प्यार की एक कहानी (भाग 2)- नीलम सौरभ

अरे! आप तो न… हमेशा ही हमें गलत समझते हैं! ऐसा कछु नहीं है…वह तो हम.. हम तो…” अम्माँजी को एकाएक कोई माक़ूल जवाब नहीं सूझ पाया, बेचारी हकलाते हुए सफ़ाई देने का असफल प्रयास करने लगीं।

“हमें बहलाने की बिल्कुल न सोचना रानी!..अपना नन्हा बबुआ समझ कर…न हमसे बेजा बहस ही करना!…ये बाल हमने धूप में सफेद नहीं किये हैं, जानती हो न!….अभी तो तत्काल दफ़ा हो जाओ हमारे सामने से!” अम्माँ जी की भाव-भंगिमा से बब्बाजी का क्रोध और भड़क उठा था।

इस अप्रत्याशित अपमान से अम्माँजी की आँखें अनायास छलक पड़ीं। वे साड़ी का आँचल मुँह में भींचतीं हुईं भीतर कमरे की तरफ चल दीं।

बेटा कुन्दन बीच वाले आँगन में ही मिल गया। उन्हें वहीं रोकते हुए कुछ पूछने लगा,

“अम्माँ, वो गृह-मंगलम वाली किश्त आज दे आयीं कि नहीं!…पिछली बार आपसे खर्च हो गये थे आधे, हमें दोबारा से देने पड़े थे!….और कितनी किश्तें बच रही होंगी…कब तक पूरा…”

बात अभी पूरी भी नहीं हो पायी थी कि अकस्मात उसकी बात काटती भड़क उठीं अम्माँजी,

“अरे नाशमिटे!…ये क्या हिसाब-किताब पूछ रहा तू हमसे आज?…जब-जब पैसे निकलते हैं, सारे तू और तेरी लुगाई ही उड़ाते अपनी मनमर्जी से, ये ले लो, वो ले लो!…मेरे हिस्से बस बेकार की भागदौड़ ही आती है…घोर कलजुग है…ऐसी औलाद!….माँ से ऐसे सवाल-जवाब कर रहा, जैसे ये रुपये लेकर मैं ऊपर चली जाऊँगी!…रुक जा, इस बार रूपयों के साथ समूह की पासबुक भी तेरे मुँह पर मारूँगी!….परे हट मेरी नज़रों के सामने से!”


बब्बाजी का सारा गुस्सा अम्माँजी ने बेटे पर उड़ेल दिया और बुदबुदाती हुई अपने कोपभवन अर्थात अपने शयनकक्ष से लगे पूजाकक्ष को प्रस्थान कर गयीं, “प्रभु! तुमने कोयले से लिखी है क्या मेरी क़िस्मत?…कितना भी अच्छा कर लो, नतीजा बुरा ही मिलता है!…एक तो जबरन की दौड़-भाग…ऊपर से बेकार की टेंशन गले पड़ गयी सुबह-सुबह…पूरा दिन ख़राब बीतेगा, लगता है!”

इधर बेजा की डाँट-डपट से खिसियाये, भौंचक्के से खड़े कुन्दन के सामने तभी पत्नी पायल आ खड़ी हुई। वह पूछ रही थी, “नाश्ते में क्या बनाऊँ आज सबके लिए?…कुछ ऐसा बताना जो सब खा लें…फ्रिज में ज्यादा कुछ है नहीं ढंग का, तो सूझ नहीं रहा क्या बनाऊँ!”

“ऐसा करो, मुझे ही पका डालो तुम तो आज!….रोज-रोज की यही खिचखिच….क्या बनाऊँ, क्या बनाऊँ!….अरे, मैं कोई कोर्स करके बैठा हूँ क्या कि रोज बताऊँ, क्या बनाना चाहिए?…बनाना है बनाओ, वरना भाड़ में जाओ!….और मेरे लिए कष्ट करने की तो तुम्हें कतई ज़रूरत नहीं, मैं ऑफिस की कैंटीन में खा लूँगा!…अब हटो सामने से!”

अम्माँजी का सारा गुस्सा बेक़सूर पत्नी पर बेरहमी से निकाल कुन्दन ने झटके से तौलिया खींचा और नहाने घुस गया। पायल के मुँह पर ही स्नानघर का दरवाजा जोर से बन्द कर लिया और दिमाग़ को ठण्डा करने शावर खोल लिया।

“मम्मा! टेन रूपीज़ दे दो न प्लीज़! मुझे पोकेमॉन वाले स्टीकर्स लेने हैं।…मेरे सभी दोस्तों के पास ढेर सारे हैं।…रोहन और रुनझुन को उनकी मॉम ने दिलाये कल…एक आप ही कंजूस हो, कभी नहीं दिलातीं!… मुझे भी लेने हैं, मतलब लेने हैं!…मैं कुछ नहीं जानता, अभी दो पैसे!”

कुन्दन के दिये अप्रत्याशित झटके से हतप्रभ सी खड़ी रह गयी पायल का पल्लू खींचता हुआ छह-सात साल का बेटा मुकुल उसी समय ठुनक पड़ा था।

“बस! शुरू हो गये फिर सुबह-सुबह से महाराजाधिराज!….न कभी ढंग से पढ़ना, न लिखना….दिन-रात दोस्तों की देखा-देखी कभी ये चाहिए, कभी वो….रोज पैसे भी चाहिए ऊपर से!…बहुत बुरी लगती हैं मुझे ये सारी हरकतें तुम्हारी!…किसी काम के नहीं हो तुम…नालायक कहीं के!…जीना हराम कर रखा है सबका!…तुरन्त ही चलते बनो यहाँ से, नहीं तो..!”

