आदर – सुनीता मिश्रा

ट्रेन  से उतर मै और दादी ने गाँव की बस पकड़ी।बस भी गाँव के अंदर तक कहाँ जाती थी।सरकारी योजना के तहत बनी पक्की सड़क ने हम दोनो को करीब गाँव से छ किलोमीटर की दूरी पर उतार दिया।

सड़क के किनारे बिसना बैल गाड़ी लिये खड़ा हुआ था।दादी के उसने पैर छुए। बिसना दादी के देवर का पोता।

बैलगाड़ी मे बैठ दादी मुझ्से बोली-“बिटिया !हमाई बैग से चादर निकाल दो सफेद वाली।”उन्होने चादर सिर पर से ओढ़ ली।

बैलगाड़ी कच्चे पक्के रास्ते से हिचकोले खाते गाँव की तरफ चल पड़ी।दादी ,अपलक उन रास्तों को देख रही थी अपनी यादो से जैसे  आज को जोड़ रही हों।

दो दिन हुए मैने अपनी कंपनी से आते ही दादी को सूचना दी–दादी चलो आपको आपके गाँव घुमा लाते है।मेरी चार दिन की छुट्टी स्वीकृत हो गई है।”खुशी से दादी का चेहरा भर गया।बहुत दिनो से ज़िद कर रहीं थीं ।गाँव, अपने ससुराल जाने की।मैने मज़ाक मे कहा भी था–दादी ,लड़कियाँ तो मायके की याद करती हैं,

आप ससुराल की याद करती हो”


“बिटिया मायका तो  ऐसा,की  हमे भाई का सहारा रहा।।चौदह साल के ब्याह के ससुराल आ गये।बीस साल तुम्हारे दादा जी के साथ वहीं रहे।उनकी यादे बसी है वहाँ ।तुम्हारे पापा दस बरस के रहे होँगे तब ।तुम्हारे दादा जी को एक रोज ताप चढ़ा,हकीम जी को  दिखाया दो दिन दवा ली होगी।कोई आराम नही आया।बस चटपट सब निपट गया।तुम्हारे पापा के मामा आके हम मां बेटे को शहर ले आये।”

मैने जबसे होश सम्भाला ,हमेशा दादी को सफेद कलफ की साड़ी,माथे पर चन्दन का गोल टीका,हाथ मे बंधी घड़ी,इस रुप मे ही देखा।इकहरा बदन ,गोरा रंग,चेहरे पर  तेज दिखाई पड़ता।जीवन का संघर्ष व्यक्ति को तपा कर कंचन बना देता है।

भाई ने उन्हे प्राईवेट पढ़ाया।प्राईमरी स्कूल मे शिक्षिका की नौकरी मिली। अब दादी रिटायर  है ।पापा कॉलेज मे प्रोफेसर है।मम्मी गृहिणी है।मेरा  छोटा भाई इंटर कॉलेज मे पढ़ रहा है।


अस्सी बरस की दादी कई दिनों से गाँव जाने की रट लगाए थीं ।पापा के पास समय नहीं,मम्मी छोटे भाई की पढ़ाई के कारण,कुछ खुद की अस्वस्थता के चलते,जाने मे असमर्थ थीं ।

गाँव के रास्ते मे पड़ती अमराई,पोखरो मे सिंघाड़े तोड़ते बच्चे,कुओं से पानी भरती औरते, दादी अपनी आँखो मे भर लेना चाहती थी।बड़े दिनो की प्यासी आँखे तृप्त होना चाहती थी।पैतीस की उम्र मे छोड़ा गाँव अस्सी की उम्र मे बहुत बदल गया था।दादी से बड़ी उम्र के अधिकतर लोग दुनियाँ छोड़ चुके थे।छोटे बच्चे बूढ़े हो गये थे।

बैल गाड़ी घर के सामने आकर रुकी।दादी ने लम्बा सा घूँघट खींच लिया।मै हँसी बोली–दादी तुमसे बड़े तो यहाँ कोई है नहीं ।तुम्हारे बराबर,और तुमसे छोटे ही यहाँ पर होँगे।फिर ये घूँघट किसके लिये।”

“बिटिया,ये जो घर है न,घूँघट डाल के इसमे आईं थीं  हम ।जब तेरे पापा को लेकर निकली तब भी घूँघट था।ये घर,ये गाँव तो मुझ्से बड़ा है न।बस इसी के आदर सम्मान मे मैने सिर पर चादर डाली है।”

सुनीता मिश्रा

भोपाल

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!