थी … – निवेदिता श्रीवास्तव ‘निवी’

सच कब से इधर से उधर भटकती वो सबके मुँह से बस यही सुन रह थी … पहले के कुछ शब्द अलग – अलग से  होते ,परन्तु अंत मे यही ‘थी’  ही आ कर वाक्य को पूर्ण कर रहा था।

कहीं सच मे कुछ नम तो कुछ बहती हुई पलकें थीं ,तो कहीं मन की उदासी आँखों को खुश्क ही छोड़ गई थी। मन को चुभती हुई सी कुछ अपनी तो कुछ बेगानी सी वो शक्लें भी थीं ,जो अपने मैचिंग दामन से जबरन ही आँखों को पोछ कर  लाल कर रही थीं। सच ये लाली चुभ रही थी । फिर एक ‘थी’  मेरी ही बात में आ गया …

मेरा होना कोई पहले ही नहीं महसूस कर पाता था तो अब क्या करता … मैं निर्विघ्न हो उन्मुक्त भाव से विचरण करती अंदर अपने कमरे में भी पहुँच गयी कि चलो एक झलक इसकी  भी ले लूँ … वो क्या कहते हैं न कि मोह जल्दी जाता नहीं ,मन को लटकाए भी रखता है और भटकाये भी !

सारा सामान ही एक तरह से अलमारियों से बाहर पलट दिया गया था और निशानी बता – बता कर सब अपनी पसन्द की चीजें खुद पर लगा – लगा कर देखते और जँचने की कम्फर्मेशन आते ही समेटने की जुगाड़ में लगे थे।

तभी उस तरफ आती बेटी की आवाज़ कानो में अमृत घोल गयी, सोचा चलो एक बार और लाडो को देख लूँ। कमरे में घुसते ही वहाँ का दृश्य देखते ही उसकी दृढ़ता फफक पड़ी ,”हमने आप सब से कितनी बार हाथ जोड़ कर मना किया था कि माँ के सामान को कोई नहीं छुएगा परन्तु आप लोग मान ही नहीं रहे हैं और फिर से उनके सामान को हड़पने आ गये। शायद आप को समझ नहीं आ रहा है कि आप के लिये ये सारा सामान सिर्फ साड़ी, ड्रेसेज और गहने हैं, पर हम सब के लिये इसमें हमारी माँ की खुशबू बसी है, उनके होने का एहसास है। आप सब बाहर निकलिए यहाँ से क्योंकि भाभी नहीं बल्कि मैं इस कमरे में ताला लगा कर चाभी उनको दूँगी। कहीं भाभी ने ये कर दिया तो आप सब तो उस बिचारी के प्राण तो बोल – बोल कर ही ले लोगे।”





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सच मेरी बिट्टो जरा भी न बदली थी, सबको खरी – खरी सुनाने और अपनी भाभी के सम्मान की परवाह खुद से भी ज्यादा करती रही है।

उस को दुलराने के लिये अपने फैले हुए हाथों को तुरंत ही समेट लिया था … अब मैं स्पर्श से परे जो हो गयी हूँ !

भीगी पलकों में मन की नमी भरे बाहर आ गयी। दोनों बेटे हतप्रभ से एक दूसरे को देखते असमंजस में भटक रहे थे। सच यही काम मैं नहीं कर पाई ,उनको दुनियादारी नहीं सिखा पायी। शर्मिंदा हूँ बच्चों ! पर अब समय ही तुम लोगों को ये सिखायेगा।

बच्चों से नजरें चुराती बाहर आई तो देखा अच्छी खासी भीड़ इकट्ठा थी, उसमें वो सब भी शामिल थे जिनको मुझे जीवित देखने की छुट्टी नहीं मिल पाई थी। आज सब सम्बधों का दिखावा करते एक – दूसरे से कहते खड़े थे ,”सुख में न पहुँचो कोई बात नहीं, पर दुख में तो जरूर जाना चाहिए। आखिर परिवार होता किसलिये है!”

सब मेरी सभी चाहतों को भूल ही गये थे, तभी तो देह – दान की मेरी चाहत को अनदेखा कर धार्मिक कर्मकांड करने में लगे हुए हैं।

सच कहूँ तो मैं जीना चाहती थी … मरने के बाद भी, दूसरों के शरीर मे जीवित रहते अपने अंगों के द्वारा … जो दुनिया मैं नहीं देख पाई थी, वो देखना चाहती थी उन नई आँखों में समा कर !

निराश सी वापसी की यात्रा के लिये तैयार होती, बच्चों की छवि बसा कर निकलने को ही थी कि आवाज़ सुनाई पड़ी ,”सुनो ! सिंवई जरूर बनवाना ,उसको बहुत पसंद थी ।”

मैंने पलट के चेहरा देखने की कोशिश नहीं की क्योंकि उस व्यस्त आवाज़ को पहचान गयी थी, जो आज भी बहुत व्यस्त ही है ।

 निवेदिता श्रीवास्तव ‘निवी’

लखनऊ

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