सुगंधा ने हमसफ़र बना लिया था ज़िंदगी को।कभी कड़वी,कभी मीठी,थोड़ी खट्टी,थोड़ी चटपटी,हर स्वाद है इस ज़िंदगी में।सारी उम्र आजमाइशें देती आई थी सुगंधा ,पर फिर भी ज़िंदगी से बेपनाह मोहब्बत की है उसने।

हां तो बात बनारस की चली हो और बक्सर का जिक्र ना आए,ऐसा कभी कहां होता है।बनारस और बक्सर‌ का यह मेल, उसके मन में खुशियों की एक लहर दौड़ा देता था।हां यह बात किसी को कभी बता नहीं पाई थी।बनारस की गलियां,मंदिर,घाट ,साड़ियां,कचौड़ी,रबड़ी और भी जाने क्या -क्या था,जो लुभाता था उसके मन को पर जो एक बात बक्सर को जोड़ती थी बनारस से वह थी महज़ १०० किलोमीटर की दूरी।मास्टर का घर जो था वहां।उसी ने बताया था एक बार,जब वो बनारस गई थी।मास्टर नाम सुगंधा ने ही दिया था। उम्र में काफी छोटा था,पर लिखने में महारत थी।जैसी अच्छी हिंदी थी वैसी ही शानदार उर्दू में पकड़ थी।इसी तारीफ के सिलसिले में ही मुलाकात हुई थी उससे।कुछ ही दिनों में उसने निडर होकर कह दिया “सुगंधा,आई लव‌ यूं”.सुगंधा को विश्वास ही नहीं हुआ, ज़िंदगी में ऐसा दिन भी आएगा।बहुत डांटा था उसने।धमकाकर बोली थी कि वह बहुत बड़ी है उससे।नाम के साथ जी लगाया करो।पागल हो गए हो क्या? यह हमारी उम्र है प्यार करने की?तुम्हें कोई और नहीं मिला क्या?अपने से इतनी बड़ी औरत से प्यार की बातें करते हुए शरम नहीं आती तुम्हें?




और भी जाने क्या- क्या।पर वो भी हार मानने वालों में नहीं था।तपाक से बोला मैंने कहा क्या तुमसे, कि तुम भी प्यार करो।,उफ्फ,उसकी बातें सुनकर दिमाग खराब हो गया था। ज़िंदगी में इस बात का अफ़सोस हमेशा रहा सुगंधा को कि उसकी ज़िंदगी में प्यार कभी नहीं आया।पर इस तरह ,इस उम्र में कोई उससे प्यार का इजहार कर रहा था।

बहुत समझाने पर भी वह टस से मस नहीं हुआ।सुगंधा जब भी कहती बड़ी हूं तुमसे तो तुरंत वह कहता हां तो तुम ज्यादा कर लेना प्यार।सुगंधा के अनछुए मन में जैसे उसने कोई तार छेड़ दिया हो।ना पा लेने का सुख,ना छूटने का दुख।ना मिलने का कोई वादा,ना ही कोई इरादा।ये ज़िंदगी किस मोड़ पर ले आई उसे।हर बार वह एक ही बात कहता,प्यार को महसूस करो रूह में, ज़िंदगी बदल जाएगी।

सच में बिना स्वीकृति के मन ने मौन होकर स्वीकारा था इस निश्छल प्रेम को।सुगंधा के जीवन में सुखद बदलाव‌ आ गया था।अब किसी से कोई अपेक्षा,बैर,शिकायत कुछ भी शेष ना बचा था। ज़िंदगी मानो बांहें फैलाकर उसके सामने खड़ी हो गई आकर।अपने आप एक तृप्ति की अनुभूति होने लगी थी सुगंधा को।

ज़िंदगी के इस रूप की तो कल्पना भी नहीं की थी उसने कभी।अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए स्वयं को इस प्रेम के बंधन में जकड़ी पाने लगी थी सुगंधा।कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते। ज़िंदगी शायद खुद पर लगे इल्ज़ाम वो रही थी।उसके बंजर मन में प्रेम का कोमल बीज मास्टर ने बो दिया था,समय के साथ अंकुरित होता जा रहा था यह प्रेम।ना मास्टर ने सुगंधा से कभी कुछ मांगा और ना सुगंधा ने उससे।

रोज़ एक बार वह कहता”आई लव यू”और सुगंधा कहती”आई डोंट ना”

फिर उसका हर बार कहना”हट”।बिना एक दूसरे को देखे सुगंधा मास्टर से जुड़ चुकी थी।अपनी सारी बातें दोनों एक दूसरे को बताते और हर समस्या का साथ ही समाधान भी निकालते।एक अच्छी सरकारी नौकरी की हमेशा से आस थी मास्टर को।सुगंधा हमेशा कहती थी उससे जरूर मिलेगी,तब वह पूछता कब?

