सूझबूझ – कंचन श्रीवास्तव आरज़ू : Moral Stories in Hindi

रमा जैसे ही नाश्ता लेकर कमरे में दाखिल हुई लिये लिये ही बड़बड़ाई ……. चादर तो समेट लेते सुबह से ज्यों का त्यों कमरा पड़ा है अरे जहां पड़े हो कम से कम उसे तो समेट लिया करो  । नहीं…… उसी में सोये रहेंगे कहते हुए जैसे ही नाश्ता बेड पर रखने लगी रवि खुद को उठाता हुआ चादर को गोलियाते हुए रमा की ओर देखा।

और जब देखा तो आंखों पर चढ़े चश्में के बीच चेहरे के मासूमियत भरे भाव ने उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया।

उसने जिस मासूमियत से उसकी ओर देखा वो आगे कुछ ना बोल जाने क्यों  उसके बाद से उसके प्रति  रवैया उसका बदलता चला गया।

जहां वो पूरे दिन उससे चिढ़ी चिढ़ी  रहती थी वही एकदम सामान्य हो गई।हलाकि कभी-कभी सोचती  कि क्या सबको समझने का ठेका उसी ने ले रखा है।  फिर भी जाने ऐसा क्या था उसके देखने में कि वो पहले जैसी नही रही।और इस परिवर्तन को उसके पति ने भी महसूस किया तभी तो ……….। दरसल हुआ ये कि शादी के कुछ ही दिन बाद घर में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा वो ये कि उम्रदराज ननद का देहांत हो

गया,अब मरी वो अपनी बीमारी की वजह से पर कहते है ना  घर की चार औरते जहां बैठ जाये भला वहां पंचायत ना हो ऐसा हो नही सकता उनके आगे सारे तर्क बेकार हैं फिर क्या था काना फूसी होने लगी और बात उसके कानों तक ये पड़ी कि उसका पैर अच्छा नही था तभी तो आते ही इतनी बड़ी मुसीबत सामने आ खड़ी हुई ।

मगर इसे  सहने के अलावा उसके पास दूसरा कोई चारा नही था । क्योंकि  मायके  की हालत भी अच्छी न थी कि वहां रह कर जिंदगी बसर कर सके और वैसे भी वे लोग रखते भी ना । क्योंकि उनका साफ कहना था कि शादी के बाद लड़कियां अपने घर ही अच्छी लगती हैं । इसलिए उसे झक मार के रहना ही था

जीवन के कई रंग…. एक रंग भेदभाव के…!! – सीमा कृष्णा सिंह

एक तो घर का माहौल खराब ऊपर से पति की नौकरी ने कहर ढाने का काम किया आये दिन उनकी नौकरी छूटती रहती जिसकी वजह से  जिंदगी  बोझ बन गई थी।सारा खर्चा सासू मां उठाती ,अब उठाती वो पर झल्लाती जिठानी कि सारी कमाई हम लोगों पर खर्च कर दे रही हैं इसकी वजह से  सारे  दिन मुंह भी फुलाये  रहती और काम भी करवाती ।

जिंदगी जैसे तैसे कट रही थी पर शायद ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था कि, बीच में ही  सासू मां का भी बुलावा आज गया और अधकचरी गृहस्थी छोड़ कर चल बसी।अधकचरी  इस लिए कि उन्ही के सहारे दो बच्चों की परवरिश हो रही थी । पर उसने धैर्य से काम लिया और तेरहवी के बाद निर्णय लिया कि कुछ काम शुरु करे ।

जिसके लिए उसने प्रयास किया और  सफल भी हो गई घर के पास ही उसे काम मिल  गया।जब मिल गया तो धीरे धीरे गृहस्थी पटरी पर आ गई। बच्चे भी बड़े हो लगे इन सबके बीच  जवानी कब खिसक गई पता ना चला। पर एक अच्छे समझदार पति की कमी हमेशा उसे अखरती क्योंकि दोनों के बीच वो रिश्ता नहीं बन पाया जो बनना चाहिए।वो बात अलग है

