नियति का न्याय – डॉ. पारुल अग्रवाल

आज अपराजिता को उसके ही नाम पर लिखी पुस्तक की एक समाचार पत्र में काफी प्रशंसा पढ़ने को मिली। जिसे पढ़कर वो अपने आप को नहीं रोक पाई, उसने तुरंत अमेजन से पुस्तक को डाउनलोड किया और रात के खाने के बाद पढ़ने बैठ गई। लिखा तो उस पुस्तक को किसी अज्ञात लेखक ने था पर वो उसे पढ़ना शुरू करते ही समझ गई कि ये कार्तिक ने लिखी थी जो, उसकी जिंदगी में सुंदर स्वप्न की तरह आकार चला गया था।

आज अपराजिता के मानस पटल पर अपनी जिंदगी की बहुत सारी स्मृतियां चलने लगी।उसका बीता हुआ एक एक लम्हा उसकी आखों के सामने घूमने लगा।अपराजिता जैसा नाम वैसा ही उसका जिंदगी जीने का जज़्बा, हार मानना तो जैसे उसने सीखा ही नहीं था। 

खूब ही प्यारी, मासूम सी सुंदर नैन नक्श वाली अपराजिता पूरे कॉलेज में अपने गायन और पढ़ाई में उत्कृष्ट योग्यता के लिए जानी जाती थी। पढ़ाई के बाद उसका प्रशासनिक सेवा में जाने का मन था जिसके लिए वो लगी भी रहती थी। गले में भी उसके मां सरस्वती का वास था।

कॉलेज का वार्षिकोत्सव था। शहर के जाने माने उद्योगपति मनोहर लाल जी मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। कार्यक्रम में अपराजिता के कंठ से निकली सरस्वती वंदना ने उनको कुछ और ही सोचने पर मजबूर कर दिया। उनका इकलौता पुत्र कार्तिक जो मां के लाड़-प्यार और उनकी दौलत के नशे में चूर होकर हाथ से निकला जा रहा था उसके लिए उनको अपराजिता एक बेहतर जीवन संगिनी के रूप में नज़र आई।

 अपराजिता की आवाज़ और चेहरे को सौम्यता ने उन्हें अपने बेटे के भटकते कदमों को रोकने का यही रास्ता दे दिया। कार्तिक की लड़कियों के प्रति आसक्ति मनोहर लाल जी की अनुभवी आंखों से छुपी ना थी। अपने काम के सिलसिले में वो उस ध्यान नहीं दे पा रहे थे जब घर पर होते तो अगर कभी लगाम कसने की कोशिश भी करते तब पत्नी के लाड़-प्यार और आंसू रूपी हथियार के आगे कमज़ोर पड़ जाते। 

आज अपराजिता को देखने के बाद कहीं ना कहीं उनको लगा कि ये लड़की उनके बेटे की ज़िंदगी का रुख जरूर मोड़ देगी। बस फिर क्या था,ये विचार आते ही उन्होंने अपराजिता के बारे में सारी जानकारी पता की और पहुंच गए उसके घर। घर पर अपराजिता की माता-पिता और दो छोटे भाई-बहन थे। पिता साधारण से क्लर्क थे पर उन्होंने अपने बच्चों को संस्कार देने में कोई कोताही नहीं की थी। 

बहुत बड़े उद्योगपति होते हुए भी मनोहर लाल जी अपराजिता के पिता से बहुत सादगी के साथ मिले। वैसे भी इतने बड़े उद्योगपति थे कि जीवन में कोई भी अनुबंध कैसे तय करवाना है अच्छी तरह जानते थे और ये तो फिर उनके बेटे की ज़िंदगी की बात थी। 




अपने सौहार्दपूर्ण व्यवहार से उन्होंने अपराजिता के माता-पिता का दिल जीत लिया।इतने बड़े नामी गिरामी परिवार से रिश्ता आना अपराजिता के मां-बाप के लिए बहुत बड़ी बात थी। हालांकि अपराजिता ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर जैसा कि हर मां-बाप का सपना होता है कि उनकी बेटी को मायके से ज्यादा सुख-सुविधा ससुराल में मिले यही सोचकर वो लोग इस रिश्ते से इंकार नहीं कर पाए। उधर जब मनोहर लाल जी ने घर पर अपने बेटे कार्तिक और उसकी मां के सामने कार्तिक के रिश्ते की बात कही तब दोनों मां-बेटे को सांप सूंघ गया। मनोहर लाल जी ने तुरंत अपराजिता का फोटो कार्तिक को पकड़ाया। 

