सुहाग चिन्ह – डाॅ उर्मिला सिन्हा

   गंगा कावेरी दोनो बचपन की सहेलियां थी।दांतकाटी मित्रता थी दोनो में।साथ-साथ बडे़ हुये ,खेला पढाई की।गुड्डे गुड्डियों की व्याह रचायी ।गर्मी के दोपहरी में  कच्ची अंबिया पिछवाडे़ से तोड़ नमक-मिर्च लगाकर चटखारे एक साथ लिये।

  “चल सावन के झूले लगे!”

 “हां हां कजरी गायेंगे।”संग संग सावन में पींगे भरी।

सर्दियों में लाल पीली हरी नीली रंगबिरंगे स्वेटर साथ -साथ बुने।

    कावेरी का अपना मकान था गंगा किरायेदार की बेटी थी।पर दोस्ती ऐसी कि लोग उदाहरण देते।

  फिर गंगा के पिता अवकाशप्राप्त कर अपने गांव चले गये ।

    कावेरी  का विवाह तय हो गया।निमंत्रण पत्र भेजा गया ।जबाब में गंगा के पाणिग्रहण का कार्ड आया।फलस्वरुप दोनो परिवार में से कोई एकदूसरे के यहां न जा सका।गंगा कावेरी अपनी -अपनी गृहस्थी में रम गई।एक दूसरे को याद करती किंतु कभी मिलने का प्रयास नहीं किया।

  एक दिन   मंदिर की सीढियां चढती कावेरी अपनी फूली सासों पर नियंत्रण पाने  का यत्न करती हुई धीरे धीरे उपर  चढ रही थी।

    गंगा सीढियां उतर रही थी हाथों में पूजा की थाल लिये ।दोनों ने एकदूसरे को देखा …चौंकी संभली और लपककर एकदूसरे के गले जा लगी।खट्टी मिट्ठी बातों का सिलसिला ऐसा चला कि खतम होने का नाम नहीं।गुजरे तीस वर्षों का हिसाब वे तीस मिनटों में ही समाप्त कर लेना चाहती थी।कावेरी भूल चली कि उसे पूजा करनी है गंगा ने विस्मृत कर दिया कि उसकी बहू प्रसाद का इंतजार कर रही होगी ।उन्हें न अपनी उम्र याद रही न बदलती परिस्थिती।

“मां पूजा में देर है क्या?” गंगा की बहू सासु मां को बिलंब होते देख स्वयं आ पहुंची।

“मेरी बहू कनक ,बहू यह मेरी बालसखी कावेरी  है ,चरणस्पर्श करो!”

  जब  साडी़  से सिर ढंके कनक ने अपने हाथ में आंचल  ले दोनों हाथो से कावेरी का पांव छुआ ।कावेरी गदगद हो उठी”सौभाग्यवती रहो!”

  कावेरी कनक का बनावश्रृंगार देख ठगी सी रह गई ।बडी़ बडी़ लुभावनी आंखें घुंघराले बाल तीक्ष्ण नासिका गोरा चंपई रंग …चुंदरी छाप साडी़ , कलाईयों में लाल पीली दर्जनभर चूडियां कानों में लडियां नाक  में लौंग ।आंखों में काजल ,पायल  बिछुए संग पांव में महावर ।

   रुनझून पायल खनकाती  सिर पर आंचल लिये हंसती तो मानो फूल झरते ।ऐसी ही बहू की कल्पना कावेरी ने भी की थी।बहू की एक पारंपरिक छवि कावेरी के हृदय में बसी थी।उसे गंगा के भाग्य से ईर्ष्या सी होने लगी।

   एक दूसरे के घर आने का न्यौता दे दोनो सहेलियां वापस हुई।

  कनक की प्यारी परंपरागत बहू की छवि ने कावेरी को  मोहित कर दिया था।

  “मम्मी नास्ता लाऊं”इला ने पूछा।

“नहीं मन नहीं है “कावेरी का दिल  अपनी श्रृंगार विहीन आधुनिक बहू को देख जल उठा।

  “आपकी तबियत तो ठीक है न? ” इला ने सासु मां के माथे पर रखा।

 “नहीं बुखार नही है …चाय या दूध लेगी !”

  कावेरी का दिल हुआ इला की बिना चूडियों वाली हाथ को कठोरता से झटक दे।भला यह भी कोई लक्षण है  भरेपूरे घर की बहू बेटियों की ।

 “नही एकबार कह दिया न ” कावेरी चिढ गई ।

 इला गृह कार्यो में व्यस्त हो गई । गंगा की  बहू का सलोना  रुप ,दिल से जा ही नही रहा था।

”  बहू तो मेरी भी बुरी  नही है सुंदर समझदार आज्ञाकारिणी है …किंतु उसका साधारण रंग ढंग मर्दो की तरह पहिरावा “वह बुदबुदाई।

  न रंग बिरंगी चूडियां ,न जेवर न भर मांग  सिंदूर ।

 शुरु शुरु में वे टोक दिया करती ।      

  वैसे में इला  सासु मां के गले में बाहें डाल तुरंत सफाई देती,”मां जेवर मुझे चुभते हैं…चूडियां पहन लैपटाप पर काम करने में दिक्कत होती है।साडी़ संभलता नहीं लदफदा जाती हूं।”

  अब इसे कौन समझाये कि सुहागिनों के लिये कांच की चूंडियां पहनना कितना आवश्यक है ।जेवरों के पीछे स्त्रियों का मोह जगजाहिर है।रंग बिरंगी साडियों से बढकर दुसरा परिधान नहीं …मेरी बहू तो सारे जग से निराली है।

    सुहाग चिन्ह कोई नहीं धारण करेगी ।न चूडिया न बिंदी न झूमके न बिछुआ न पायल …साडी  भी शायद ही बांधेगी ।

  बस बदरंग जींस पैंट पहनकर ऊंट की तरह उछलती रहेगी।सिंदूर से एलर्जी है ।

 एक दिन गंगा बडी़ उत्साह से अपनी सहेली कावेरी के घर पहुंची।कावेरी  बेचैन हो उठी ,”मेरी  बहू  का रंग ढंग देख क्या सोचेगी।”

  “मेरी बहू इला” कावेरी ने बुझे मन और धडकते दिल से परिचय कराया।

“इला ये मेरी बचपन की सहेली गंगा है “!

