‘ मेरी बहू है ‘ – विभा गुप्ता

अब तो उठ जा, हाय..मेरी बच्ची को क्या हो गया…. ये बोल क्यों नहीं रही….” कहते हुए सावित्री जी स्ट्रेचर पर रखे खून के धब्बे लगे सफ़ेद कपड़े में लिपटे एक काया से लिपट-लिपटकर रोती जा रहीं थीं।एक नर्स ने उनसे पूछा भी कि आप कौन है, मरने वाले से आपका क्या संबंध है परन्तु उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।वो तो बस अपनी छाती पीट-पीटकर रोयें जा रहीं थीं।अब वो क्या कहतीं,कैसे कहतीं कि चिरनिद्रा में सोने वाली उनकी….।

        अपने पिता के घर बड़ी नाजों से पली सावित्री जी जब ब्याह करके अपने ससुराल आईं तो ददिया सास-ससुर, सास-ससुर और देवर से भरे-पूरे परिवार ने उन्हें सिर-आँखों पर बिठाया।उनके दादा ससुर कस्बे के नामी ज़मींदार थें।उनके खेतों पर पचासों मजदूर काम करते थें जो उनके पति विशंभर बाबू को बबुआ कहकर बुलाते थें।परपोता का मुँह देखकर विशंभर बाबू के दादा-दादी चल बसे, तब से विशंभर बाबू छोटे मालिक और सावित्री जी छोटी मालकिन कहलाने लगीं।

        उनका देवर शहर में पढ़ने गया तो वहीं का होकर रह गया।अतः वृद्ध हो रहे सास-ससुर को आराम देने के लिये सावित्री जी पति के साथ खेती-बाड़ी की ज़िम्मेदारी भी संभालने लगी।उनको खुद पर बहुत विश्वास था,वे अपने पसंद काम करती और चाहतीं थीं कि सभी उनके आदेश का पालन करे।ऐसा होता भी था,उनकी बात काटने की किसी में हिम्मत न थी।

      ईश्वर की कृपा से उन्हें एक बेटी भी हुई।बेटा अतुल्य और बेटी आराध्या के पालन-पोषण में उन्होंने कोई कमी नहीं रखी।बच्चे बड़े होने लगे।स्कूल की पढ़ाई खत्म होते भी अतुल्य आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया।बीए की डिग्री हासिल करके वह वापस अपने घर आ गया।इतनी बड़ी जागीर बाद में तो उसे ही संभालनी थी तो आज क्यों नहीं,इसलिए वह अपने पुश्तैनी काम में पिता का हाथ बँटाने लगा।

           वे शिक्षा और संस्कार को बराबर महत्व देती थीं,इसीलिए बेटी ने जब काॅलेज़ की पढ़ाई करने के लिए शहर जाने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने तुरंत अनुमति दे दी।




       आराध्या की पढ़ाई पूरी होते ही विशंभर बाबू ने अपने मित्र के बेटे अनिकेत जो कि शहर में अपने पिता का कारोबार संभालता था,के साथ बेटी का विवाह कर दिया।भावी बहू के लिए सावित्री जी ने बहुत सारे सपने संजों रखें थें जिन्हें पूरा करने के लिए अब वे अपने जैसे ही सम्पन्न घराने की सुसंस्कृत कन्या के साथ बेटे का भी विवाह कर देना चाहती थीं।नाते-रिश्तेदारों में बेटे के रिश्ते की बात चला ही रहीं थीं कि एक दिन खेत से आकर अतुल्य ने कह दिया, ” माँ, मैं अपने काॅलेज़ की साथिन श्रद्धा से प्यार करता हूँ और उसी से शादी करना चाहता हूँ।” सुनकर उन्हें थोड़ा दुख तो हुआ, फिर सोची कि बिरादरी अच्छी है तो कोई बुराई नहीं है,इसीलिए जब उन्होंने श्रद्धा के माता-पिता से मिलने की बात कही तब अतुल्य ने बताया कि वह अनाथालय में पली-बढ़ी है।अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए वह कॉलेज़ के पास ही टी-स्टाॅल चलाती थी, वहीं पर मेरी उससे मुलाकात हुई थी।माँ, श्रद्धा देखने में वह जितनी सुंदर है,उतना ही निश्छल उसका मन और स्वभाव है।आप मिलेंगी तो…।”