फोटो देखकर कार्तिक भी अपराजिता की सुंदर चितवन की झलक में कहीं खो सा गया। अब तक उसने अपने आस-पास उसकी दौलत की वजह से मंडराती विचित्र परिधानों में सजी नित नए फैशन को अपनाती सुंदरियां देखी थी पर ऐसा विशुद्ध भारतीय सौंदर्य उसने कहीं ना देखा था। पिता की पसंद पर उसने अपनी भी मोहर लगा दी थी। उसको ये पता था कि अगर उसने इस बारे में कुछ भी ज्यादा बोला तो उसके पिता उसको जायदाद से बेदखल कर देंगे। उसने अभी चुपचाप अपने पिता की बात मानकर आगे की योजना को क्रियान्वित करने की सोची। वैसे भी नई नई लड़कियों का साथ उसे हमेशा भाता था इसलिए उसने सोचा कि इस बार ऐसे ही सही। दोनों पिता और बेटे की सहमति देखकर मनोहर लाल जी की पत्नी भी कुछ ना कर पाई। इस तरह अपराजिता इतने बड़े घराने की बहु बनकर इस घर में आई।

अभी तक सब कुछ देखने में बहुत सुंदर लग रहा था। मनोहर लाल जी बहुत प्रसन्न थे। कार्तिक और अपराजिता की सुंदर जोड़ी पूरे खानदान में ही नहीं शहर में भी चर्चा का विषय थी। 

अपराजिता का निर्दोष सौंदर्य कार्तिक को बांधने में कुछ हद तक सफल हो गया था। विवाह के बाद के मधु यामिनी के पल बहुत ही खूबसूरती से बीत रहे थे पर किसी को भी ये नहीं पता था कि कार्तिक के दिमाग में क्या चल रहा है। विवाह के 2 माह ही बीते थे कि एक दिन सुबह का निकला कार्तिक देर रात तक वापिस ही नहीं आया। किसी को कुछ भी समझ नहीं आया। 

सब जगह फोन मिलाए गए,कार्तिक का मोबाइल भी नेटवर्क एरिया से बाहर बता रहा था। इतने बड़े अमीर घराने के इकलौते वारिस का इस तरह से गायब होना चर्चा का विषय था। गुत्थी कुछ और उलझती इससे पहले ही मनोहर लाल जी को कार्तिक के अकाउंट में लाखों रुपए के ट्रांसफर होने की जानकारी मिली। वो कुछ करते इस पहले ही एक अनजाने नंबर से उनको फोन आया।




 फोन उठाने पर वो आवाज़ कार्तिक की थी जो अपना देश छोड़कर किसी अनजाने देश जा रहा था। उसने साफ-साफ शब्दों में बोला था कि मैं बंधकर रहने वालों में से नहीं हूं। मैं ये शादी, सात जन्म जैसे बंधनों में भरोसा नहीं रखता। अभी मेरे को पूरी दुनिया देखनी है। मैं तो बस इंतजार में था कि किसी तरह मेरे अकाउंट में सारा पैसा ट्रांसफर हो जाये और फिर मैं आपके चंगुल से निकल जाऊं। शादी कराकर आपने मेरी राह आसान कर दी। उसकी बात सुनकर मनोहर लाल जी और उनकी पत्नी तो जैसे जिंदा लाश बन गए। 

अपराजिता को देखते ही उनको लगा कि जिंदगी का सबसे बड़ा अन्याय वो उस मासूम के साथ कर बैठे। वो अपने खून को पहचाने में ही इतनी बड़ी गलती कर गए। अपराजिता तो खुद जिंदगी के मज़ाक को नहीं समझ पा रही थी। आज उसकी जिंदगी का पहला प्यार उसका सहचर अकारण ही उसको धोखा देकर चला गया था। उसके मां-बाप आए थे वो उसकी हालत देखकर उसको अपने साथ ले जाना चाहते थे पर हारना तो उसने सीखा ही नहीं था। उसने बहुत सोचा फिर अपने ससुर की आंखों में उमड़ती हुई बेचारगी और सास की शून्य में झांकती आंखों ने उसे एक निर्णय लेने पर मजबूर कर दिया। 