इला गंगा के पैरों पर झुक गई ।गंगा ने उसे सीने से लगा लिया।श्रृंगार विहीन लडकों के समान कटे बाल वाली बहू चाय नास्ता तैयार करने लगी।

“कावेरी ,तुम्हारी बहू तो बडी़ स्मार्ट है,तुम किस्मतवाली हो”!

 इला ने निश्छल हृदय से यह बात कही थी ।गंगा को लगा कि वह ताने दे रही है ।बस फिर क्या था मन का सारा भडांस निकाल दिया।

“क्या करुं ?अमृत मेरा इकलौता बेटा है ।मेरी भी इच्छा थी  लाल साडी जेवरों से लदी मेरी बहू रहे ।मगर मेरा बेटा ब्याह कर लाया भी तो ऐसी अनोखी लडकी को जिसे सारे सुहाग चिन्ह बेकार लगते हैं।सिर्फ पति से सुख उठाना जानती है …उसके कल्याण का नहीं सोचती ।तुम्ही बताओ बिना सुहाग चिन्ह  के विवाहिता अच्छी लगती  है।”

 मातृविहीन  इला  अपने पिता के छत्रछाया में पली बढी थी। उसका पालणपोषण उन्मुक्त भाव से हुआ था कोई  सामाजिक पारिवारिक रीति-रिवाज  समझाने वाला न था।इला सरल हृदय की धैर्यवान युवती थी अतः अमृत के प्रेमपाश में बंधते ही विवाह का फैसला कर लिया।

   अमृत जब कोर्टमैरेज  कर जींस टाॅप  वाली इला को  लेकर पहली बार मां के पास पहुंचा  तब कावेरी स्तब्ध रह गई ।उनके सीधे सादे बेटे ने यह क्या कर डाला।किंतु वे एक समझदार मां थी ।बेटे की पसंद को उन्होंने सिर आंखों पर लिया ।इला भी सास की  बहुत इज्जत करती थी ।दूध मिश्री के भांति  वह परिवार में घुलमिल गई

बस उसका पहिरावा ही कावेरी को खटकता था।

         शायद उसके पीछे एक  मनोवैज्ञानिक कारण भी था।जब अमृत दो वर्ष का था उसी समय उसके पति एक दुर्घटना में चल बसे थे ।फलतः वह सुहागचिन्ह से वंचित हो गयी।मन की दबी इच्छा  बहु को देख जोर पकड़ने लगा …इसीलिये इला को सजेधजे देखना चाहती थी।

एक दिन अमृत को घर लौटते देर हो गयी।सास बहु दोनो अपनी जगह पर चिंतित थी।

“मम्मी अमृत नही लौटा।”

 “तुम्हें क्या ,इसी समय कुसमय के लिये स्त्रियां सुहागचिन्ह धारण करती हैं जो पति के लिये रक्षाकवच  साबित होता है।” बेटे के लिये चिंतित कावेरी अपने जुबान पर काबू न रख सकी।

    थोडी़ देर तक इला क्रोध से तमतमायी सास का चेहरा देखती रही  ।फिर उनके पैरों के पास बैठ कावेरी के गोद में सिर रख धीरे धीरे बोल उठी,”मम्मी आप मुझसे बहुत नाराज हैं न कि मैंँआम औरतों की तरह सुहाग चिन्ह धारण नहीं करती।असल में मैं पढाई-लिखाई में ऐसा व्यस्त रही कि कभी साजश्रृंगार की ओर ध्यान ही  नहीं गया। घर में न मेरी कोई सहेली थी न कोई स्त्री  जिससे कुछ सीखती ।बस पापा और मैं। यकीन मानिये मैं आपके बेटे से बहुत प्यार करती हूं वरना अपने पिता की अपार संपत्ति त्याग आपके बेटे के पीछे नहीं आती। असली सुहाग चिन्ह पति पत्नी का आपसी संबध  लज्जा त्याग है।

मैंआपको दुखी नहीं देख सकती ।वह सब धारण करुंगी जिससे आपको खुशी मिले।”

   इला की आंखे छलछला आई।कावेरी को अपनी गलती का अहसास हुआ ।बेकार ही वह दिखावे के लिये इतनी छोटी सी बात को बतंगड़ बनाये हुई है।प्यार मन की भावना  देखता है वाह्य आडंबर नहीं।

“ना बहू तुम्हें जैसी सुविधा हो वैसे ही रहो ।पति को मन वचन कर्म से संतुष्ट रखना ही सच्ची सुहागिन का कर्तव्य है।”

  अमृत घर आ गया था।इला उसके स्वागत में बाहें फैलाकर दौड़ पडी़ ।कावेरी को भी बहू के सुहागचिन्ह के धारण नहीं करने  से कोई शिकायत नहीं रही । प्यार इज्जत दिल में होना चाहिये दिखावा से क्या लाभ।

    सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना-डाॅ उर्मिला सिन्हा©®

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