• infobetiyan@gmail.com
  • +91 8130721728

रघु की पीड़ा –     बालेश्वर गुप्ता

आज भी हमारे नगर में डॉ रघु को याद किया जाता है।हमारे पिता बताया करते कि डॉ रघु के हाथों में जादू था।नब्ज पकड़ कर रोग पहचान लेते और ऎसी दवाइयां देते कि मर्ज जड़ से ही खत्म हो जाता।नाम मात्र की राशि मे ही अपनी फीस के साथ दवाइयां भी दे देते थे।मजे की बात यह थी कि गरीबो से कुछ नही लेते थे।बड़ा नाम था डॉ रघु का।दिन भर मरीजो का तांता लगा रहता।पिताजी बताया करते कि डॉक्टर रघु के पास कभी किसी भी समय कोई चला जाये और वो सोते हुए भी हो तो भी उठकर मरीज को जरूर देखते।

नगर के लोग आज भी उन्हें श्रद्धा से याद करते हैं।

         नगर के एक मोहल्ले में डॉ रघु का एक दुमंजिला बड़ा सा कोठीनुमा मकान था।ऊपर के हिस्से में डॉ रघु अपने परिवार के साथ रहते थे,परिवार में पत्नी और एक बेटा था।नीचे के हिस्से में डॉ रघु ने अपना क्लिनिक बनाया हुआ था। डॉ रघु चिकित्सा के माध्यम से पूरे नगर को बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से समर्पित थे।पूरा नगर उनका सम्मान करता था। धीरे धीरे उनकी उम्र बढ़ रही थी,कार्य क्षमता भी कम होती जा रही थी,पर सेवा भाव की लालसा का उनमें अंत नही था।जल्दी थक जाने के कारण अब वो अपने पर ही झुंझनाने लगे थे।स्वभाव चिड़चिड़ा होता जा रहा था। पत्नी उन्हें समझाती भी थी कि काहे चिंता करते हो ,आपका मिशन आपका बेटा पूरा करेगा ,और दो वर्ष की बात है,वो डॉक्टर की पढ़ाई पूरी करके आपका पूरा दायित्व संभाल लेगा।डॉ रघु कहते बस यही तो विश्वास की डोर है जो जिंदा रखे है।

       मुन्ना के डॉक्टर बनने से पहले ही डॉक्टर रघु की पत्नी स्वर्ग सिधार गयी।निपट अकेले रह गये, डॉ रघु।अपनी पूरी हिम्मत जुटा वो जन सेवा में पूरी तरह डूब गये।

       अब बस डॉ रघु को मुन्ना का इंतजार था,वह जल्दी से डॉक्टर की डिग्री ले ले और इस जन सेवा में जुट जाये।आखिर वो समय भी पूरा हुआ मुन्ना डॉक्टर बन गया।पर उसने तो अपने पापा के साथ प्रैक्टिस को मना कर दिया।मुन्ना का तर्क था,क्या रखा है यहां?बड़े शहर में क्लिनिक खोलेंगे पापा, जितना यहां एक महीने में आप  कमाते हैं ना ,उतना तो शहर में दो तीन दिन में ही आ जायेगा।

       सुनकर डॉ रघु तो धक से रह गये, उन्होंने तो जीवन मे डाक्टरी को व्यवसाय माना ही नही था,उन्होंने तो इसे जनसेवा का माध्यम माना था।मुन्ना अब डॉक्टर हो गया है,बड़ा हो गया है,स्याना हो गया है ना सो अपने बूढ़े बाप को व्यापार समझा रहा है,सोचते सोचते रघु अपनी पत्नी के फोटो के सामने खड़े हो कर भर्राये गले से बुदबुदाने लगे बता भागवान अब क्या करूँ?



         डॉ रघु ने एक बार फिर मुन्ना को समझाने का प्रयत्न किया कि बेटा हमने कभी डाक्टरी को व्यापार माना ही नहीं, फिर अब क्यूँ लालच करे?,बेटा अपने कस्बे को जहां हमारी जरूरत है वहीं हमे भी उनकी जरूरत है, अपने संस्कारों की,अपनी जनसेवा की आकांक्षा की पूर्ति हेतु।रुक जा बेटा यहीं रुक जा।

         मुन्ना कहाँ रुकने वाला था,बोला,पापा पता नही आप कौनसे समय की बात कर रहे हो।छोड़िए ये सब शहर चलते हैं, बड़ा सा क्लिनिक खोलेंगे।वहीं कोई दो चार गरीबो का मुफ्त इलाज कर लेना हो जाएगी जन सेवा।डॉ रघु अवाक हो मुन्ना को देखते रह गये।जीवन भर  जिन संस्कारो को ढोते आ रहे थे वो मुन्ना के शब्दों के रूप में उनका मुँह चिढ़ा रहे थे,उनका अभिमान आज उनके बेटे ने ही ढहा दिया था।वो चुप हो अपने कमरे में चले गये।

        मुन्ना ने अपने दो और डॉक्टर मित्रो के साथ बैंक से लोन लेकर शहर में नर्सिंग होम खोल लिया,और मुन्ना वहीं व्यस्त हो गया।अकेले रघु रह गये अपनी छोटी सी नगरी में।

         मुन्ना द्वारा दिये जख्म के दर्द को दरकिनार कर उन्होंने फिर अपना चिकित्सा द्वारा जन सेवा में अपने को झोंक दिया।बूढ़ा शरीर कब तक साथ देता। डॉ रघु दूसरों का इलाज करते करते खुद ही बिस्तर पकड़ बैठे।उनके बीमार होने की खबर नगर में फैल गयी,उनके शुभचिंतकों ने उनकी तीमारदारी की जिम्मेदारी खुद संभाल ली।मुन्ना को पता लगा तो भी दौड़ा आया।क्या हालत बना ली है आपने पापा?अब मैं आपको इस हालत में यहां नही छोड़ सकता,आपको मेरे साथ चलना ही होगा।

     अरे मुन्ना इन लोगो को मैंने अपना जीवन दिया है, ये मेरा अभिमान है मेरे बच्चे मैं इन्हें नही छोड़ सकता।लौट आ मुन्ना लौट आ।पापा इतना बड़ा नरसिंग होम खोल लिया है, उसे क्या छोड़ा जा सकता है?क्या रखा है यहाँ?मैं तो यहाँ आने की सोच भी नही सकता।

      तो बता मुन्ना, मैं क्या अपने स्वाभिमान को छोड़ यहां से चला जाऊं???

      बालेश्वर गुप्ता,पुणे

 

     मौलिक एवम अप्रकाशित

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!