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शर्त – डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा

बड़ी बहन

दीदी…जैसे ही ऑटो से उतरी घर के सब लोग बाहर निकल कर आ गये। सब ने एक -एक कर उनके पांव छुए। बड़े भैया ने उनका सामान उतरवा कर बरामदे में रखवा दिया। भाभी उनका हाथ थामे अंदर ले आईं।

वह दौड़ कर एक ग्लास में पानी और दूसरे में लस्सी लेकर आ गई। दीदी ने कहा “अभी मुझे थोड़ा सुस्ताने दो, हालत खराब हो गई है दो दिन के सफर में पूरे शरीर का कल पुर्जा हिल कर रह गया है…अब पहले वाला समय नहीं रहा।अब तो चार डेग चलने पर ही सांस उखड़ने लगता है।”

“दीदी लाओ ना तुम्हारा पैर दबा दूँ।”

भैया के मनुहार पर दीदी उनका हाथों से बलैया लेते हुए बोली- “रे बऊआ! तू इतना कह दिया मेरी सारी थकावट गायब हो गई।”

भाभी हँस के बोली- “सारा प्यार भाई पर ही लूटा देंगी दीदी…कुछ हमारे लिए भी बचा के रखियेगा।”

दीदी ने मुझे और भाभी को गले से लगा लिया।


प्रिया जो बड़े भैया की नई नवेली बहू थी बगल में खड़ी थी। दीदी ने उसे भी बुलाया, पर वह आगे नहीं आई। वह बोली- “नहीं….नहीं बुआ जी! अभी आपका पूरा बदन पसीने से भींगा हुआ है पहले आप फ्रेश हो जाइए फिर आराम से मिलेंगे।”

दीदी के साथ ही सभी जो वहां थे बहू की बातों से थोड़े झेप गए! पर बात बदलते हुए दीदी ने उसकी हाँ में हाँ मिला दी। मेरे तरफ नजर घुमाकर बोली तेरा ही ठीक है एक ही शहर में दोनों भाई बहन हो, जब मन करता होगा चली आती होगी।

भैया बोले-“नहीं दीदी अब कहां….अब यह भी कहां आती है…बहुत कहने पर राखी में ही इसे हमारी याद आती है। अच्छा चलो बहुत बातें हो गई अब दीदी को उसके कमरे में ले चलो।”

भाभी ने उन्हें सबसे अच्छा वाला कमरा जो पहले से ही साफ सुथरा करवा कर रखा था उसमें ले गई।

भाभी बाहर निकल कर बोली – “प्रिया…अभी से बुआ जी का ख्याल रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है “।

प्रिया मन ही मन बुदबुदा कर बोली- “आपलोग ही क्या कम रख रहे थे, जो मुझे भी बोरिंग काम में लगा दिया!”

उसका मन पहले से ही खिन्न था। एक तो वह यह सोच रही थी कि कमरे की सफाई उसके मम्मी पापा के लिए किया जा रहा है। “मतलब इनके लिए चीफ़ गेस्ट वो लोग नहीं ये बुआ जी हैं….हूंह!”


रात को सबने खाया पिया और सोने चले गए। सुबह से पूजा की तैयारी शुरू हो गई। भैया तो नहीं चाहते थे पर बच्चों के जिद पर पच्चीसवां सालगिरह मनाने के लिए तैयार हो गए थे। आज उसी की तैयारी हो रही थी।

तभी प्रिया के माँ पिताजी भी आ गये। भाभी ने उन्हें गेस्ट रूम में बैठाने को कहा, प्रिया उनकी बातों को अनसुना कर उनका सामान उसी कमरे में ले जाने लगी जिसमें दीदी के रहने का इंतजाम था।

“अरे प्रिया! सामान उस कमरे में क्यूँ ले जा रही हो?”

पति के इतना बोलते ही प्रिया बिफर गई!

“सुनो, तुम्हारी बुआ जी से ज्यादा वैल्यू है मेरे पेरेंट्स का समझे! अपनी बुआ जी को ले जाओ गेस्ट रूम में।”

“खबरदार! जो आगे एक शब्द भी निकाली मेरी बहन के लिए। मैं भूल जाऊँगा कि आज कोई फंक्शन है।”

भैया की भृकुटी तन गई थी। गुस्से से कांप रहे थे।


क्या हुआ-क्या हुआ कहते भाभी दौड़ कर आ गई।

भैया बोले जा रहे थे- “तुम्हें पता है माँ-पिताजी के एक्सीडेंट में गुजरने के बाद “दीदी” न… जो खुद ही चौदह साल की थी हमें सीने से चिपका लिया था। माँ- बाप दोनों का प्यार दिया। नौकरी कर के हमारी परवरिश की। जब तक हम अपने पैरों पर खड़े नहीं हुए तब तक साया बनकर हमारे साथ रही। वह बहन नहीं मेरी “माँ” है…! जिसने अपना सबकुछ, घर-परिवार यहाँ तक कि अपने पति को भी छोड़ दिया था हम दोनों भाई बहन के लिए। नहीं जानती हो तो सुन लो! इसके ससुरालवालों ने ‘शर्त’ रखा था कि या तो वह पति को छोड़ दे या हमें….तो इसने…जिसका तुम्हारी नजर में कोई वैल्यू नहीं है, त्याग दिया था ससुराल और पति को और हमें अनाथ होने से बचा लिया। अपनी सारी खुशियों का तिलांजलि दे दिया। अब ऐसी त्याग की कहानी किताबों में ही मिलती है।आज हम जो भी हैं दीदी की बदौलत हैं।

क्या कभी तुम्हारे पति ने बताया नहीं तुम्हें….!

हाँ…हाँ नहीं ही बताया होगा आजकल के बच्चें हो न, तुम्हें सिर्फ महल दिखाई देता है नींव नहीं। फल से मतलब है पेड़ से क्या लेना देना।”

परिवार के लगभग सारे लोग इकठ्ठे हो गए थे सबकी आँखों में आंसू थे। प्रिया भी एक दम से सहम गई थी उसकी आँखें भी भरी हुई थीं। बातों में किसी का ध्यान ही नहीं रहा कि कब दीदी स्टेशन के लिये निकल चुकी थी! 

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर, बिहार

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