मेरे अपने – मंजू मिश्रा 

  किटी पार्टी अपने चरम पर थी। सभी पूरा मजा ले रहे थे। की श्रीमती मेहता का आगमन और सब उनसे मुखातिब हुए – “अरे वाह गजब तैयारी तभी इतनी देर लगी आप तो बिजलियाँ गिरा रही हैं।”

     “अरे कहाँ जी जब से सास ससुर यहां रहने आये हैं,नाक में दम कर रखा है।कहीं जाना हो तो उन्हें बताओ, उनका पूरा इन्तजाम करो तब कहीं निकलो।”

   “सही है यार इन बुजुर्गों के साथ बड़ी समस्या है।मेरी सास तो निकलने से पहले ही पूछने लगती हैं कितनी देर में आओगी।” ये श्रीमती राय थी।

      श्रीमती तिवारी भी पीछे न रह सकी – “अरे मेरे ससुर को को हर घंटे कुछ खाने को चाहिए।”

     इसी प्रकार सभी कुछ न कुछ बुराइयां गिनवा डाली।

    अचानक श्रीमती सुधा बोली – “अरे कल्पना जी आप कुछ नही कह रही हैं,आपके सास ससुर भी तो आप के साथ रहते हैं।”

    “जी मैं क्या कहूँ मेरे पति उनके इकलौते पुत्र हैं वो यहां नहीं तो कहाँ रहेंगे।मेरे सास ससुर दोनो सुबह टहलने जाते है।ससुर जी आकर बगीचे में पानी देते है। सासू माँ मेरी कुछ मदद करती है।

      “फिर दोनों नहा धोकर पूजा पाठ करते है।उसके बाद नाश्ता करके आराम करते हैं।मैं भी अपने काम निपटा कर कभी कभी उनके पास बैठ कर बातें करती हूँ।पापा जी जो भी आवश्यकता हो जैसे फल सब्जी लाना हो ले आते हैं।बच्चे आ जाते है तो उनके साथ व्यस्त हो जाते हैं।कहीं जाना हो तो मैं बच्चों की चिंता से मुक्त रहती हूँ और तो और पिता जी अंग्रेजी के प्रवक्ता थे तो वो बच्चों को पढ़ा भी देते हैं। मैं तो उनके बिना घर की कल्पना ही नहीं कर सकती।”

   “हाँ कभी कभी कुछ बातें ऐसी कह भी देते हैं जो हमें पसन्द नहीं आती फिर भी उन्हें कुछ कह नहीं सकते बड़े हैं हमारे,तो इतना तो चलता है।”

      “वो मेरे अपने हैं,और मेरे घर की धुरी भी।”

  चारों ओर चुप्पी छा गई थी।

मौलिक

अप्रकाशित

मंजू मिश्रा 

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