” अनाथ! ये तू क्या कह रहा है अतुल्य? ना तो उसकी जात-पात का पता है और ना ही उसका कोई स्टेटस है।तूने उसमें ऐसा क्या देखा जो अपने खानदान की नाक कटाने पर तुल गया।परिवार की मान-मर्यादा का तुझे ज़रा भी ख़्याल न रहा….” सावित्री जी बेटे पर चिल्लाई।

” है ना माँ, तभी तो आपको उससे मिलने के लिए कह रहा हूँ।” अतुल ने शांत स्वर में कहा तो वे कुछ नरम हुईं लेकिन श्रद्धा को बहू बनाने के लिए वह कतई तैयार न हुई।इस विषय पर माँ-बेटे में काफ़ी बहस हुई, दोनों ही अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे।

        पत्नी की ज़िद देखकर विशंभर बाबू बोले कि जवानी का जोश है, बेटा कहीं कुछ गलत कर बैठा तो..।तुम अड़ी रहोगी तो बात बिगड़ भी सकती है।एक बार देख लेने में हर्ज़ ही क्या है।पसंद न आये तो…।

   ” ठीक है- ठीक है, बाप-बेटे अपनी बात मनवाना खूब जानते हैं।”




      तीखे नाक-नक्श और बालों को करीने से गुँथी हुई कमर तक चोटी लहराने वाली श्रद्धा को देखकर तो वो चकित ही रह गईं।उन्होंने जैसी बहू की कल्पना की थी,श्रद्धा बिलकुल वैसी ही थी,इसीलिए श्रद्धा ने जब उनके पैर छूये तो न चाहते हुए भी उन्होंने ‘सुखी रहो ‘ का आशीर्वाद दिया। लेकिन मन में उनके यह कसक थी कि बहू न तो उनकी पसंद की है और न ही उनकी बराबरी की।विवाह में कोई ताम-झाम नहीं किया गया और सादगीपूर्ण तरीके से वैवाहिक कार्यक्रम पूरे करके वो श्रद्धा को बहू बनाकर ले आई।

         कहने को तो श्रद्धा उनकी बहू थी परन्तु बहू कहकर कभी उन्होंने श्रद्धा को पुकारा नहीं। श्रद्धा ने अपने काम और मृदुल स्वभाव से सबके दिलों में अपनी जगह बना ली थी,फिर भी वह सास के प्यार के लिए तरस रही थी।पानी देने,खाने के लिए पूछने,ये कैसे होगा इत्यादि सवालों के बहाने श्रद्धा अपनी सास के करीब जाने की कोशिश करती तो सावित्री जी अपनी बहू से दूरी बनाने का हरसंभव प्रयास करतीं।

         इसी तरह से एक साल बीत गया।एक दिन अतुल्य पत्नी को लेकर हाॅस्पीटल गया और आकर माँ को बताया कि वे दादी बनने वाली हैं।सबने सोचा कि बच्चे को देखकर श्रद्धा के लिए उनका गुस्सा ठंडा हो जायेगा।उधर सावित्री जी सोच रहीं थी कि अगर बेटी पैदा हुई तो जी भर के श्रद्धा को कोसूँगी पर ऐसा हुआ नहीं।ईश्वर की लीला तो निराली होती है।

         नौ महीने बाद श्रद्धा ने एक प्यारी-सी बच्ची को जन्म दिया और उसे गोद में लेते ही सावित्री जी का गुस्सा न जाने कहाँ गायब हो गया।बच्ची रोती तो बहू को डाँटती और बच्ची हँसती तो कहती कि मेरे जैसी है,मेरी लक्ष्मी है।इसलिए बच्ची का नाम भी उन्होंने ‘निधि’ रखा।




