सार्थक बुढ़ापा –     डॉ अंजना गर्ग

शांति पति की मृत्यु के बाद बेटे बहू के साथ महानगर में आ गई। जीवन एकदम बदल गया था। पति का साथ तो छूटा ही,साथ ही 40 साल की जमी जमाई गृहस्थी और घर भी छूट गया। साथ ही छूट गया अड़ोस पड़ोस और सहेलियां भी जो  हर दुख सुख में साथ रहती थी। यहां महानगर में बहू ठीक थी पर वह जो थोड़ा बहुत सामान वहां से उठा लाई थी बहू को उसी से लगता था फ्लैट भर गया। सुबह-सुबह उसे शांति का नाश्ता और दोपहर का खाना बनाकर रखना पड़ता। दो रोटी तो शांति अपने लिए बना सकती थी। पर बहू रेनू को लगता था की रोटी बना तो रही हूं साथ ही सासू मां की भी रोटी बना कर रख देती हूं ।शायद उसको शांति का उसकी किचन में घुसना ज्यादा पसंद भी नहीं था।

दूसरा शायद वह अपने पति की तरफ से भी सोचती थी कि कही वह कहे तुम माँ की दो रोटी भी नही बना सकती। माँ खुद बना रही है। एक दो बार शाम को शांति ने कहा मैं पराँठे बना देती हूं या हलवा जो नरेन   (शांति का बेटा )को बहुत पसंद था। तो बहू रेनू ने भी और नरेन ने भी कहा ,”रहने दो मां, बन जाएगा ।आप बैठो। शायद नरेन को लगता था कि मां ने सारी उम्र अकेले पूरे घर का काम किया है अब मां को आराम मिलना चाहिए। दोनों ही शायद शांति को आराम की जिंदगी देना चाहते थे। पर शांति जो वहां अपनी सारी गृहस्थी का काम संभालती थी अब खाली क्या करें । 

दोनों पोता पोती अच्छे बड़े थे। स्कूल से आकर अपना होमवर्क  करते थे  या ट्यूशन चले जाते थे  बाकी समय अपने में ही  मस्त रहते थे । छुट्टी वाले दिन  उनका बचा हुआ पढ़ाई का काम और छोटे-मोटे बाहर के काम होते थे। शांति देवी सारा दिन तीसरी मंजिल से बालकनी से झांक झांक कर थक जाती थी लगने लगा था जैसे जीवन सिर्फ खाने और सोने के लिए है। कोई बात करने वाला नहीं। नरेन और रेनू 6:00 बजे तक आते फिर वही काम में लग जाते ।

 बालकनी से सामने पार्क दिखता था। नरेन और बहू को पूछ कर शांति ने वहां जाना शुरु कर दिया। रात को आठ बजे तक आती, खाना खाती और अब जल्दी नींद आ जाती क्योंकि अब थोड़ा थकने लगी थी। पार्क में काफी लोगों से जान पहचान भी कर ली थी। एक दिन पार्क में ही अनु मिली। बातों बातों में पता चला कि उसकी सास की डेथ एक महीना पहले ही हुई है। बच्चे बहुत छोटे हैं अभी कहीं छोड़ने का हिसाब नहीं बना इसलिए एक महीने से छुट्टी पर चल रही है। वह काफी परेशान थी इस सब के कारण। उस पर शांति ने कहा,” बेटा अगर ऐतराज ना हो तो मैं रख लिया करूंगी।

” शायद शांति के उसी स्वभाव  के  कारण जो छोटे नगरों में लोग एक दूसरे पर विश्वास करते हैं और जल्दी अड़ोस पड़ोस की मदद करने को तैयार हो जाते हैं उसने अनु से झट से ऐसा कह दिया।

           अनु ने पूछा,” आप कहां रहती हैं? आप कौन हैं?”



              शांति के मुंह से एकदम निकला, “मैं शांति हूं मेरे पति जितेंद्र , फिर एकदम ध्यान आया कहने लगी,” मैं सामने वाली बिल्डिंग में रहती हूं। मैं रेनू की सासू जो कृषि मंत्रालय में काम करती है। मेरा बेटा नरेन टेलीफोन एक्सचेंज में है।” अन्नू की तो मन की मुराद पूरी हो गई। शांति ने नरेन और रेनू को भी मना लिया। नरेन ने ना चाहते हुए भी  मां को  हां  इसलिए बोल दी  की  मां  अकेली  बहुत  उदास  हो रही है । थोड़ा  लोगों से  मिले-जुले गी,  बच्चों में  बैठेगी  तो  इसका  मन लग जाएगा । 

 नरेन  ने नीचे किसी के फ्लैट का एक कमरा किराए पर ले दिया। उसमें  शांति सुबह जल्दी तैयार हो कर चली जाती ।अनु अपने  बच्चो को शांति के पास  उस कमरे मे छोड़ जाती। शाम को ऑफिस से वापिस आती ले जाती। जहां अनु निश्चिन्त होके नोकरी पर जाने लगी वही बच्चे भी शांति के साथ बहुत खुश रहते थे।

