प्यार की एक कहानी (भाग 1)- नीलम सौरभ

वह हल्के कुहासे से भरी एक सुहानी सुबह थी। सवेरे की सैर पर निकले हुए लोगों के लिए अति आनन्द भरी थी। पर उस परिवार के वृद्ध मुखिया बब्बाजी आज बेहद गुस्से में भरे हुए शीघ्र ही घर लौट आये। रोज की नियमित दिनचर्या के तहत वे टहलने गये थे, लेकिन आज अपने पुराने ठिकाने के बदले नये वाले पार्क में, जिसे कल ही किसी पड़ोसी ने सुझाया था यह कहकर कि ज़्यादा अच्छा है। उस नयी जगह पर एक युवा जोड़े से किसी बात पर बब्बाजी की बहस हो गयी और उनका पूरा मन ख़राब हो गया।

“आप अपना देखिए न दादा जी!…फ्री का प्रवचन यहाँ न झाड़िए!…पार्क सभी का है, आपकी प्राइवेट प्रॉपर्टी तो है नहीं!”

उनके कड़वे बोलों से आहत बब्बाजी की जब सैर की इच्छा ही न रही तो वे अपनी धोती और छड़ी संभालते, नयी पीढ़ी की बदतमीजी को कोसते बिना सैर के ही वापस लौट आये। बड़बड़ाते हुए घर में घुसे और नियमतः अपनी सहधर्मिणी को ढूँढ़ा। कभी भी कोई बात हो जाये, हमेशा वे घर आते ही पत्नी से कह-सुन कर अपना जी हल्का कर लेते थे। जब से अम्माँजी से उनका ब्याह हुआ था, तब से ही यह उनकी आदत में शुमार था। अम्माँजी कहीं दिखीं नहीं तो उनकी बेचैनी और बढ़ गयी। बहू पायल से बेसब्र हो पूछने लगे, “कहाँ मर गयीं तुमाई अम्माँजी?…पूरा घर छान लिया, नहीं मिलीं अब तक…धरती खा गयी कि आसमान निगल गया उन्हें!”

भोली बहूरानी ने उनके तमतमाये चेहरे को देखे बिना सरलता से कह दिया, “अम्माँजी अपनी सहेली के पास गयी होंगी बब्बाजी, थोड़ी देर में लौट आयेंगी!….तब तक आपके लिए चाय ले आऊँ क्या?”


“चाय-वाय को मारो गोली! …ये बताओ, आज हमसे पूछे-बतियाये बिना कैसे चली गयीं सुबह-सुबह ये?….पहले तो कभी नहीं जाती थीं!” बब्बा जी का दिमाग़ हत्थे से उखड़ने लग गया था।

उनके रौद्र-रूप और दहाड़ती आवाज़ से सहम कर बेचारी पायल को बताना पड़ गया कि मोहल्ले की एक समाज सेविका के भाषणों से प्रेरित होकर पिछले कई महीने से अम्माँजी किसी-किसी स्व-सहायता समूह की सदस्या बन गयी हैं…और उनके घर से निकलते ही अक्सर खुद भी कहीं न कहीं चल देती हैं। एक घण्टे से पहले नहीं लौटतीं। वे नाहक चिन्ता करने लगते हैं, इसलिए शायद उनको नहीं बताया होगा अम्माँजी ने।

यह जानने-सुनने के बाद बब्बाजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वे बेचैनी से बरामदे में चहल-कदमी करने लगे। बड़बड़ाहट तेज हो गयी थी। “माने कि इनके भी पर उग आये हैं अब…आने दो, ख़बर लेकर रहेंगे आज तो इनकी…सारा समूह-तमूह और इनकी ये रोज की घूम- घुमाई झाड़ देंगे!…हमसे दुराव-छिपाव?!”

अम्माँजी वापस लौट कर आयीं तो बब्बाजी को पहले से घर पहुँचा हुआ देख कर एकबारगी सकपका गयीं, फिर चिन्ता से भर कर पूछने लग गयीं,

“अरे! आज तो जल्दी ही लौट आये जी आप… तबीयत तो ठीक है न!…कहीं कछु हो तो नहीं रहा?”

“••••••••••” कोई जवाब न देकर केवल अपने

उबलते क्रोध को पीने की कोशिश करते रहे बब्बाजी।

“सुन नहीं रहे हैं? क्या हो गया है…कछु बोल भी नहीं रहे??” अम्माँजी घबरा कर पति का माथा छूने का उपक्रम करने लगीं। तभी जैसे बिजली कड़की हो। उनका हाथ माथे से झटकते हुए जोर से गरज पड़े बब्बाजी,

“हमाई छोड़ो, अपनी बताओ… बहू बता रही, मेरे घर से निकलने की देर होती नहीं कि खुद भी कहीं भटकने चल देती हो!…सब के ही लच्छन बिगड़ रहे हैं आजकल….और ये समूह-तमूह की क्या कहानी है?…कहीं नया खाता फिर से तो नहीं खोला पैसे जमा करने??…कि फिर से किसी पर तरस खाकर रूपये लुटा बैठीं उधारी-सुधारी देकर???….कान खोल कर सुन लो, हमसे छुपा कर दोबारा कुछ गुल खिलाया तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा!”

अगला भाग

प्यार की एक कहानी (भाग 2)- नीलम सौरभ

(स्वरचित, मौलिक)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!