“स्वार्थी कौन” – डॉ. अनुपमा श्रीवास्तव

 ऊजे कांच ही बांस के बहँगिया …बहँगी लचकत जाये 

ऊजे भरिया जे होइहें ……

छठी मईया के इस अधूरे गीत ने सुमन जी के हृदय में हाहाकार उठा दिया था। वह एक हाथ अपने कलेजे पर रखी हुई थी और दूसरे हाथ से अपने वियोग के निकले आंसुओं को पोंछ रहीं थीं।

पिछले साल पति के गुजरने के बाद उन्होंने छठ घाट पर जाना छोड़ दिया था। जायें भी तो किसके लिए,किसके भरोसे। दोनों बेटियों के ब्याह के बाद पति का ही सहारा था। उन्हीं के बल बूते पर वह यह महाव्रत करती आयी थीं। जाने कौन से अपराध ने उनसे सारे सुख छीन लिये थे। कौन से पापों की सजा उन्हें मिल रही थी।

दो बेटियों के बाद छठी मईया ने एक बेटा दिया था।वह अपने बच्चों के साथ बहुत खुश थी। बेटा पांच साल का हुआ ही था।  तभी पति ने परिवार वालों के दबाव देने पर उसे जेठ जी के पास शहर भेजा ताकि उसकी शिक्षा -दीक्षा अच्छी तरह से हो। जेठ जी ने उसके कान में ऐसे मंत्र दिये कि घर तो घर, वह माँ को भी भूल गया।  वह पर्व- त्योहार में घर आता तो अजनबियों जैसा व्यवहार करता।  बेटे के इस तरह के व्यवहार से माँ का दिल छलनी होकर रह जाता। बहनों को भी भाई रहते हुए कभी भाई का स्नेह नहीं मिल पाया। वह मिलता भी था तो अनमना सा। वे राखी लेकर इंतजार करती रहती पर  वह पढाई का बहाना बनाकर आने से साफ मना कर देता। बहनें तो रो देती पर जेठ जेठानी बहुत खुश होते। वो जो चाहते थे वही हो रहा था। बिना जन्म दिये ही बेटे का सुख उठा रहे थे। बड़े भाई को बूरा ना लगे इस के लिए कभी भी पति ने अपने बेटे पर दावा नहीं किया और ना कभी उन्हें करने दिया। 

आज सारा गाँव छठी माता की गीत से गूंज उठा था। सबका घर परदेसी बेटों से भरा था। सब अपनी -अपनी माँ के साथ छठ -घाट पर जाने के लिए दउरा-डाला सजा रहे थे ।चारों ओर छठी माई की महिमा का बखान हो रहा है और बेचारी सुमन जी की आंसुओं से भरी सूनी आंखे….. विरान पड़े घर आँगन को निहार रही थी। कौन था जो इस विरान आँगन और माँ की सूनी आँखों में खुशियों की जोत जला देता? 




 

“इतने सारे कपड़े – लत्ते और इन सामानों के साथ कहां जाने की तैयारी में हो अनुज”- वर्मा जी ने अनजान बनते हुए पूछा ।

“कहाँ जाऊंगा… माँ के पास गाँव जा रहा हूं। इस बार छठ में मैं वहीं रहूंगा। यह सारा सामान उन्हीं के लिए है। मेरा फर्ज भी बनता है कि मैं उनकी पूजा करने का इंतजाम कर दूँ ।”

वर्मा जी ने भृकुटी टेढ़ी करते हुए कहा- “क्यूँ वहां जाने की जरूरत क्या है कोई नहीं है वहां पर ।क्या करोगे तुम जाकर। यहां बड़ी माँ की तबियत ठीक नहीं है। उन्हें जरूरत है तुम्हारी और तुम्हें गाँव की याद आ रही है। “

“यहां के लिए क्या सोचना  है इतने सारे नौकर -चाकर हैं। इसके अलावा आप स्वयं भी तो हैं। वहाँ कौन है। बेचारी अकेली माँ क्या करेंगी?

“गज़ब के स्वार्थी हो तुम अनुज!!

 पाल पोसकर बड़ा किया है।पढ़ाया लिखाया,काबिल बनाया तुम्हें हमने और चिंता तुम्हें कहीं और जाने की हो रही है ।”

वर्मा जी की आवाज में कसैलापन साफ झलक रहा था ।उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी कि अनुज का झुकाव अपनी माँ के पास जाने के लिए ऐसे होने लगेगा। पच्चीस साल के बाद अचानक से इतना लगाव होने लगना आश्चर्य की बात थी।

“हाँ हूँ मैं स्वार्थी!”

आप यही कहना चाहते हैं तो यही सही मैं स्वार्थी हो गया हूँ। बोलते हुए एकाएक अनुज के बोलने का लहजे में सख्ती आ गई थी। माँ का ख्याल रखना स्वार्थी होना है तो मैं हूँ स्वार्थी!!




मेरे कान सुन्न हो गये आपके उलाहने सुन-सुनकर।

आखिर कहां चूक गया मैं अपने कर्तव्यों को निबाहने में। जो  मैं स्वार्थी हो गया आपकी नजर में?

” अब आज मैं आपसे पूछना चाहता हूं मुझे आप भी बता ही दीजिये स्वार्थी कौन है ?”

मैं या आप !!

पांच साल का था जब आप मुझे मेरी माँ से छीनकर लाये थे। कितना बड़ा अन्याय किया था आपने मेरी माँ पर। मैं तो अबोध था,बच्चा था। मुझे अपने पराये की समझ नहीं थी। पर आपको तो थी न!

माना कि पिताजी के पास हमारी शिक्षा- दीक्षा के लिए उतने पैसे नहीं थे। आप उनकी सहायता करने के बदले में मुझे माँग लिया। क्या कभी सोचा कि उस माँ पर क्या गुज़री होगी जिसकी मजबूरी ने उसके औलाद को उससे दूर कर दिया था। भले ही वह आपके एहसान के नीचे दबे होने के कारण बोल नहीं पाई हो। लेकिन औलाद से बिछड़ना क्या होता है यह तो वही जानेगा जिसे कोई….

“अनुज… अनुज …यह क्या बोले जा रहे हो तुम?”

क्या गुनाह  किया था मैंने। जैसी परवरिश तुम्हारी की है मैंने वैसी परवरिश तो तुम्हारी माँ सपने में भी नहीं सोच सकती थी समझे! आज जो जीवन जी रहे हो न वह तुम्हारे माँ- बाप तुम्हें किसी जन्म में नहीं दे सकते थे। पढ़ा- लिखा कर लायक बना दिया है तो अब माँ याद आने लगी है। हम तो अब पिछे हो गए है न!तुम्हारी नजरों में हमारी कोई कीमत ही नहीं है।

“कीमत चाहिए न आपको तो मैं आज आपको वचन देता हूँ मैं अपनी सारी कमाई आपको दे दूँगा ।पर मैं “स्वार्थी” ही सही अब से मैं अपनी माँ के साथ  ही रहूँगा।”

चलता हूँ माँ को लेकर छठ -घाट जाना है ।एक झटके में अनुज ने सामानों से भरा बैग उठाया और गाँव के लिए निकल गया।

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर, बिहार

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