        अब सावित्री जी ज़मीनदारी का पूरा काम पति-पुत्र के हवाले करके दिनभर अपनी पोती के साथ खेलती रहती।निधि के नहलाने, खिलाने,मालिश करने,घुमाने का काम वे खुद ही करती।सास के इस बदले हुए व्यवहार से श्रद्धा को थोड़ी आस बँधी, विशंभर बाबू को भी लगने लगा कि अब सास बहू को ‘मेरी बहू’ का नाम देगी।परन्तु दंभी सावित्री जी श्रद्धा को जहाँ पहले अतुल्य की पत्नी कहकर पुकारती थीं, अब उसे निधि की माँ कहने लगीं।अनाथ श्रद्धा के कान तो अब भी एक रिश्ते का संबोधन सुनने के लिए तरस रहें थें।अतुल्य से वह अपनी पीड़ा छुपाती लेकिन वह जानता था कि श्रद्धा अपनी सास को माँ समान पूजती है और उनका साथ पाने की कितनी ललक है उसे।

         दिन गुज़रते गए, सास-बहू साथ रहकर भी अकेले-अकेले रह रहें थें।एक दिन आराध्या भी अपनी भतीजी को देखने आई, श्रद्धा के व्यवहार और उसकी आवभगत से दोनों पति-पत्नी बहुत प्रभावित हुए।जाते समय आराध्या ने माँ से भाभी की बहुत प्रशंसा की।जवाब में सावित्री जी हाँ-हूँ करती रहीं।तब विशंभर बाबू पत्नी से बोले कि जैसे तुमने अपनी बहू के लिए सपने संजोये थें,वैसे ही श्रद्धा ने भी अपनी सास की एक कल्पना की होगी,और फिर वो तुमसे चाहती ही क्या है,बिना माँ-बाप की बच्ची है,सबको अपना प्यार बाँटती हो, थोड़ा उसे भी दे दोगी तो तुम छोटी तो नहीं हो जाओगी जो कि उसका हक है।तब भी वो कुछ नहीं बोलीं,चुपचाप सुनती रहीं थीं।

     निधि चार बरस की हो गई थी।सावित्री जी उसे स्कूल छोड़ने जा रहीं थीं,फ़र्श पर पानी गिरा था,उन्हें दिखा नहीं और वे फिसल कर गिर पड़ी।बाँयें पैर में मोच आ गई।डाॅक्टर ने उन्हें दस दिनों तक बिस्तर पर ही रहने की सख्त हिदायत दी थी तब श्रद्धा ने अपनी सास की खूब सेवा की थी।उन्हें खाना-दवाई देना,उनको स्पंज कराना,पैरों की मालिश करना इत्यादि कार्य उसने समय पर इतने नियमित रूप से किया कि सावित्री जी दंग रह गईं और तब उन्होंने पति से कहा था कि श्रद्धा तो जादू जानती हैं।विशंभर बाबू तो खुशी-से उछल पड़े, बोले, ” सावित्री, अब तो उससे कह दो कि मेरी..” 

 ” कहूँगी,ज़रूर कहूँगी।परसों आपका जन्मदिन है ना,तब उसे सरप्राइज़ दूँगी।” कहते हुए उनका चेहरा खुशी से खिल उठा था।




      अगले दिन ही विशंभर बाबू ने बेटे को खुशखबरी सुनाई,साथ में हिदायत भी दे दी कि अभी श्रद्धा को मत बताना।बाप- बेटे काम पर चले गये,निधि स्कूल चली गई और घर का काम निबटा कर श्रद्धा भी बाज़ार जाने लगी।सावित्री जी उसे दिखी नहीं तो उसने सुगमा जो किचन में सब्ज़ी काट रही थी,को कह दिया कि मैं बाज़ार जा रही हूँ, माँजी को बता देना।

       दो घंटे हो गये,श्रद्धा घर वापिस नहीं आई।सावित्री जी ने सुगमा से पूछा कि जाते समय श्रद्धा ने क्या कहा था?

