सच्चा साथ – डॉ० मनीषा भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

आज तन्वी और आदित्य की सालगिरह थी। तीसरी। मगर फ्लैट में कोई शोर-शराबा नहीं था। न फूलों के गमले, न महंगे उपहारों के पैकेट। सिर्फ़ चाय की खुशबू और धीमे बजते हुए उस पुराने गाने की मधुर तान – “तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे…” जो उनकी कॉलेज के दिनों की याद दिलाता था।

तन्वी रसोई में खड़ी, आदित्य के लिए उसकी पसंद की मसाला चाय बना रही थी। बाहर बरसात की हल्की फुहार थी। अचानक बिजली चमकी और बल्ब टिमटिमा कर बुझ गया। अँधेरा छा गया।

“अरे बाप रे!” तन्वी की आवाज़ आई।

“घबराओ मत, टैंच लाइट है न!” आदित्य की आवाज़ आश्वस्ति भरी थी। जल्दी ही एक हल्की रोशनी फैली। आदित्य टॉर्च लेकर आया था। “लो, तुम्हारी चाय, रौशनी में।” उसने मुस्कुराते हुए मग तन्वी की तरफ बढ़ाया। तन्वी ने चाय ली और आदित्य के बगल में फर्श पर बैठ गई।

“याद है?” तन्वी ने आवाज़ में मस्ती भरते हुए पूछा, “कॉलेज के हॉस्टल में भी तो ऐसे ही बिजली गुल हो जाती थी। तुम टॉर्च लेकर मेरे रूम आ जाते थे पढ़ाने।”

आदित्य हँसा, “हाँ, और तुम हर बार डर जाती थीं कि वार्डन पकड़ लेंगे! पर तुम्हें इंटरव्यू के लिए ‘सॉलिड स्टेट फिज़िक्स’ पढ़ाना ज़रूरी था ना।”

उस पल की सहजता, उन साझा यादों की गर्माहट ने कमरे को असली रोशनी से भर दिया। यही तो था उनका ‘शुभ विवाह’ – कोई भव्य दिखावा नहीं, बल्कि छोटे-छोटे पलों में बसा विश्वास और सहजता।

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उनकी शादी को तीन साल हो गए थे। रिश्तेदारों की नज़र में यह एक ‘साधारण’ जोड़ी थी। आदित्य सरकारी स्कूल में विज्ञान के शिक्षक थे, तन्वी एक छोटे से प्रकाशन संस्थान में काम करती थीं।

बड़ा घर नहीं, गाड़ी नहीं, शानदार छुट्टियों के फोटो नहीं। पर उनके छोटे से फ्लैट में कुछ था जो बड़े-बड़े बंगलों में भी दुर्लभ था – सच्चा सुख। वह सुख जो चाय के साथ साझा की गई चुप्पी में, किसी पुरानी किताब पर हुए बहस में, या फिर रात के खाने में बनी सादी दाल-रोटी में मिलता था।

एक दिन तन्वी घर लौटी तो चेहरा उतरा हुआ था। “प्रोजेक्ट रद्द हो गया,” उसने आवाज़ भारी करते हुए कहा, “संस्था को फंडिंग नहीं मिली।” यह उसका पसंदीदा प्रोजेक्ट था – गाँव की बच्चियों के लिए पढ़ने की सामग्री बनाना।

आदित्य ने कुछ नहीं कहा। बस उठा, उसके पास बैठा और उसका हाथ थाम लिया। रात के खाने के बाद, उसने एक फाइल निकाली। “देखो,” उसने कहा, “मैंने कुछ छोटे NGO और क्राउडफंडिंग प्लेटफॉर्म्स के बारे में जानकारी जुटाई है। शायद हम इधर से कोशिश कर सकते हैं? तुम्हारा काम बहुत ज़रूरी है, तन्वी।”

तन्वी की आँखें चमक उठीं। नौकरी जाने का दुख कम नहीं हुआ था, लेकिन आदित्य के विश्वास और सक्रिय सहयोग ने उसे हिम्मत दी। यही था उनके विवाह का सार – एक-दूसरे के सपनों को पंख देना, न कि उन्हें कुचलना।

कुछ महीने बाद, तन्वी को एक छोटे स्वतंत्र प्रकाशन से काम मिला। ज्यादा पैसा नहीं था, लेकिन उसे काम से प्यार था। पहले महीने की सैलरी मिली तो उसने आदित्य को एक नई साइकिल का मॉडल दिखाया। “तुम्हारी साइकिल तो बहुत पुरानी हो गई है।”

आदित्य मुस्कुराया, “पर पुरानी वाली अभी भी चल तो रही है ना? इस पैसे से तुम अपने लिए वह लैपटॉप खरीद लो जिसकी तुम्हें ज़रूरत है। मेरी साइकिल तो अगले साल भी खरीद लेंगे।”

यह था उनका ‘शुभ’ – आपसी त्याग नहीं, बल्कि एक-दूसरे की ज़रूरतों और खुशियों को समझने की सूझबूझ।

