निर्णय – प्रीति आनंद

 

“दीक्षा , आज हमारे ऑफ़िस में गेट-टुगेदर लंच है, सभी को अपनी फ़ैमिली को लेकर आना अनिवार्य है। मैं बारह बजे आऊँगा तुम्हें पिक-अप करने। तैयार हो जाना कुछ अच्छा-सा पहन कर।” राकेश ने दफ़्तर के लिए निकलते हुए फ़रमान सुना दिया।

“पर राकेश, आज तो मुझे ऐयरपोर्ट जाना है कामिनी को मिलने। तुम्हें बताया तो था मैंने पिछले हफ़्ते!”

“कौन कामिनी?”

कामिनी… कम्मो… उसके बचपन की सहेली। दिलोजान से भी अधिक प्यारी। देखो तो उस सहेली जैसा उसकी ज़िंदगी में फिर दूसरा कोई नहीं आया। एक दूसरे की परछाई थे दोनों। पर ब्याह के  बाद सब बदल गया। वह सिवान जैसे छोटे शहर से निकल कर चेन्नई में बस गई और कम्मो अमरीका! ब्याह को तीस बरस हो गए पर मुलाक़ात नहीं हुई। जबसे ये व्हाट्सऐप वग़ैरह शुरू हुआ है तो हालचाल मिल जाता है।

पंद्रह दिन पहले कामिनी का मैसेज आया कि वह बिज़नेस मीटिंग के लिए सिंगापोर जा रही है तथा ख़ास उससे मिलने के लिए उसने चेन्नई में जर्नी ब्रेक का प्लान बनाया है। चार घंटे का ही ब्रेक है तो वह घर नहीं आ पाएगी, दीक्षा ऐयरपोर्ट  तक आ जाए तो मुलाक़ात हो जाएगी। लंच साथ में करेंगे।

ये सारी बातें उसने उसी दिन राकेश को बताई थीं पर अब वह अनजान बन रहा है!



“पर दीक्षा, ये ऑफ़िस मीटिंग बहुत अहम् है। सीनिअर अफ़सर आएँगे, शायद प्रमोशन भी तय हो, जाना तो पड़ेगा। तुम अपनी सहेली को मना कर दो और समय से तैयार हो जाना।” कहते हुए राकेश दफ़्तर के लिए निकल गया।

मना कर दो! इतने दिनों से जिस मुलाक़ात के ख़्वाब देख रही है, क्या उसे दरकिनार कर दे? क्या करे वह? राकेश मानेगा नहीं, ऐसे ही वह बात-बात पर उसे तथा उसके माँ-बाप को बुरा-भला सुनाता रहता है!

ठीक बारह बजे राकेश उसे लेने आ गया। ऊपर से नीचे तक निहार कर उसने उसके साज-सज्जा को अपनी स्वीकृति दे दी। पार्टी में उसका मन बिलकुल नहीं लग रहा था। नज़रें घड़ी पर ही टिकी थीं। तभी उसका मोबाइल बजने लगा। कामिनी ही थी। उसे बार-बार मोबाइल साइलेंट करता देख राकेश ने टोक दिया, “किस यार का फ़ोन है, बात क्यूँ नहीं कर लेती?”

“कामिनी है।”

“क्यों कर रही है वह फ़ोन? मना नहीं किया था उसे?”



चाह के भी वह कामिनी से मिलने नहीं जा पा रही थी। सात फेरों के रिश्ते ने उसके पैरों में मन भर की बेड़ियाँ डाल दी थीं, कुछ भी अपने मन का करने की स्वतंत्रता नहीं थी उसे! ज़रा-ज़रा सी बात पर राकेश आग बबूला हो जाता, उसकी ऊँची आवाज़ सुनकर वह थर-थर काँपने लगती थी। कभी हिम्मत नहीं कर पाई कि उसकी किसी ग़लत बात का प्रत्युत्तर दे!

चुप रह गयी वह। पर जब पाँचवीं बार फ़ोन आया तो राकेश का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया,

“अरे फ़ोन उठा के मना क्यों नहीं कर देती? कौन से लड्डू मिल जाएँगे उससे मिलकर?”

पता नहीं क्यों इस बार उससे रहा नहीं गया।

“बात कर के आती हूँ, यहाँ शोर बहुत है”, कहती हुई वह बाहर निकल गयी।

बाहर आते-आते उसके हृदय ने स्वयं निर्णय ले लिया। कदम आगे को बढ़ते चले गए। ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा, राकेश एक बार फिर चिल्लाएगा। पर ऐसा थोड़ी है कि ये उसका पहला या आख़िरी प्रलाप होगा। अगर उसकी बात आज मान भी ले तो भी वह कोई न कोई बहाना ढूँढ़ उस पर बरसेगा ही। पर कामिनी से न मिल पाने का मौक़ा उसे दोबारा मिलेगा कि नहीं! ये अवसर खोने का दुःख उसे ज़िंदगी भर सालता रहेगा।

टैक्सी बुला कर वह बैठ गई। ऐअरपोर्ट जाने का निर्णय लेते ही मन बिलकुल हल्का-सा हो गया। ज़िंदगी की लड़ाई के लिए भी वह, सहसा, खुद को अधिक मज़बूत महसूस कर रही थी।

स्वरचित

प्रीति आनंद

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