मित्रता का अपमान – पुष्पा जोशी

क्या बात है? आप बहुत परेशान नजर आ रहे हैं.कल जब से आपने वह पत्र पढ़ा है आप बहुत उदास  हैं.कल आपने ठीक से खाना भी नहीं खाया.रात को ठीक से सोए भी नहीं.किसका पत्र था? जिसने आपको परेशान करके रख दिया.सुलेखा ने अपने पति दौलतराम से पूछा.

दौलतराम ने कहा- ‘मैं सोच रहा हूँ, गाँव चला जाऊं और दीनू से माफी मांग लू. मेरा मन बहुत बैचेन हो रहा है, उसके पत्र ने मेरी आँखे खोल दी है.’

आप ठीक कह रहे हैं. चार दिन पहले बेचारे दीनू भैया आए थे.धन के नशे में आपने उनके कपड़े, रहन-सहन, जूतो सभी के लिए अपने नौकरों के सामने ही उन्हें अपमानित कर दिया.आपने अपने धन के नशे में उन्हे न जाने क्या- क्या कह दिया.वे कुछ बोले नहीं मगर मैने देखा  उनकी ऑंखों में पानी था, जाते समय उन्होंने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा.जैसे अब कभी न आने का प्रण लेकर जा रहे हों.मैं उन्हें रोकना चाहती थी. चाहती थी कि आप उन्हें रोक ले, वे आपके बाल सखा हैं.आज उनके पास पैसा नहीं है, मगर सच्ची दोस्ती पैसो की मोहताज नहीं होती.धन के नशे में आपने उन्हें घर से निकालने तक की बात कह दी.आप गाँव जरूर जाइये.

दौलत राम गाँव के लिए रवाना हुआ, वह धन के घमंड में दीनू को अपमानित करना चाह रह रहा  था. मगर, अपने कृत्य से वह स्वयं को अपमानित महसूस कर रहा था.सुलेखा ने उस पत्र को खोलकर पढ़ा.

समझ नहीं पा रहा हूँ, तुम्हे क्या संबोधन दूं.बस अपने दिल की बात तुमसे कहना चाहता हूँ.

मानव ईश्वर का अंश है, अपूर्ण है.अपूर्ण है, अत: दावा नहीं कर सकता की उससे कोई गलती हो ही नहीं सकती. गलती हर इंसान से होती है.फर्क यह है कि कुछ भूली जा सकती है और कुछ का एहसास जीवन पर्यन्त रहता है. मुझे अफसोस है कि मैं गलतियों  पर गलतियां करता चला गया. मेरी गलतियों की श्रंखला की पहली कड़ी वही है जब मैने तुमको देखा.तुम और मैं जैसे जैसे पास आते गए, उसमें और कड़ियाँ जुड़ती चली गई. मैं तो भ्रमवशात उसे स्नेह की श्रंखला समझ बढ़ाता चला जाता अगर आज तुम्हारे विचार नहीं जान पाता. मैं तुमसे शिकायत नहीं कर रहा हूँ, बल्कि तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ, कि तुमने मेरा भ्रम तोड़ दिया व मेरी गलतियों का एहसास करा दिया.

तुम्हारा कहना ठीक है कि ” तुम्हारी मेरी समानता कैसी? मैं भावनाओं की मूर्ति को पूजने वाला और तुम उसे तोड़ने वाले.   तुम्हें धन की पिपासा है और मैं सच्चे हृदय की खोज में रहता  हूँ.(अफसोस की एक बार धोखा खा गया) तुम्हारे आगे स्नेह की कोई कीमत नहीं और मैरे लिए वही सब कुछ है.


यह मत सोचना कि मैं तुमसे ईर्ष्या कर रहा हूँ, या कुछ मांग रहा हूँ.ईर्ष्या करने का तो कोई कारण ही नहीं है.  क्योंकि जो धन तुम्हारे पास है उसकी मुझे चाहत नहीं है.उसके होने न होने से मुझे क्या फर्क पड़ता है.और कुछ मांगने का प्रश्न इसलिए नहीं उठता कि जिस चीज़ (भावना, स्नेह, प्यार, आत्मियता) की मुझे तलाश है, वह तुम्हारे पास है ही नहीं तो क्या दोगे?

इतना होने पर भी हम दोनों में समानता है, तुम्हें मुझे मित्र कहने में शर्म, लज्जा व अपमान का अनुभव होता है और मुझे तुम्हें मित्र कहने में. मैं किसी हृदयहीन को अपना मित्र मान ही कैसे सकता हूं. जिसके मित्र बनाने का मापदंड ही पैसा हो वह मेरा मित्र हो ही नहीं सकता.यह सच है कि तुम्हारी आज्ञा को सुनने वाले, तुम्हारे सम्मान मे शीष झुकाने वाले हजारों हैं, मगर उनकी मूक वाणी में छिपे भाव को क्या तुमने पढ़ा है. खैर, यह पढ़ना न पढ़ना तुम्हारा काम भी नहीं है. तुम्हारा काम है पैसा कमाना और वह तुम किसी भी तरह से कर ही लेते हो.तुम्हारे पैसे उछाल कर फैकने में अहंकार की बदबू आती है, और मेरे कोढ़ियां बटोरने में मेहनत और संतोष की सुगंध जो मेरे जीवन को महकाए हुए है. मेरी आँख का पानी तेरी क्रोधाग्नि को भड़काता है, तो मैं भी इतना मूर्ख नहीं हूँ कि किसी पत्थर के आगे ऑंसू गिराऊंगा.

यदि धन इन्सान को तेरे जैसा बना देता है, तो मैं ईश्वर का शुक्रगुज़ार हूँ कि उसने मुझे धनवान नहीं बनाया.

मेरा धन मेरा हृदय है, भावनाएं है जिसे कोई छीन नहीं सकता.

अलविदा

सुलेखा ने पत्र बंद किया, उसकी ऑंखों में नमी आ गई थी, उसे अपने पति के व्यवहार पर जो उसने  दीनू के साथ किया शर्म आ रही थी, वह सोच रही थी कि उसके पति ने दीनू भैया का नहीं उनकी सच्ची मित्रता का अपमान किया है.सुलेखा ने ईश्वर से प्रार्थना की कि वे उन दोनों के मन के मैल को दूर कर दे और उनकी मित्रता फिर से कायम करदे.

प्रेषक-

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक

#अपमान 

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