एक दिन‌ वही हुआ जो होना था।मास्टर की मम्मी शादी का दवाब बना रही थी उस पर।वह मना कर रहा था।सुगंधा ने मम्मी की ही कसम देकर उसे राजी किया था ,शादी के लिए।साथ ही यह वादा भी लेना नहीं भूली कि अब हम कभी बात नहीं करेंगे।अपनी जीवनसंगिनी के साथ रिश्ते में ईमानदारी होना जरूरी है।मास्टर आखिरकार मान ही गया।उस बात को तीन साल हो चुके थे।उसकी नज़्म और कविताएं अब भी पोस्ट होतीं थी,पर सुगंधा ने अब कुछ भी कमेंट करना छोड़ दिया था।एक सुखी गृहस्थी को वह कभी टूटने नहीं देगी।मास्टर ने भी अपना वादा निभाया था पूरी तरह।




आज बनारस जाते हुए अनायास ही बक्सर और मास्टर उसके सामने आकर खड़े हो गए मानो।

तभी महिलाओं के समूह में हलचल बढ़ गई।बनारस आ रहा था शायद या,सुगंधा आ रही थी बनारस ।मास्टर हमेशा उससे एक बार मिलने की बात करता और वह टाल देती थी।पर सुगंधा को विश्वास था कि एक ना एक दिन वह जरूर मिलेगी उससे।पता नहीं कहां होगा अभी?नोकरी मिली भी होगी या नहीं?पत्नी कैसी हुई होगी उसकी?यही सोचते हुए बनारस के स्टेशन में पैर रखा सुगंधा ने।बाहर निकलकर वैन में बैठते ही बनारस की खुशबू से मन भर गया।तभी एक जानी -पहचानी आवाज सुनकर चौंक गई सुगंधा।अरे! ये तो मास्टर की आवाज़ है ना!,सुगंधा हड़बड़ाकर वैन से उतर गई।सामने ही एक आटो में एक छोटी सी बच्ची(चार साल) चढ़ रही थी और कोई कह रहा था जल्दी कर गुड्डो।उफ्फ!! ये तो मास्टर की ही आवाज है,पक्का।जोर से मास्टर‌ बोलकर चिल्लाने ही वाली थी कि ओटो जा चुका था।सुगंधा आज ज़िंदगी के करीब आकर भी मिल नहीं पाई ज़िंदगी से।

आज सुगंधा को अपने भरोसे पर भरोसा हो गया था। ज़िंदगी वाकई में उसके साथ ही तो थी अब तक और रहेगी भी।सुगंधा को पक्का यकीन हो गया कि मास्टर यहीं बनारस में नौकरी कर रहा होगा।अभी घर से आ रहा होगा।१०० किलोमीटर ही तो दूर है।

अगले ही दिन सुगंधा ढूंढ़ने निकल पड़ी मास्टर को,नहीं ज़िंदगी को।अपनी बुद्धि पर जोर देते हुए उसने सबसे पहले बी एच यू में जाना ठीक समझा।सुगंधा के बहुत सारे छात्र पढ़ते थें वहां।एक बच्चे से संपर्क कर के उसके ही साथ ही एच यू के कैंपस में वह मास्टर का पता पूछने लगी।उसका अंदाजा सही निकला।आज ही जाएगी मिलने ,अभी तो छुट्टी हो गई है।अपने छात्र को साथ लेकर वह पहुंच ही गई मास्टर के घर पर।दरवाजा उसी छोटी बच्ची ने खोला।सुगंधा ने उसे देखते ही पूछा ,”विंध्या चाचू हैं घर पर?”

वह बच्ची दौड़कर अंदर भाग गई।कुछ ही देर में मास्टर की आवाज़ आई ,”सुरभि देखो,मैं ना कहता था वो आएगी एक दिन ज़रूर मुझे ढूंढ़ते हुए,आ गई सुगंधा।दरवाजे पर हांफते हुए मास्टर को देखकर सुगंधा को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ।उसने मास्टर से पूछा”तुम्हें कैसे बिना देखे पता चला, मैं ही हूं”

“बुद्धू आर्या को विंध्या नाम तो तुमने ही दिया था,नवरात्रि में जन्म लेने के कारण,और कौन कहेगा उसे विंध्या?”




सुगंधा झेंप गई।फिर से मास्टर जीत गया उससे।अंदर आइये ना,एक सभ्य महिला ने उसका स्वागत किया।”ये मास्टरनी है क्या मास्टर?”सुगंधा ने जैसे ही पूछा मास्टर ने हां में सिर हिलाया।

उस पल लग रहा था मानो ज़िंदगी ने सारी अभिलाषाएं पूरी कर दी।मास्टर की बीवी काफी सुंदर और सुलझी हुई लगी सुगंधा को।हिंदी में एम फिल थी।सुरभि नाम था उसका।गोद में एक डेढ़ साल का बेटा था उसके।सुगंधा ने गोद में उठाकर प्यार किया और बोली शाश्वत है ना यह?”