            अनु के बच्चों को देख कर कुछ और माता पिता भी शांति को कहने लगे ,” आप हमारे बच्चों को भी रख ले अपने पास।”इस तरह छह सात बच्चे और आने लग गये।अब शांति को दिन का पता ही नहीं चलता था। एक दो बाई जो आस पास काम करने आती थी उनकी लड़कियों को शांति फ्री में पढ़ाने भी लगी। वह शांति के कमरे की साफ सफाई कर जाती, बच्चों का खाना वगैरह गर्म कर देती ।

               एक दिन एक बाई  से ही पता चला कि 6 नंबर वाली की सास बहुत दुखी है। बहू बहुत तंग करती है ।बाई से कह कर शांति ने 6 नंबर वाली सास जिसका नाम पुष्पा था को अपने पास बुलवाया ।उससे उसका सब दुख सुनकर शांति बोली,” तुम मेरे पास इस कमरे में आ जाया करो। तुम्हें मशीन का काम बहुत अच्छा आता है जैसा कि तूने बताया और मेरी मशीन ने घर में जगह घेर रखी है। उस पर हम गरीब लड़कियों को कपड़े सिलने  सिखाया करेंगे उन्हें आत्मनिर्भर बनाएंगे। बेशक हमारा उद्देश्य पैसा कमाना नहीं पर इस तरह अपना बुढ़ापा कुछ करते हुए गुजारे तो अच्छा है। पुष्पा को बात जच गई। अगले दिन से ही वह शांति के पास आने लगी । रात को 8:00 बजे घर जाती।



 पुष्पा की बहू भी खुश हो गई कि पूरे दिन के लिए बला टली और पुष्पा की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था ।अब तो वह कुछ ही दिनों में बहुत तंदुरुस्त दिखने लगी। ऐसे ही एक दिन एक और महिला का शांति देवी को पता चला वह उसको भी अपने यहां बुला लाई। अब कमरा छोटा पड़ने लगा ।नरेन को कहकर शांति ने दो बड़े बड़े कमरों का इंतजाम करवाया। सभी औरतें इतनी संपन्न तो थी ही कि सब मिल कर उन कमरो का  किराया दे सकें । 

जिसके पास साधन नही थे उसको शांति देवी किराए के लिए कहती भी नहीं थी। किराया देकर भी सब महिलाएं बहुत खुश थी कि उन्हें टाइम पास करने के लिए एक इतनी अच्छी जगह मिल गई। जहां वह हंसती खेलती है एक दूसरे से अपना दुख सुख बांटती है। समाज के लिए कुछ करती है। दरअसल उन्हें तो कोई चाहिए था बात करने वाला, पूछने वाला वह सब उन्हें यहां मिल गया था। धीरे धीरे महिलाओं की संख्या बारह हो गई ।शांति सबको कुछ कुछ काम करने की प्रेरणा देती रहती। कोई पार्क में और सड़क किनारे पेड़ लगवा रही है , 

कोई अचार मुरब्बे बनाने सिखा रही है तो कोई कढ़ाई करना और कोई पेंटिंग करना। पूरा वातावरण एक उत्सव  सा बना रहता। सब महिलाएं खूब हंसती किसी की जरा सी तबीयत खराब होती तो दूसरी झट से डॉक्टर के पास ले जाती। आसपास की बाईया भी हमेशा उनका काम भाग भाग कर करती क्योंकि  उन्होंने उनके बच्चों को बहुत से काम सिखा कर आत्मनिर्भर बना दिया था ।बहुत सी बाईया तो कहती थी कि हम तो शांति देवी और इन महिलाओं का कर्ज सात जन्म में भी नहीं उतार सकती। सभी प्रौढ़ महिलाएं पूरे इलाके में जानी जाने लगी थी।पूरे इलाके के लोग उन्हें सम्मान देते थे।  

               एक दिन अन्नू बच्चों को लेने आई तो रेनू गेट पर मिली ।अनु ने पूछा, “आपको पहले तो यहां नहीं देखा, आप कहां रहती हैं ? आप  का इंट्रोडक्शन प्लीज ।”

             रेनू ने कहा ,”मैं शांति जी की बहू रेनू हूं ।”अन्नू के दिमाग में एकदम पिछले साल वाली पार्क में शांति जी से हुई बात कौंधी , जब  शांति जी ने कहा था मैं रेनू की सास हूं। जिनका अपना परिचय इस शहर में यही था लेकिन एक साल में ही वह परिचय उल्टा हो गया। अनु को लगा अगर सभी बुजुर्ग शांति आंटी की तरह सोचने और करने लगे तो एक तो घरों में कितनी शांति हो जाएगी दूसरा समाज को बुजुर्गों के अनुभव के अनेकों फायदे मिलेंगे। सभी का बुढ़ापा सार्थक हो जाएगा

       डॉ अंजना गर्ग

 

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