रील V/S सिनेमा –  अरुण कुमार अविनाश

सिनेमा देखने क्यों जाऊँ ?

उन बूढ़ी – बासी – बेनूर चेहरों का दीदार भी क्यों करुँ ?

जिनका कहना है कि क्यों आते हो देखने ? हम तो तुम्हें बुलाते नहीं है।

सेंसर हो चुकें दृश्यों का अवलोकन ! मैं क्यों करुँ ?

अपने गाढ़े पसीने की कमाई क्यों बर्बाद करुँ ?

सबसे बड़ी बात कि बेवजह वक़्त भी क्यों जाया करुँ ?

क्या सिर्फ मनोरंजन के लिए ?

अगर हाँ, तो सिनेमा से ज़्यादा मनोरंजन तो Reels के वीडियो में होता है।

रोज़ फ्रेश चेहरा – सेंसर की कैंची से बिना गुज़रे हुए– अनसेंसर्ड सीन– कॉस्ट्यूम भी ऐसे , जैसे लिबास पहना ही न हो – सिर्फ बॉडी पर पेंट करवा लिया हो।

समाज में वर्जित ,  ऐसे-वैसे दृश्य को देखने में प्राइवेसी भी भरपूर है – बाप अपने कमरे में बैठ कर अपने मोबाइल पर मजे ले – बेटे अपने-अपने कमरे में अपने-अपने मोबाइल पर सुख ढूंढें।

अगर कोई सीन देखना चाहतें हो और अभी देख पाना मुमकिन नहीं है तो कोई बात नहीं – फिलहाल सेव कर लो – जब मौका मिले तो देख लेना – एक बार में मन न भरे तो बार-बार देख लेना।

सबसे बड़ी बात – सब कुछ निःशुल्क है। डेढ़ या दो GB डाटा प्लान में सब कुछ कॉम्बिपैक आ जाता है।

मुझें याद आता है तेज़ाब का वो गाना एक – दो –  तीन – चार – पाँच ———- बारह – तेरह तेरा करुँ —- जिस में माधुरी दीक्षित जी ने बच्चें से लेकर बूढों तक को हिंदी में गिनती गिननी सिखायी थी।

या ‘ हम ‘ का जुम्मा चुम्मा या ‘ साजन ‘ का तू शायर है – जैसे गाने।

मैं गवाह हूँ कि इन गानों का श्रवण एवम दृश्यालोकन करने के पश्चात, पचासों लोग थियेटर छोड़ कर अपने काम धंधे से लग जाते थे।


वर्ष 1983 में श्रीबेबी की एक फ़िल्म आयी थी  ‘ हिम्मतवाला ‘ – उछल-कूद जम्पिंग जेक के साथ।

ऊपर वाला झूठ न बुलवाये – फ़िल्म की चर्चा ही इसलियें हुई थी कि एक दृश्य में श्रीबेबी जी शॉर्ट्स पहनी हुई थी – जिसमें उसकी मरमरी वेक्स की हुई टांगे और जांघें दीख रही थी।

उस समय मैं इतना छोटा था कि न जेब में टिकट खरीदने के पैसे थे और न ही थियेटर जाने की घर से इज़ाज़त मिलनी थी। मैं फिल्मी कलियां या फिल्मफेयर में उस दृश्य की चर्चा पढ चुका था और जब बड़ा हुआ – थियेटर में जा कर फ़िल्म देखने का मौका मिला – तो, मेरे जेहन में श्रीबेबी जी का वो चर्चित दृश्य दर्ज था। वर्षो बाद भी मैंने हिम्मतवाला उसकी कॉमेडी के लिये नहीं – श्रीबेबी जी के शॉर्ट्स वाले दृश्य के लिये देखा था – ईश्वर ही जाने कि वो दृश्य क्यों इतना मशहूर हुआ था – जबकि, श्रीबेबी जी ने बेशक अपनी माँसल जंघाओं का प्रदर्शन किया था फिर भी उसके बहुमूल्य अंग अभी भी ढ़के-छुपे हुए थे।

आजकल तो वीडियो ज़्यादा से ज़्यादा लाईक्स हो सके– इसके लिये , उच्च कुल की मेनकायें इतने तंग कपड़े पहन कर कैमरे के सामने आती है – अभिनय करती है – कि बहुमूल्य अंग दूर से ही स्पष्ट नुमाया होते है।

‘ राम तेरी गंगा मैली ‘ मातृत्व की आड़ में – सेंसर की कैंची से बच निकली । फ़िल्म ऐसी सुपर-डुपर हिट हुई कि उस एक फिल्म की बदौलत – एक ऐसी अभिनेत्री जिसका अभिनय से कोई नाता न था – कई और फिल्मों के लिये चुन ली गयी।

उपरोक्त पंक्तियों द्वारा , कहने का अर्थ ये है कि कई लोग थियेटर का टिकट – पूरे मूल्य पर – पूरी फिल्म का – खरीदते थे और सिर्फ इन गानों या दृश्यों का आनन्द उठा कर थियेटर से बाहर निकल जाते थे।

कॉलेज के ज़माने में कई ‘A’ मार्का फ़िल्में हम इसलियें भी नहीं देख पाये – क्योंकि , टिकट खिड़की पर पड़ोस वालें अंकल जी टिकट की लाइन में लगें हुए थे। मुँह छुपा कर हम वहाँ से भाग लिये। डर था कि साला, अंकलवा, पूज्य पिताजी को चुगली न कर दे और परिणाम स्वरूप पूज्य पिताजी की चरण पादुका से हमारा पूजन न हो जाये। पॉकेट मनी जो कि पहले से ही अपर्याप्त थी बंद न हो जाये और हम सिगरेट के लिये भी मोहताज़ हो जाये। आज जबकि खुद की उम्र अंकलवा के बराबर हो गयी है तो सोचता हूँ कि कितना नादान और डरपोक था मैं – डरना मुँह छुपाना अंकलवा को चाहिये था और डर हम रहें थे – बल्कि हमें तो अंकलवा से टिकट भी खरीदवाना चाहिये था और स्नैक्स कोल्डड्रिंक्स वगैरह का खर्चा भी उसी से करवाना चाहिये था।

खैर, अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत।

सेंसर बोर्ड की एक और कमाल की बात – हिंसा करते हुए – कत्ल करते हुए – छुरा या गोली मारने का दृश्य तो सहजता से पास हो जाता था पर प्रेम दृश्य पर कैंची चलती थी – भाई साहब , हमें दर्शकों को सिखाना क्या है ? प्रेम करना या कत्ल करना !

कत्ल करना सीख कर प्रशिक्षु फाँसी चढ़ेगा जब कि प्रेम करना सीखेगा तो उसके वैवाहिक जीवन में काम आयेगा।

सम्भव है , सेंसर बोर्ड की समझ में जनसंख्या नियंत्रण का यह भी एक तरीका हो।

जन्मदर बढाने / घटाने से अच्छा हो कि मृत्यु दर बढ़ा दिया जाये।

                                             अरुण कुमार अविनाश

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