पेट – विनय कुमार मिश्रा

दुकान बंद करने का समय हो आया था। तभी दो औरतें और आ गईं

“भैया साड़ियां दिखा देना कॉटन की, चुनरी प्रिंट में” 

आज मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।आज पाँच महीने हो गए हैं, अपनी ये छोटी सी दुकान खोले। आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ। आज सुबह से दस पंद्रह कस्टमर आ चुके हैं। और बिक्री भी ठीक ठाक हो गई है।सच बोलूं तो इस दुकान का किराया निकालना भी बहुत मुश्किल हो रहा था। रोज एक या दो साड़ी तो कभी एक सूट बेच पाता था। या कभी सिर्फ एक दो दुपट्टे ही। मैंने माँ की सारी जमा पूंजी लगा दिया है। सोचा था,माल ठीक रखूंगा तो लोग आएंगे ही। लेकिन लोग आते ही नहीं थे।दुकान भी मेन रोड से सटे एक पतली सी गली में मिली है। लोगों को तो ठीक से दिखता भी नहीं होगा। पर एक बोर्ड मेन रोड पर लगा रखा है मैंने। सामने मेन रोड पर ही एक सरदार जी की साड़ियों की दुकान है। इस छोटे शहर के ज्यादातर लोग उन्हीं की बड़ी दुकान से कपड़े लेते हैं। रोज सैकड़ों कस्टमर उनके दुकान पर आते हैं।पर लगता है, माँ के आशीर्वाद से उनके दुकान की रौनक मैं अब, कुछ कम कर दूँगा। आज खुशी के साथ हैरानी भी हो रही है।कल ही तो माँ से मैं फोन पर दुकान बंद कर गली से निकलते हुए बातें कर रहा था

“माँ चाचा ने ठीक ही कहा था कोई छोटी मोटी नौकरी कर ले। दुकान चलाना तेरे बस की बात नहीं।और इतनी पगड़ी देकर दुकान भी मिली तो एक गली में जहां ग्राहक ही नहीं पहुंच पाते। सारे ग्राहक तो मेन रोड पर बड़ी दुकान पर चले जाते हैं। किराया निकालना भी मुश्किल हो रहा है। परिवार कैसे चलेगा माँ, और बच्चों को कहां से पढ़ा पाऊंगा”  मैं कल बहुत मायूस था। और परेशान भी। सच बताऊँ तो कल मैं रो पड़ा था माँ से ये सब कहते हुए।

“कोई नहीं बेटा।अब दुकान खोल ही लिया है तो धैर्य रख। किसी चीज़ में सफलता अचानक नहीं मिलती। देखना भगवान सब ठीक करेंगे”




माँ का आशीर्वाद ही है।कल ही उन्होंने कहा और आज दुकान पर थोड़ी रौनक हो आई है

“ये दोनों पैक कर दीजिए” उन्हें साड़ियां पसंद आ गई थीं। मैं उनका बिल बना रहा था तभी एक औरत बोल पड़ी

“सरदार जी ने ठीक कहा कि कॉटन की साड़ियां भी अच्छी मिल जाएगी यहां और दाम भी ठीक लगाते हैं”

“जी कौन सरदार जी?”

“यही अपने बूटा जी साड़ी वाले।उनके पास चुनरी प्रिंट की साड़ियां नहीं थीं”

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बूटा जी अपने कस्टमर यहां क्यों भेज रहे हैं।उनके यहां तो खुद सारे कलेक्शन होते हैं। मैंने पैसे लेकर गल्ले में रख लिया। दुकान बंद कर उनके दुकान पर पहुंचा। वे भी दुकान बंद ही कर रहे थे।

“बूटा सिंह जी, आपने अपने ग्राहकों को मेरी दुकान पर भेजा? 

“ओए नहीं जी! बस उन्हें जो चाहिए था वो मेरी दुकान पर नहीं था तो आपका दुकान बता दिया”

मैं जानता हूँ। इनके दुकान पर सब होता है। उनके वर्कर साड़ियां समेट रहे थे। उनमें कुछ वैसी ही साड़ियां भी थी। मैं ये देख फिर उनकी तरफ देखा

“इसमें आपका नुकसान नहीं होगा बूटा सिंह जी?”

“नुकसान की क्या बात है जी, सबकी गृहस्थी चलनी चाहिए। तुम्हारा भी तो परिवार है।”

शायद इन्होंने कल फोन पर माँ से मेरी बात सुन ली थी

“मैं इस बात पर खुश हो रहा था कि ये सब माँ के आशीर्वाद से हो रहा है पर ये सब आप ..?”

“ओए नहीं पुत्तर! ये सब माँ का ही आशीर्वाद है, हम सब की माएँ तो एक सी ही तो होती हैं ना!”

उन्हें देख, मैं खुद अपनी सोच पर शर्मिंदा था। मेरी आँखें नम हो आईं। वे मेरे कंधे पर हाथ रख ये कहते हुए निकल गए

“मेरी माँ ने मुझसे ये कहा था,अपने साथ साथ दूसरों के पेट का भी थोड़ा ख्याल रखना”

इस कॉम्पटीशन के दौर में ऐसी बातों की, कतई उम्मीद नहीं थी..!

विनय कुमार मिश्रा

रोहतास (बिहार)

 

 

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