नहले पर दहला – प्रीती सक्सेना

स्वलिखित

 

हां तो बात बहुत पुरानी है, हम पुत्र जन्म के डेढ़ माह बाद इंदौर आए, एक तो काम करने की कम आदत, अरे बताया तो था, पापा हमारे एसडीएम, थे न, चपरासियों की फौज रहती थी घर में, कुछ तो इस कारण से काम करने की आदत नहीं पड़ी , और हमें ये काम भी बिल्कुल पसंद नहीं कि हम काम करें, हां नहीं तो।

 

    हां तो हम कहां थे, अरे इंदौर में थे और कहां थे, नई नवेली मां, दिन भर थक जाते  थे, अनुभव कुछ था नहीं, ऊपर से ये हमारे तानाशाह पति, श्रीमान महेश सक्सेना जी, जब भी टूर से पधारें, कोई भी दोस्त आए, चाहे कोई भी टाइम हो, न दिन देखें न रात, फौरन आवाज़, लगाते, खाना लगाओ, देखो कौन आया है, अरे, क्या भोजनालय खुला है, जो फटाफट प्लेट लगाकर , परोस आएं, अरे छोटा सा बच्चा है, उसे देंखे कि खाना बनाएं, फिर भी, खाना बनाते, और खिलाते, अरे ये तो बताना ही भूल गए कि, हम खूब सारा भिनभिनाते और बड़बड़ाते भी। दरअसल इन्हें ट्रेनिंग देने वाले कुछ दोस्त थे, गुस्सा तो आ रहा है, नाम बता दें,पर वो भी कहानी पढ़ेंगे, फालतू में रिश्ते खराब हो जायेंगे, दोस्त इन्हें सिखाते थे, ऑफिसर की बेटी है, दबाकर रखना, और हमारे पतिदेव, बाकी सलाह मानें न माने, ये सलाह जरुर मानते थे, अब देखिए हमें फिर गुस्सा आने लगा।


इनकी दादागिरी सहते सहते काफी महीने हो गए, ऐसा नहीं कि हम इन्हें समझाते नहीं, पर इनका कहना था, हमारे घर में तो ऐसा ही होता था, यहां भी वैसा ही होगा, एक मिनिट, आंसू पोंछ लें, क्या करें, बहुत भावुक जो हैं हम।

हमारा इनसे कहना था, सबको खाने का मत पूछा करो, कुछ को चाय नाश्ते में भी निपटाया जा सकता है न, पर दादागिरी, तो दिखाना थी न, वैसे तभी दिखा पाए, उसके बाद , बताने की जरुरत है क्या?

 

उस समय मोबाइल भी नहीं थे, न ही घर पर फोन, जो हम दांव पेंच, किसी से सीख लेते, तो दिमाग हमें ही चलाना पड़ा, हालांकि, हमें ये मेहनत भी करना पसन्द नहीं थी।


 

  बस तो हमने कमर कस ली, इनको रास्ते पर तो लाकर ही रहेंगे चाहे कुछ भी हो, सन्डे को ज्यादातर कुंवारे दोस्त जरुर टपकते थे, घर का खाना खाने को, ये तो बताना भूल गए की हम खाना बहुत जायकेदार बनाते हैं, इस समय हम शर्मा रहें हैं, आप लोगों को दिखेगा कैसे, तो लिखकर बता दिया, हां तो हम फ्रिज में आटा ज्यादा गूंध कर रखते, सब्जी भी ज्यादा बनाते, ये टूर से आते, पीछे से दोस्तों का आगमन, बस इनसे पहले हम शुरु हो जाते, भईया खाना खाकर जाना, भईया काहेको मना करते, आसन जमा लेते, एक दो बार तो ठीक रहा, फिर ये चिड़चिड़ाने लगे, अरे यार खाने को क्यों रोका, चाय में टरका देती न, मैं थका हुआ था, कितना टाइम लग गया, बातचीत में, हमने अपना पांसा 

फेंका, इस समय हमारा चेहरा, खलनायिका, शशिकला, जैसा, हो रहा था, हम जहरीली हंसी  हंसते हुए बोले, ऐसा कीजिए हमें एक लिस्ट बनाकर दे दीजिए, जिससे हमें पता चल जाए , किसे चाय, किसे नाश्ता , किसे खाना खिलाना है, इन्होंने हार मानी उस दिन से आज तक, ये निर्णय हम ही लेते हैं, इस समय, बिंदु जैसी, डरावनी मुस्कुराहट थी, हमारे चेहरे पर,

 

  अरे बहुत देर हो गई, इन्हें चाय देना थी, फोकट में गुस्सा हो गए तो , अरे हम डरते नहीं है इनसे, जी आई चाय लेके।

 

प्रीती सक्सेना

इंदौर

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