******
पिछले अंक ( 03 )का अन्तिम पैराग्राफ ••••••••
वह जानता था कि दोनों परिवारों में किसी को इस सम्बन्ध में आपत्ति होगी तो केवल समाधि को। मम्मी और पापा उसे अपनी बेटी ही मानते हैं।इसलिये वह किसी से कुछ कहने के पहले इस दुविधा को दूर करना चाहता था। यदि समाधि ने उसका प्यार स्वीकार कर लिया तो ठीक है वरना वह हमेशा के लिये इस बात को भूल जायेगा और वे दोनों हमेशा अच्छे दोस्त बनकर रहेंगे। प्यार किसी पर थोपा तो जा नहीं सकता।
अब आगे ••••••••
**************
आखिर एक दिन वह अपनी मोटरसाइकिल लिये समाधि के कालेज के बाहर खड़ा था – ” अरे, ओम। आज यहॉ कैसे?”
” इधर से निकल रहा था, सोंचा तुम्हें लेता चलूॅ।”
” अच्छा।” समाधि हॅस पड़ी – ” आज इतनी मेहरबानी क्यों? किसी लड़की के चक्कर में तो मेरे कालेज नहीं आये हो? सोंच रहे होगे कि लौटते समय मुझ पर एहसान दिखाकर घर ले चलने की रिश्वत दे दो ताकि मैं तुम्हारी सहायता करूॅ उस लड़की से मिलवाने में।”
एकलव्य भी हॅस पड़ा – ” सीधी बात तो तुम्हें सोंचनी आती ही नहीं है। झगड़ा करने का बहाना चाहिये होता है। अब तो यह आदत छोड़ दो।”
” अब तो छोड़ ही दी है। अब हमारे बीच में पहले जैसी लड़ाई और मारपीट तो बन्द हो गई है। सचमुच कितना बुरी तरह कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ा करते थे हम।” समाधि हॅसकर मोटरसाइकिल पर बैठ गई लेकिन उसने देखा कि मोटरसाइकिल घर की बजाय दूसरे रास्ते की ओर जा रही है तो उसने पूछा – ” इधर कहॉ जा रहे हैं हम?”
” घबराओ नही, भगाकर नहीं ले जाऊॅगा तुम्हें।”
” मुझे भगाने के लिये बहुत हिम्मत चाहिये।” समाधि भी हॅस पड़े
समाधि ने एक दो बार जानने का प्रयास किया – ” अरे, बताओ तो कि हम कहॉ जा रहे हैं?”
” मुझ पर विश्वास न हो तो चलो वापस लौट चलते हैं।” एकलव्य बाइक वापस मोड़ने लगा तो समाधि ने मना कर दिया – ” अरे … विश्वास की इसमें क्या बात है? अजीब आदमी हो तुम ••• मैं तो बस केवल ऐसे ही •••••।”
” यदि विश्वास है तो चुपचाप बैठी रहो।” आज एकलव्य आश्चर्यजनक रूप से गम्भीर था। उसकी गम्भीरता देखकर समाधि भी चुप हो गई। जैसे जैसे नगर पीछे छूटता जा रहा था प्रदूषण, कोलाहल और शोर कम होता जा रहा था। सुरम्य वातावरण देखकर समाधि का मन बहुत प्रसन्न हो गया। वह चुपचाप बैठी उस सुन्दरता का आनन्द उठा रही थी और एकलव्य की बाइक आगे बढती जा रही थी। गंगा बैराज पुल पर जाकर एकलव्य की मोटरसाइकिल रुक गई –
” इतनी सुंदर जगह लेकर आना था तो पहले बताना था। मैं अपना स्वीमिंग कास्ट्यूम ले आती। बहुत दिनों से हम दोनों के बीच तैराकी की प्रतियोगिता नहीं हुई है।”
एकलव्य ने समाधि की बात का कोई उत्तर नहीं दिया।दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़कर सीढियॉ उतर गये और गंगा के जल में पैर डालकर बैठ गये। दोनों चुप थे। शायद समाधि को भी अब अहसास होने लगा था कि आज कुछ ऐसा होने वाला है जो पहले कभी नहीं हुआ। उसको अन्दर से कुछ डर सा लगने लगा, उसके दिल की धड़कनें तेज होती जा रही थीं। एकलव्य के भीतर समाई चाहत की हलचल से वह कभी अनजान नहीं रही लेकिन प्रयत्न पूर्वक मन के भाव कभी प्रकट नहीं होने दिये। उसके सामने एक बहुत बड़ा लक्ष्य था।
