पहलू- कंचन श्रीवास्तव 

तमाम लोगों के घरों की कहानियां सुनकर रमेश को बड़ा आश्चर्य होता था। कि कैसे लोग रहते हैं आखिर सब कुछ पहले जैसा ही तो रहता है ,फिर ऐसा क्या होता है कि सब तितर बितर हो जाता है।

और दूसरे ही पल दादी और मां के रिश्ते को लेके उसका मन खट्टा हो जाता। मन में उठे विचारो को पोख्ता सबूत मिल जाता और उसी क्षण वो सोचने पर मजबूर हो जाता कि आखिर कमी कहां है।

मां में नहीं नहीं मुझे तो लगता है मां बिल्कुल सही है सारा दिन तो टहल बजाती रहती है।

क्या मजाल है कि पलं भर को भी पलक झपका ले।

वो जब से बड़ा हुआ तब से लेकर आज तक मां को सबके लिए सती होता ही पाया।

फिर भी कोई खुश न रहता।

हर बात पे नुक्स निकालते रहते चाहे दादी बाबा हो या फिर बुआ चाचा।

यहां तक की कभी कभी तो उन्हें दूसरों के सामने भी जलील कर देते जो मुझसे देखा न जाता।

पर खून के घूंट पीके रह जाता।

पापा जो चुप सुनते रहते ,मैंने कभी भी पापा को मम्मी की तरफदारी करते नहीं देखा।

ऐसे में असहाय लाचार मां क्या करती।

आठ आठ आंसू रोती और आंचल में समेट फिर काम पे लग जाती।

जो कि मुझे बहुत अखरता। कभी कभी सोचता ये माने सांस बनकर इतना बदल क्यों जाती है।


हर वक्त हुकुम चलाती रहती और खुद मचिया लगा चार गाल बतियाती रहती।

जिसका असर मेरे जीवन पर गहरा पड़ा।वो ये कि जब उसकी नौकरी लग गई तो सबने शादी के लिए दबाव डाला ,सो उसने साफ़ मना कर दिया।

जो दादी और बुआ को सबसे ज्यादा बुरा लगा।

अब लगा तो लगा अब बेटे से तो कुछ बोल नहीं सकती थी इसलिए सारा  खुन्नस मां पर उतारा,

जो मुझे नागवार गुजरा।

अब नागवार गुजरा तो उसने चिढ़ वंश कह दिया मैं शादी ही नहीं करूंगा।

जिसे सुन मां दंग रह गई।

कारण पूछने पर उसने उनके और दादी के बीच की खटास बताया। कि सांस बनते ही वहीं मां जो बच्चों के लिए जान देती है।

नई नवेली बहू के कदम रखते ही नज़रिया  बदल जाता है।

आखिर तुम भी उसके साथ वैसा ही करोगी जैसा तुम्हारे साथ हुआ।

तो उसने  कहा नहीं बेटा ऐसा नहीं है हर सिक्के के दो पहलू हैं अच्छे और बुरे।

अच्छा भी तो हो सकता है।कहते हुए सीने से लगा लिया।

आरज़ू

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