बिना बात के पति से सुने कड़वे बोलों का सारा रोष पायल ने बेटे पर उतार दिया। जवाब में मुकुल के उलट कर चिल्ला पड़ने पर एक जोर का चाँटा भी उसके कोमल गाल पर जड़ दिया। फिर असहाय सी रसोई में जाकर सुबकने लगी, “कोई नहीं समझता मुझे…सबको बस अपनी-अपनी पड़ी है…कितना भी कर लो इस घर के लिए… सब बेकार है!…जी तो करता है, दूर भाग जाऊँ कहीं, सब छोड़छाड़ कर…तभी शायद इस जनम में चैन-सुकून मिल सके!”

इधर पैसे मिलने के बजाय डाँट और मार खा चुके बेचारे मुकुल को कुछ नहीं सूझा तो वह मुँह बिसूरता हुआ घर से निकल पड़ा। मारे गुस्से के उसका छोटा सा माथा चक्कर खा रहा था। वह..वह कहीं भाग जायेगा, फिर कभी घर वापस ही नहीं आयेगा…यहाँ कोई उससे प्यार नहीं करता, कोई भी नहीं!…हाँ..तो मुझे भी किसी से कोई प्यार नहीं है, बिल्कुल भी नहीं है, नहीं है!…नहीं है!!

गली के छोर पर पहुँचते ही मोहल्ले का पालतू कुत्ता रॉनी सामने पड़ गया। मुकुल को देख कर रॉनी ने अपने पुराने अंदाज़ में पूँछ हिलायी और हमेशा की तरह अपने पिछले दोनों पैरों पर खड़ा होकर उछलने लगा। यह उसका स्टाइल था, किसी को देखकर अपनी ख़ुशी जाहिर करने का। मुकुल ने जब कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की तो रॉनी उसके बिल्कुल पास बढ़ आया, अपने पंजे उसके पैरों पर फेरने लगा, जैसे पूछ रहा हो, “क्या बात हो गयी?…दोस्त आज उखड़ा-उखड़ा सा क्यों लग रहा??”

सुबह-सुबह बिना बात की डाँट और मार खा चुके मुकुल ने आव देखा न ताव, एक कसकर लात रॉनी को दे मारी। इस तरह भीतर घुमड़ रहे गुस्से को उसने उस बेज़ुबान जानवर पर झाड़ दिया। एक जोर की ‘कैंsss’ के साथ बेचारा मासूम जीव कुछ दूर जा गिरा। थोड़ी देर तक कैं-कैं करता रहा फिर दोबारा से उठकर धीरे-धीरे वापस मुकुल की तरफ बढ़ा।

उसे अपनी ओर आते देख मुकुल को अब थोड़ा डर लगा, उसने बेबात मारा है उसे…रॉनी कहीं उस पर झपट तो नहीं पड़ेगा, जैसे वह दूसरे मोहल्ले के कुत्तों के इधर आने पर करता है। और किसी पर जब भी वह झपटता है, उसकी पूरी फज़ीहत करके ही छोड़ता है। मुकुल ने तुरन्त ही रोड के किनारे से एक बड़ा सा पत्थर हाथ में उठा लिया ताकि ज़रूरत पड़ने पर जवाबी कार्रवाई की जा सके।

रॉनी उसके सामने खड़ा होकर फिर से पूँछ हिलाने लगा। सिर ऊपर करके जानी-पहचानी आवाज़ निकाली, “ओ..ओ..ओssss!!” फिर अपने दोनों अगले पैरों को उसके सामने लम्बा करके ज़मीन पर बैठ गया। अपने पुराने अंदाज़ में दोस्ती वाली कूँ-कूँ करने लगा। उसके मुख पर अभी भी निर्दोष करुणा थी। अभी भी उसकी आँखों में मुकुल के लिए पहले सा ही प्यार का समन्दर लहरा रहा था, जिसे महसूस कर तत्काल ही उस बच्चे का सारा क्रोध न जाने कहाँ तिरोहित हो गया। वह भी उसके सामने ज़मीन पर बैठ गया। पत्थर दूर फेंक कर अपना सीधा हाथ रॉनी की ओर बढ़ा दिया। रॉनी ने भी झट से अपना दायाँ पंजा उसके हाथ पर रख दिया, जैसा वह हमेशा किया करता था।

“सॉरी यार! मुझे माफ़ कर दे…मम्मी ने बेमतलब मारा आज मुझे…तो, मैं थोड़ा अपसेट था…तू समझ रहा है न!” मुकुल अपने दोनों कान पकड़ते हुए बोल रहा था।

रॉनी ने अपना सिर उसके घुटनों पर रख दिया। उसकी आँखें स्पष्ट कह रही थीं मानो, “दोस्ती में ‘नो सॉरी, नो थैंक यू!’…मैं तो तुम्हारा दोस्त हूँ न!..तुमसे प्यार करता हूँ!”

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प्यार की एक कहानी (भाग 3 )- नीलम सौरभ

(स्वरचित, मौलिक)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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