सुगमा बोली,” बहू जी एक घंटे में वापिस आने को तो बोली थीं।”

” एक घंटे..अब तो दो घंटे से ऊपर होने को आये..” सावित्री जी को चिंता होने लगी तभी उनके टेलीफ़ोन की घंटी बजी,   ट्रिन- ट्रिन..।उन्होंने फ़ोन उठाया, हैलो बोलने पर उधर से आवाज़ आई- “ये विशंभर जी घर है”

” हाँ-हाँ, मैं उनकी पत्नी सावित्री बोल रही हूँ, क्या बात है?”

 ” आपकी बहू का एक्सीडेंट हो गया है।आप अभी लाइफ़ हाॅस्पीटल आ जाइये।”

” एक्सीडेंट!..हे भगवान!… ये क्या हो गया!” उन्होंने किसी तरह खुद को संभाला, पति को फ़ोन करके कहा कि मैं लाइफ़ हाॅस्पीटल जा रही हूँ, निधि को स्कूल से लेते आइयेगा।

      हाॅस्पीटल पहुँचने पर उन्हें मालूम हुआ कि श्रद्धा सड़क पार कर रही थी, उसके साथ एक दस बरस का बच्चा भी सड़क पार कर रहा था।दूसरी तरफ़ से कार तेज़ी से आ रही थी,श्रद्धा ने बच्चे को बचा लिया लेकिन खुद कार की चपेट में आ गई और …।हाॅस्पीटल लाते-लाते उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।स्ट्रेचर पर खून लगे सफ़ेद कपड़े में लिपटी श्रद्धा ही थी,सावित्री जी की बहू जिससे लिपट-लिपटकर वो रोये जा रहीं थी।




           निधि को लेकर अतुल्य और विशंभर बाबू भी हाॅस्पीटल पहुँचे,सावित्री जी को रोते देख कुछ पूछते,तभी पास खड़ी नर्स ने फिर पूछा, ” आप बताती क्यों नहीं है कि मरने वाली आपकी कौन…”

 ” मेरी बहू है।सुना आपने..मेरी बहू है।श्रद्धा मेरी बहू है।”         सावित्री जी के मुख से वो तीन शब्द निकले जिसे सुनने के लिए उनकी बहू तरस गई थी।अफ़सोस! सावित्री जी आज कितना भी चिल्ला कर कहेंगी कि श्रद्धा मेरी बहू है लेकिन श्रद्धा नहीं सुन सकेगी।

       उनके हृदय-विदारक क्रंदन सुनकर सभी की आँखें डबडबा गई थी।बड़ी मुश्किल से अतुल्य ने माँ को श्रद्धा से अलग किया।हाॅस्पीटल वालों की सभी औपचारिकताएँ पूरी हो गई तो सावित्री जी अपनी बहू को घर ले आईं,उसे नहला-धुलाकर दुल्हन की तरह सजाया, विवाह के समय जो कमी रह गई थी,वो सब भी उन्होंने पूरी की और विदाई के समय तो उनकी रुलाई फूट पड़ी।

           अब सावित्री जी बहू की फ़ोटो के सामने बैठी रहतीं हैं,पोती के साथ खेलती हैं,बातें करतीं हैं और श्रद्धा की तस्वीर देखकर कहतीं हैं, ” ये मेरी बहू है।”

                                — विभा गुप्ता

     #बहू                         स्वरचित 

               यह सच है कि रिश्तों को समय देना चाहिये पर इतना भी नहीं कि हाथ से निकल जाए।पति-पत्नी की तरह ही सास-बहू का रिश्ता भी भगवान के घर से ही बनकर आता है,उसे स्वीकारने में सावित्री जी की तरह देर नहीं करनी चाहिए।

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