हां”मास्टर ने कहा था हंसकर।यह नाम उसे बेहद पसंद था।अक्सर कहता था पहले,सुगंधा अगर हमारी शादी हुई होती ना तो मैं बेटे का नाम शाश्वत और बेटी का संध्या रखता।बहुत सारी बातें हुई सुरभि के साथ।उसने बिना शक्कर की लैमन टी भी पिलाई।मास्टर ने ही बताया होगा।फिर जल्दी -जल्दी लिट्टी चोखा भी बनाया उसने।अच्छा !तो सब बताकर रखा है मास्टर ने मेरे बारे में अपनी बीवी को।सुगंधा सोच रही थी।उसने भी सबके लिए उपहार दिया था।मास्टर को पैकेट देते ही वह बोला “पीली शर्ट होगी इसमें मेरे लिए ना?”

“हम्म”सुगंधा ने कहा।मास्टर ने तुरंत शर्ट पहन ली और पूछा जंच रही है ना मुझ पर?,हां बिल्कुल!इतना ही कह पाई थी सुगंधा।

सुरभि का व्यवहार बहुत अच्छा लगा सुगंधा को।आते समय सुरभि ने एक बड़ा सा पैकेट थमा दिया हाथों में सुगंधा के।”अरे!ये क्या हैं?इतना बड़ा पैकेट?इस कंजूस से पूछा है ना?इसकी तो जान ही निकल जाएगी।

सुरभि ने हंसकर कहा “हां ,हम दोनों ने मिलकर ही खरीदा है।”कब”?,सुगंधा ने अवाक होकर पूछा।

हर महीने सैलरी से हम सभी के लिए कुछ भी खरीदतें हैं तो मुझसे पसंद करवाकर आपके लिए भी खरीद लेतें हैं ये।,सुरभि ने सामान्य होकर कहा।”पर क्यों?तुम पूछती नहीं,?”

सुरभि ने कहा” नहीं इनकी सैलरी पर आपका भी हक है सुगंधा जी।यह आप दोनों के निश्छल प्रेम का एक अंश है।”

इन्होंने शादी वाले दिन ही बता दिया था मुझे अपनी कहानी,और मुझसे वादा भी ले लिया है कि केवल इस जनम में वो मेरे रहेंगे।अगले सारे जन्म आप रहेंगी उनकी जीवनसंगिनी।सुरभि की बातें सामान्य नहीं थी।कोई भी औरत यह बात इतनी सहजता से नहीं कह सकती थी।सुरभि की सोच के आगे सुगंधा  नतमस्तक हो गई।इतनी सरलता से इस औरत ने अपने पति के प्रेम को स्वीकार कैसे कर लिया?यही सोचते हुए सुगंधा ने पैकेट खोला।ये क्या!काली,पीली और हरी साड़ी,पतली सी एक पायल,एक जोड़ी छोटी सी बिछिया और वो सारी छोटी-छोटी चीजें थीं उस पैकेट में जो सुगंधा ने कभी फरमाइश में कहा था मास्टर से।

वापस तो जाना ही पड़ेगा,महिलामंडली राह देख रही होगी।सुगंधा ने सुरभि से विदा मांगी तो मास्टर ने कहा मैं छोड़ आऊंगा सुगंधा ।ओटो में जाने की क्या जरूरत है?

सुगंधा ने कहा नहीं ना तुम आसानी से आ पाओगे मुझे छोड़कर और ना मैं तुम्हें आते हुए देख पाऊंगी।तुम सुरभि का ध्यान रखना मास्टर।तुम्हें ईश्वर ने अतुलनीय जीवनसंगिनी दी है।हमेशा खुश रखना इसे।और हां अब मेरे लिए कुछ मत खरीदना।मुझे सारी चीजें मिल गई ,जो भी मांगा था तुमसे।

“चलती हूं अब,”

मास्टर की आंखों में आंसू थे,भरे गले से कहा”सुगंधा तुमने मुझपर उपकार किया है यहां आकर।”

सुगंधा ने भी मास्टर के अंदाज में कहा”बस-बस”।दोनों हंसने लगे।

मास्टर ने कहा” फिर आओगी ना सुगंधा?”

“देखेंगे”सुगंधा ने कहा तो ,मास्टर झेंप गया।यही होता था उसका जवाब हमेशा,जब भी कुछ करने के लिए कहती थी।

आज ज़िंदगी ने बनारस और बक्सर का संबंध दिखा दिया था सुगंधा को।प्रेम अनंत है,जो मन में ही वास करता है कस्तूरी की तरह ,और हम ज़िंदगी भर भटकते रहतें हैं।थैंक यू ज़िंदगी,आज तुम्हारे प्रेमिल रूप ने मेरे विश्वास  को एक नया जीवन दिया।

शुभ्रा बैनर्जी

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