साथ हो तुम मेरे – विजया डालमिया  

तुमसे बिछड़ने का कोई गम नहीं है मुझे ।

मेरे खयालों की दुनिया में हमेशा साथ हो तुम मेरे ।

कनिका पार्क की बेंच पर अनमनी सी बैठी थी। उसके कानों को और कोई आवाज सुनाई ही नही दे रही थी ,सिवाय इसके कि……” लड़की पसंद नहीं “।

वह खुद से ही कई सवाल करने लगी ,जिसके जवाब उसके पास थे ही नहीं ।उसे लगा जैसे उसका सर फट जायेगा। वह उठी और तेज तेज कदमों से घर की तरफ चल पड़ी ,जैसे सारा आक्रोश सड़क पर उतार रही हो। घर पहुँच कर उसने मम्मी- पापा किसी से बात नहीं की ।सीधे अपने रूम में जाकर पलंग पर बैठ गयी । पर सवाल उसका पीछा वहाँ भी नहीं छोड़ रहे थे। 

तभी अचानक वो उठी और आईने के सामने खड़ी होकर  खुद को निहारने लगी। उसने अपने आप को बड़े गौर से देखा। पतले होंठ,तीखी नाक, सुराहीदार गर्दन जिस पर काला तिल, लंबे लहराते बाल ।सब मिला कर उसे खूबसूरत बना रहे थे। हाँ रंग जरूर साँवला है ।

 तो क्या ….रँग ही सब कुछ है? शायद…. उसे जवाब मिल गया था ।वह मायूस सी आकर पलंग पर लेट गयी व फूट-फूट कर रोने लगी। रोते-रोते उसकी आँख लग गयी ।सुबह जब सो कर उठी तो उसका सर भारी था ।पर दिल हल्का हो चुका था ।उसने भरपेट नाश्ता किया व ऑफिस के लिए निकल पड़ी। ऑफिस में उसका अलग ही रुतबा था ।

 उसके काम के प्रति समर्पित भाव उसे अलग ही श्रेणी में ला खड़ा करते थे। जुबान की मीठी कनिका अपनी बातों से हर किसी का मन मोह लेती थी। पर आज उसके तेवर एकदम बदले हुए थे । अपने आप में गुम तो थी ,पर चेहरे पर एक अजीब से संतुष्टि के भाव  लिए वह अपनी कुर्सी पर बैठी तन्मयता व फुर्ती से काम निपटा रही थी ।

शाम को जब वह ऑफिस से निकली तो अचानक उसके सामने कपिल आ  खड़ा हुआ। उसने उसे देखा और नजरों में वही सवाल कि….. मुझ में क्या कमी है? कपिल ने कुछ नहीं कहा ।उसका हाथ थामा और दोनों चल पड़े। दरअसल कनिका को कपिल पहली ही नजर में भा गया था ।उसने उसे उसी दिन से दिल से स्वीकार कर लिया था।



 जब तक वहाँ से जवाब आया ,वह दिन-रात कपिल के ख्यालों में ही गुम रहने लगी थी ।शायद इसी वजह से वह इतनी आहत भी हुई थी ।पर कपिल के इनकार ने उसके दिल में मोहब्बत और बढ़ा कर उसे जिद्दी बना दिया। प्रेम किसी से भी ,कभी भी हो सकता है। प्रेम एक सुखद और पवित्र अनुभूति है । एक ऐसा रिश्ता जिसको  हम कोई नाम नहीं देना चाहते । जरूरत भी नहीं। पर  सबसे ज्यादा प्रिय व  जरूरी भी होता है  वह हमारे लिये।कभी-कभी एक दूसरे की उपस्थिति का एहसास ही बहुत राहत देता है।

 किसी से करीब होना हमारे हाथ में नहीं होता और ना ही हम उससे दूर हो पाते हैं। अब कनिका रोज शाम को कपिल से मिलने लगी। उसकी तनहाइयाँ सज चुकी थी ।दिन-ब-दिन उसकी साँवली रंगत में एक अनोखा निखार आने लगा। साथ ही साथ उसकी कार्य क्षमता कई गुना बढ़ गयी ।प्रेम में ऐसा ही होता है ।प्रेम में बँधन नहीं होता ।

“बिन फेरे हम तेरे “यही भाव लिए कनिका आगे बढ़ी जा रही थी ।उसकी शादी के गम में पहले मम्मी व फिर पापा भी उसे छोड़ गए। पर कनिका के दिल में बस कपिल का प्यार ही था ,जो उसे हर हालात में सँभालते रहता था ।उम्र बढ़ती चली गई ।कनिका उम्र के साथ-साथ तरक्की की सीढ़ियाँ भी चढ़ते चली गयीऔर फिर एक  दिन एक फोन कॉल आया….. “हैलो,कनिका”….”जी बोल रही हूँ ।आप कौन “?…..”मैं ,कपिल “।कनिका पत्थर की मूर्ति बन गयी ।उधर से आवाज आ रही थी”… सॉरी बोलने में मैंने आठ साल लगा दिए। पर अब भी अगर आप चाहो तो मैं आपको अपना सकता हूँ “।कनिका ने कुछ नहीं कहा। उसके खयालों की दुनिया में उसका कपिल उससे कभी जुदा था ही कहाँ?उसे तो अपनी यही दुनिया सबसे प्यारी लगती थी। जहाँ हर पल वह जब चाहे, जैसा चाहे कपिल से ढेरों बातें करती ।कल्पना में उसका हाथ थामे दूर तक चलती और थकने पर उसके काँधे पर अपना सिर टिका देती। इसी दुनिया ने तो उसे दुनिया से जीतने की ताकत प्रदान की ।इसी के सहारे तो अभी तक का सफर इतना खूबसूरत रहा ।उधर से आवाज आती रही ….हैलो …हैलो ।पर उसने जैसे कुछ नहीं सुना और फोन कट कर दिया। पंखे की हवा से डायरी के पन्ने उड़ रहे थे। अचानक एक पन्ने पर निगाह गई, जहाँ लिखा था…..

तेरी कहानी का बस एक,

किरदार बनना चाहती हूँ,

तुझे बेइंतहा चाह कर,

फिर गुनहगार बनना चाहती हूँ।

मालूम है, तुझे गवारा नहीं

मेरा साथ ज़रा दूर तलक भी,

तेरे दामन का नहीं, तेरे साये का

हक़दार बनना चाहती हूँ।

माना कि मुझे भुला देगा तू

बस एक किस्सा समझ कर,

पर फिर भी, तेरी यादों का हिस्सा,

एक बार बनना चाहती हूँ।

विजया डालमिया संपादक मेरी निहारिका

 

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