छवि और सुहानी का याराना आठवीं कक्षा से शुरू हुआ । जहाँ छवि को सरोज अग्रवाल कड़क कक्षा अध्यापिका के रूप में मिली। यही सरोज अग्रवाल सुहानी की माँ थीं घर में एक बड़ा भाई प्रतीक था । पिता तो अब इस दुनिया नही थे।
छवि ,प्रतीक को सुहानी की तरह ‘भईया ‘ नही कह पाती थी न सुहानी को बुरा लगता और न सरोज को।
दोनों सहेलियों के मित्रता इतनी पक्की थी कि एक जैसे विषय लेकर आज छवि और सुहानी एम.ए. कर रही हैं । छवि और सुहानी ने कढ़ाई, क्रोशिया ,पेंटिंग, नृत्य आदि पर महारत हासिल की। छवि का सुहानी के घर पर जाकर नये तरह के व्यंजन बनाना तथा उसके प्रतीक भईया की तारीफ पाना ; यह भी छवि की जिंदगी का हिस्सा रहा।
आजकल छवि ऐसा महसूस कर रही थी कि प्रतीक कुछ कहे बिना ही सब कुछ कह जाता है जैसे ” सुहानी ! तू भी यह डिश बनाना सीख ले बहुत टेस्टी लगती है … आज कढ़ी बहुत स्वादिष्ट बनी है ;कोफ्ते बहुत सॉफ्ट बने है। “
छवि की मम्मी भी की सहेली बन चुकी थी। इसलिए छवि के ऊपर सुहानी के घर पर आने जाने पर कोई रोकटोक नही थी इस बीच प्रतीक की नौकरी पास के शहर में बैंक में प्रोबेशनरी ऑफीसर की लग गयी थी।
लेकिन एक दिन सरोज ने छवि को अपने यहाँ आने से रोक दिया यह छवि के लिए बहुत ही दुखदायी था।
यह बात सुहानी की भी समझ से बाहर थी। उसने माँ से पूछा तो उत्तर मिला “अगर छवि तेरी भाभी बन जाये तो कैसा रहेगा?”
सुहानी खुश होकर बोली ” माँ! इससे अच्छा तो कुछ हो ही नही सकता। मुझे तो विश्वास नही हो रहा कि छवि मेरी भाभी बनेगी “
प्रतीक और छवि तो एक दूसरे को पसंद करते ही थे । सरोज को पढ़ीलिखी बहू और छवि के माता पिता को अच्छी नौकरी वाला दामाद मिल रहा था फिर भला किसे एतराज होता?
इन सबसे अलग सुहानी खुशी से झूम रही थी कि उसकी दोस्ती ‘ननद भौजाई ‘ जैसे खूबसूरत रिश्ते में परिवर्तित हो गयी।
दीप्ति सिंह (स्वरचित)