उसने बहुत शांत भाव से अपने मां-पिता से बोला कि मैं तो शादी ही नहीं करना चाहती थी पर आप लोगों की ज़िद के आगे में मजबूर हो गई थी। अब मैं अपने निर्णय खुद लूंगी, मैं कही नहीं जाऊंगी और अपनी आगे की पढ़ाई भी यहीं रहकर पूरी करूंगी। ये कहकर वो वहां से चली गई और जुट गई प्रशासनिक सेवा की पढ़ाई करने। उसने दिन-रात एक कर दिए। आखिर उसकी मेहनत सफल हुई और एक साल के कड़े संघर्ष के बाद वो प्रशासनिक अधिकारी बन ही गई।

उसकी पहली नियुक्ति हुई बनारस में। जहां विदेशी सैलानी काफी संख्या में आते हैं। वहां जाने से पहले जब वो सास- ससुर का आर्शीवाद लेने आई तो ससुर ने तो हाथ जोड़कर उससे अपने अनजाने में लिए अन्याय के लिए दोबारा माफी मांगी और सास भी बिलख-बिलख कर रोने लगी तब उसने बहुत ही विनर्मता से उनको कहा मेरे साथ आप लोगों ने कोई अन्याय नहीं किया, ये तो शायद होना ही था और अब आने वाला वक्त ही मेरे साथ इंसाफ करेगा। साथ-साथ ही उसने चलते हुए अपने से वादा किया कि वो कहीं से भी उनके बेटे को वापस उनके कदमों में लाने की पूरी कोशिश करेगी।




एक बार जब वो रात को अपनी टीम के साथ गश्त कर रही थी तो नशे में धुत कुछ विदेश से आए लोगों को पकड़ा गया जो अफीम,गांजा पी रहे थे। उनकी हालत नशे में बद से बदतर थी। उन्हीं में एक जोड़ी आंखें कुछ कुछ पहचानी सी लग रही थी। उन सभी को पकड़कर थाने में बंद कर दिया था। पर उसका मन कहीं ना कहीं उन दो आखों की तरफ खिंचा जा रहा था। उसका संदेह बिल्कुल ठीक था वो और कोई नहीं उसको मझधार में छोड़ने वाला उसका सहचर कार्तिक था, जिसको उसने पूरे हृदय से अपनाया था। 

आज उसकी ऐसी हालत थी कि वो खुद भी अपनेआप से भी अनजान था। हवालात से छुड़वाकर अपराजिता ने उसको नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती कराया। उसकी मानसिक हालत भी ठीक नहीं थी। किसी तरह अच्छे से अच्छा इलाज़ होने से कार्तिक बहुत हद तक ठीक होने लगा था। जिस दिन उसकी छुट्टी होनी थी उस दिन उसने अपने सास-ससुर को अपने पास बुला लिया था हालांकि उसने अभी उन लोगो को कुछ नहीं बताया था। वो उनको मंदिर में दर्शन कराने के बहाने से जहां कार्तिक का इलाज़ चल रहा था वहां ले गई। 

अपने बेटे पर नज़र पड़ते ही उसके सास-ससुर की तो जैसे दुनिया ही बदल गई। दोनों के हाथ अपराजिता के सामने जुड़ गए।

कार्तिक भी अब ठीक था बस अभी उसको अपनी पिछली जिंदगी का ज्यादा कुछ याद नहीं था पर डॉक्टर ने आश्वासन दिया था कि जल्दी ही वो ठीक हो जायेगा। अब उसको घर वापिस ले जाया जा सकता था। कार्तिक को अपराजिता ने अपने सास-ससुर को सौंप दिया था और साथ-साथ अपने दूसरी जगह स्थांतरण के आदेश भी दिखा दिए थे। उसकी सास उसको रोकना चाहती थी।तब ससुर ने ये कहकर कि अब उसको अपनी दुनिया जीने दो, पहले ही हम सब उस के साथ स्वार्थवश जाने अंजाने में बहुत अन्याय कर कर चुके हैं उसको बंधन मुक्त कर दिया था। पर आज इस पुस्तक ने उसकी सारी स्मृतियों को विस्मृत कर नियति के न्याय पर उसके भरोसे को और भी मजबूत कर दिया था। उसको कहीं ना कहीं ये भी संतोष था कि अब कार्तिक शायद पूरी तरह ठीक होकर एक सृजनात्मक मार्ग पर चल चुका है। 

तो दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी, बहुत मन से ताना बाना बुना है इस कहानी का, अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। मेरा खुद का मानना है कि हम चाहे जाने अनजाने में कितने ही अन्याय क्यों ना कर लें पर सबसे बड़ी न्यायाधीश नियति होती है जो हमारे कर्मों का पूरा हिसाब किताब रखती है।

#अन्याय

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

 

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