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एक रविवार की सुबह, आदित्य के पिताजी का फोन आया – माँ बुखार से बहुत बीमार थीं। तन्वी बिना एक पल गँवाए कहा, “तुम जल्दी से ट्रेन पकड़ो। मैं अगली फ्लाइट से आती हूँ। घर का सामान और दवाइयों का इंतज़ाम मैं कर लेती हूँ।”

जब तक आदित्य गाँव पहुँचा, तन्वी पहले से वहाँ मौजूद थी। वह आदित्य की माँ के सिरहाने बैठी, उन्हें धीरे-धीरे सूप पिला रही थी। माँ की आँखों में आँसू थे, दर्द के नहीं, बल्कि उस स्नेह और देखभाल से भरे हुए जो तन्वी के हर इशारे में झलक रहा था। यह रिश्ता सिर्फ़ दो लोगों का नहीं था; यह दो परिवारों के बीच बना प्यार का पुल था।

आज उनकी सालगिरह की शाम। बिजली वापस आ गई थी। टेबल पर सादा खाना था – तन्वी के हाथ का बना पालक पनीर और आदित्य का बनाया हुआ घर का खट्टा-मीठा अचार। बीच में एक छोटा सा केक था, जिस पर तन्वी ने खुद लिखा था – “हमारी साधारण सी ख़ुशियाँ।”खाना खत्म करके, आदित्य ने एक छोटा सा लिफाफा निकाला।

“यह कोई महंगा तोहफ़ा नहीं है, तन्वी। बस… एक याददाश्त।”लिफाफे में एक पुरानी फोटो थी – कॉलेज के दिनों की। तन्वी और आदित्य पुस्तकालय की सीढ़ियों पर बैठे हँस रहे थे। पीछे एक बोर्ड पर लिखा था – “ज्ञान ही शक्ति है।” फोटो के पीछे आदित्य ने लिखा था – “और प्यार ही सबसे बड़ा ज्ञान। तुम्हारे साथ हर दिन सीखने को मिलता है। शुभ विवाह।”

तन्वी की आँखें नम हो आईं। यह ‘शुभ विवाह’ न तो सोशल मीडिया पर चमकने वाली तस्वीरों में था, न बड़े दावों में। यह तो था उन रोज़मर्रा के पलों में:

  **सहयोग में:** जब परीक्षा के दिनों में आदित्य देर रात तक कॉपियाँ चेक करता तो तन्वी उसके लिए गरमागरम कॉफी बना लाती।

 **स्वतंत्रता में:** जब तन्वी को दोस्तों के साथ ट्रैकिंग पर जाना होता तो आदित्य खुशी से उसका बैग पैक करता, बिना किसी झिझक के।

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 **सपनों में:** जब आदित्य ने अपने स्कूल के गरीब बच्चों के लिए छोटी लैब बनाने का सपना देखा तो तन्वी ने अपनी बचत का हिस्सा उसमें लगा दिया।

  **मौन समझ में:** जब किसी दिन बहुत थकान होती तो बिना कुछ कहे, दोनों सिर्फ़ साथ बैठकर चुपचाप चाय पी लेते, और वही काफी होता।

उस रात, बारिश की आवाज़ के साथ, तन्वी ने डायरी में लिखा – “शुभ विवाह कोई चमकता हुआ आभूषण नहीं है जो दिखावे के लिए पहना जाए। यह तो उस मिट्टी की तरह है, जो सादी दिखती है, पर उर्वरा होती है। इसमें प्रेम, सम्मान और विश्वास के बीज बोओ तो यह छोटी-छोटी खुशियों की फसल उगाती है। यह रोज़ बनने वाला घर है,

बिना दीवारों के। यह साथ चलने का साहस है, एक-दूसरे के सपनों का सम्मान करने का विवेक है। हमारा ‘शुभ विवाह’ कोई परफेक्ट फेयरीटेल नहीं। यह तो हमारी अपनी, गढ़ी हुई, जीती-जागती, सुंदर सच्चाई है।”आदित्य ने डायरी का वह पन्ना पढ़ा और बस तन्वी का हाथ थाम लिया। उनकी उँगलियाँ आपस में गुथ गईं।

बाहर बारिश थम चुकी थी और हवा में ताज़गी थी। भीगी हुई धरती से मिट्टी की सोंधी खुशबू आ रही थी – सादगी, स्थिरता और निरंतरता की गंध, जो उनके साझा जीवन की सबसे सच्ची और सुखद महक थी। यही था उनका असली ‘मंगलसूत्र’ – एक-दूसरे के जीवन में बंधा हुआ विश्वास और स्नेह का धागा, जो चमकता नहीं, पर कभी टूटता भी नहीं।

#स्वचरित

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा (पालमपुर)

हिमाचल प्रदेश 

# साप्ताहिक विषय – शुभ विवाह (26 मई )

Dr Manisha Bhardwaj

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