वह चंचल, वाचाल लड़की आज चुपचाप मौन की भाषा सुन रही थी, लहरें गंगा से अधिक उन दोनों के अन्दर मचल रही थीं।
अचानक एकलव्य ने समाधि का हाथ अपने हाथ में ले लिया – ” सिम्मी।”
एकलव्य ने समाधि को अनगिनत बार छुआ था। कभी कभी तो खेलने के बाद थके बच्चों को एक साथ ही सुला दिया जाता था लेकिन आज की छुअन पहले की हर छुअन से अलग थी। आज की छुअन तो हाथों से होते हुये मानो समाधि के दिल में उतरी जा रही थी। उसके शीतल ठंडे स्पर्श से उसके देह में सिहरन दौड़ गई, शरीर कॉप गया, वह कुछ न बोली। न उसने एकलव्य की ओर ऑख उठा कर देखा।
एकलव्य की समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे कहे? और क्या कहे? यदि समाधि उसके हृदय के भाव न समझ पाई और उसे गलत समझ लिया तो क्या होगा? ऐसा न हो कि आज कुछ ऐसा हो जाये जिसका प्रभाव दोनों परिवारों के वर्षों के सम्बन्धों पर पड़ जाये। काफी देर तक जब समाधि
अपना हाथ नहीं हटाया। उसने न ही कुछ कहा और न ही एकलव्य की ओर देखा तो उसे थोड़ी हिम्मत मिली। उसने समाधि का हाथ अपने होठों से लगा लिया –
” सिम्मी, बहुत प्यार करता हूॅ तुम्हे। इतने बचपन से तुम मेरी जिन्दगी में आ गई थीं कि मैं पहले तो खुद समझ नहीं पाया कि तुम मेरी सॉसों में कैसे उतर गईं? अब मैं तुम्हारे सिवा कुछ सोंच ही नहीं पाता हूॅ। किसी भी लड़की का स्पर्श होने पर लगता है कि कुछ चोरी कर रहा हूॅ। अधिक कुछ कहना मुझे आता नहीं है। बस.. इतना समझ लो कि मैंने तो अपनी जिन्दगी तुम्हें सौंप दी है अब तुम चाहो तो गंगा की इस बहती धारा के समक्ष स्वीकार करके मेरा प्यार अपना लो या इसी बहती धारा में विसर्जित कर दो।”
समाधि ने सोंचा भी नहीं था कि आज अचानक एकलव्य इस तरह बिल्कुल स्पष्ट अपना प्यार व्यक्त कर देगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे? उसके शब्द गूंगे हो गये।
जब काफी देर तक समाधि वैसे ही जड़वत बहती धारा को देखती रही तो एकलव्य व्याकुल हो गया। उसने समाधि का चेहरा अपने दोनों हाथों से अपनी ओर किया – ” ऐसा मत करो सिम्मी। कुछ तो बोलो। कोई जबरदस्ती, दबाव या विवशता नहीं है तुम्हारे समक्ष। यदि तुम्हारी ” ना” भी होगी तो आज के बाद भूल जाना कि मैंने तुमसे कुछ कहा था। घर वालों को यह बात पता नहीं चलनी चाहिये, मैं कभी कुछ नहीं कहूॅगा। हम दोनों के और हमारे दोनों परिवारों के सम्बन्ध वैसे ही सामान्य रहेंगे। तुम मेरी ओर देखकर जो भी निर्णय लोगी, मुझे स्वीकार होगा।”
समाधि ने ऑखें बन्द कर लीं और एकलव्य के कंधे पर सिर रखकर धीरे से कहा – ” ओम, हम दोनों के जीवन का यह अद्भुत अप्रतिम क्षण है। इस समय न मुझे कुछ कहने की आवश्यकता है और न तुम्हें कुछ सुनने की। इस क्षण को कोलाहल में मिटने मत दो। केवल अनुभूति में डूबने का क्षण है यह। चुपचाप मेरे समीप बैठकर हम दोनों के बीच मौन को ही सब कुछ कहने दो। मौन की भाषा को ही मुखर होने दो।”
एकलव्य ने समाधि का चेहरा दोनों हथेलियों में भर लिया और अपने अधर उसकी बन्द पलकों पर रख दिये। दोनों की सॉसें एक दूसरे के दिलों के भीतर समाने लगीं। शब्द तो मौन थे लेकिन धड़कनों का शोर बढता जा रहा था।
अगला भाग
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर