सुनो मालती – पुष्पा जोशी

‘सुनो मालती!’ वह रसोई में जाते-जाते रूक गई।आज से३०वर्ष पूर्व भी उसके कानों में अरूण की यही आवाज गूंजी थी, और वह ठिठक कर रूक गई थी,उस आवाज की गूंज ने उसे अपने आप से दूर कर दिया था,उसका सारा वजूद जैसे सिमट गया था, दिल के एक कौने में।उसे आज भी याद है,जब शादी होकर वह ससुराल आई थी,अरूण ने सर्वप्रथम उससे यही कहा था- ‘ सुनो मालती ! इस घर के सारे कार्य की जिम्मेदारी अब तुम्हारी है, माँ अब थक गई है, उनसे काम मत करवाना,उनका आदेश मानना तुम्हारा धर्म है, और मेरे छोटे भाई बहनों का मन रखना तुम्हारा कर्तव्य। शिकायत का मौका मत आने देना, ध्यान रखना।बस यही कहना था।’

‘बस यही कहना था? कुछ सुनोगे नहीं ‘ वह मन ही मन बुदबुदाई। मगर तब तक अरूण जा चुका था। इस “सुनो मालती”  की गूंज के हर भाव को उसने अपने पल्ले में बांधा और इन ३० वर्षो में बस उन्हें ही सहेजती रही।पल्लू के दूसरे हिस्से से वे सपने,आशाएं,इच्छाएं जो वह मायके से बांध कर लाई थी, कब बिखर कर धूल में मिल ग‌ए, उसे पता ही नहीं चला।

आज फिर वही …”सुनो मालती” ….मगर आज आवाज में नरमी थी । वह अरूण के समीप जाकर खड़ी हो गई और उसके चेहरे की ओर देखा वह सुनना चाह रही थी कि आज वे क्या कहना चाह रहे हैं। कल उसके बेटे की नव ब्याहता बहू, पग फैरे के बाद घर आई  है । जिम्मेदारी को सम्हालने में मालती बोलना जैसे भूल ग‌ई थी,जरूरत से ज्यादा एक शब्द भी नहीं, और उसे इसमें सुकून मिलता था, बेकार का बखेड़ा उसे पसंद नहीं था।

अरूण ने कहॉ- “देखो दिव्या पहली बार अपने मायके को छोड़कर आई है, उसे किसी चीज की कमी न हो,उससे ज्यादा काम मत करवाना। ध्यान रखना यह सब तुम्हें ही देखना है।मालती  देख रही थी अपने पति के बदलते मापदण्ड को, उसने एक नजर अरूण के चेहरे पर डाली, उन नज़रों में कुछ ऐसा था कि अरूण की नजरें नीचे झुक गई। मालती ने पूछा-‘बस यही कहना था?अब जाऊं भोजन बनाने।’ “बस यही कहना था ” ये शब्द उसने जोर देकर कहै थे, और अरूण को भी ३० साल पूर्व की घटना स्मरण हो आई थी।



उसने मालती का हाथ पकड़ लिया और कहॉ- ‘रूक जाओ मालती! बहुत कुछ कहना है तुमसे, आज तक कुछ कह नहीं पाया, मैंने क‌ई घरों को बिखरते देखा है, पापा  का रौद्र रूप, बिना कारण माँ पर बरसना, नशे में धुत्त हो माँ को पीटना, माँ का दर्द से छटपटाना, रानू और दीपा का सहम कर मुझसे चिपक जाना, सबकुछ देखा है मैंने। तुमने उन्हें देखा नहीं। उनके देहान्त के बाद क‌ई रिश्ते आए मगर जब तुमसे  मिला तो लगा तुम ही हो जो मेरे परिवार  को बिखरने से बचा सकती हो। हो सकता है मेरा व्यवहार तुम्हें रूखा लगा हो,पत्थर सा कठोर…….।उस समय  मन में बस एक इच्छा थी, कि माँ को खुश रख सकूं, भाई बहनों की जिम्मेदारी निभा सकूं, पर जाने अंजाने , मैं तुम्हारा अपराधी बन गया। मेरा भी दिल करता कि काश तुम कभी उस झरने को भी देख पाती, जो इस कठोर आवरण के नीचे बहता है।गलती तुम्हारी नहीं है, दोष मेरा है, जब तुम्हें  जीवन की रंगीनियां देना था, मैंने तुम्हें कार्य के बोझ से लाद दिया,तुमने मुझे शिकायत का मौका दिया ही नहीं और न कभी कारण जानने की कोशीश की, कभी-कभी लगता कि तुम मुझसे कुछ कहो, शिकायत करो। मगर… तुमने एक मौन धारण कर लिया था, और यह मौन सजा से कम नहीं था मेरे लिए, क‌ई बार टूटा मगर तुम्हारे प्रति अगाध प्रेम और विश्वास का झरना निर्बाध गति से बहता रहा, इस सख्त आवरण के नीचे। आज तुम्हारी अच्छी परवरिश के कारण रानू और दीपा के घर बस ग‌ए, अब हमारे बेटे मधुर के घर बसने का समय है, मैं जानता  हूँ, कि मैं तुम्हारा दोषी हूँ। पर यह भी उतना ही सच है तुमसे ज्यादा प्यार और विश्वास न किसी पर किया और न कर सकता हूँ। तुम्हारे प्रति मेरा व्यवहार,मेरी मजबूरी थी, मेरी कमजोरी थी,या तुम्हारी चुप्पी मैं भी नहीं जानता। बस इतना विश्वास है, एक तुम ही हो,जो इस परिवार को एक सूत्र में बांध कर रख सकती हो। इसलिए शायद….. यह सब कह गया…।’ उसकी आवाज भर्रा गई थी और आँखे आँसुओं से लबरेज। फिर हिम्मत करके बोला ‘तुम जैसा चाहो वैसा रहो।’  मालती, अरूण के चेहरे को एकटक देख रही थी,स्तब्ध थी उसके इस रूप को उसने पहली बार देखा था। वह सोच रही थी कितना अच्छा होता, अगर यह  झरना उस समय फूटता जब पहली बार ‘सुनो मालती’ की गूंज उसके कानों में पड़ी थी,तब ये ३० साल रूखे नहीं, सरल-तरल होते। खैर उसके होटों पर मुस्कान तैर गई। वह अरूण से बोली तुम अपना विश्वास कायम रखना यह घर कभी नहीं बिखरेगा मगर एक शर्त है, इस सख्त आवरण के नीचे से धारा प्रवाहित करते रहना ऐसा नहो कि एक और मौन जीवन की सरिता को सुखा दें।अरूण ने कहॉ-‘ ऐसा कभी नहीं होगा दोनों खिलखिला कर हँस पड़े और पूरा घर खुशी से महकने लगा।

#सहारा 

प्रेषक

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक

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