कि तन की आग बुझाने के लिए जब भी करीब आता वो मना न करती पर उसमें भी वो असंतुष्ट ही रहती क्योंकि वो भी एक तरफा ही स्वांत: सुखाय होता ।ऐसे में चिड़चिड़ापन और बढ़ तो जाता पर कहते हैं ना कि स्त्रियों हर परिस्थिति में खुद को संयत कर लेती है सो ये थोड़ी देर में अपने आप को सामान्य कर लेती ।पर मन से उसे वो प्यार ना दे पाती तो देना चाहिए।

वजह सिर्फ़ इतनी थी कि उसने कभी उसे अपनों के बीच वो सम्मान नही दिया जो एक स्त्री को मिलना चाहिए या वो प्रेम नही दिया जो एक पत्नी को मिलना चाहिए ये कह लो की दोनों के बीच सिर्फ़ एक सामाजिक बंधन रहा

जिसकी आड में शारीरिक और पारिवारिक जरूरते पूरी होती रही।

पर मन का रीतापन कही न कही उसे भीतर ही भीतर खाये जा रहा था।अब तो बस एक बुत बन कर रह गई है ।बढ़ती उम्र के साथ जिम्मोदारियां और बीमारियां के  साथ रिश्ता निभाने रही बस निभाये भी क्यों ना बढ़ी उम्र के साथ  नौकरी से खुद पे खुद रिटायरमेंट ले लिया।माना प्राइवेट  ही सही पर कुछ पैसे तो आते थे जिससे घर चलता था जाना बंद कर दिया तभी तो और भी चिड़चिड़ी हो गई और जब तक हर बात पर बरसने लगी।

नया सवेरा – संस्कृति सिंह

बरसे भी क्यों ना, ना बच्चे सेटल हुए ना बैक बैलेंस और ना ही किसी की शादी विवाह हुआ तो झुझलाना लाजिमी है पर पति के ऊपर कोई असर न देखकर खुद ही कुछ महीनों में सहज हो गई।

फिर क्या आदत सी हो गई ऐसे ही रहने की और एक दिन उसने  खुद को ही समझाया कि अब तो वही उसकी सब कुछ है ना मां -बाप हैं ना नौकरी शारीरिक अक्षमता की वजह से इससे भी त्यागपत्र दे दिया है पहले जो हुआ सो हुआ अब  जिंदगी तो इन्ही के साथ गुजारनी है।

जब अभी तक कुछ नही हुआ तो अब क्या होगा फिर बच्चे बड़े हो गए हैं यदि हम हर समय नीचा गिराते रहेंगे तो बच्चे भी इज़्ज़त नही करेंगे।जो कि उसे खुद को  भी नही अच्छा लगेगा। इसलिए उसे वही करना है जिससे घर एक हो कर रहे वरना बिखरते देर ना लगेगी।और हर बार की तरह इस बार फिर खुद को ही समझा और अपनों के लिए अपने दुखों को भुलाकर सबके साथ घुल मिलकर रहने लगी। उसे लगा कि

जब वो परिवार के साथ समझौता कर सकती है तो फिर अपनों के साथ क्यों नही आखिर यही तो हैं जीने का उद्देश्य और जब यही असंतुष्ट रहेंगे तो फिर उसके नारी होने का क्या मतलब अरे नारी तो  त्याग,समर्पण, तपस्या और प्रेम की प्रति मूर्ति है फिर भरा क्यों उसे कलंकित करें।

फिर उसके। बाद  ढलती उम्र के साथ जिस तरह से दोनों के बीच माधुर्य बढ़ा वो काबिले तारीफ था।

सच  रिश्ता हो तो ऐसा जैसा इन दोनों का आज इन दोनों को देखकर लगता है कि सच स्त्री की सूझबूझ एक परिवार को टूटने से बचा सकता है बढ़ती उम्र के साथ  दैहिक आकर्षण कैसे भावनात्मक हो जाता है कोई इनसे सीखे और ऐसे में जब भावनात्मक लगावा हो जाये तो बुढ़ापा अपने आप संवर जाता है।फिर वक़्त और उम्र कब कैसे  कट जाता है  पता ही नही चलता।

कहानी कार

कंचन श्रीवास्तव आरज़ू प्रयागराज

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!