मायका टूरिस्ट प्लेस – उर्मिला प्रसाद

बात उन दिनों की है जब मां गाँव में रहा करती थीं और हम छह महीने बाद- बाद उनसे मिलने जाया करते थे।

मां को जब खबर होती थी कि मैं ससुराल से  आने वाली हूँ तो जिस दिन से खबर मिलती उसी दिन से वो हमारी राह देखने लगती थी। किस दिन कौन सा  व्यंजन बनेगा , हम मां बेटी  में क्या क्या बातें होंगी,  माँ सब सोच कर रखती थीं ।

जिस दिन हम घर पर आने वाले होते , उस दिन वो सुबह सुबह नहा धोकर बक्से से नई साड़ी निकाल  कर  पहन लेती थीं। सबसे कहती थीं, मेरी बेटी दामाद आने वाले हैं। वे दरवाजे पर बैठ कर दूर से ही नजरें बिछा कर हमारे ऑटो की राह देखती रहती। जब तक उन्हें ऑटो दिख नहीं जाता था, उन्हें संतोष नहीं होता था। कभी कभी तो वे रास्ते के चौराहे पर स्थित परचून की दुकान पर जाकर बैठ जाती थीं। वहाँ आने जाने वाले लोंगो से मेरा नाम लेकर  कहती, आज बिटिया आने वाली है। वहाँ मौजूद छोटे छोटे बच्चे कहते, अरे दादी, बुआ आएंगी तो घर पर ही आएंगी न! तो घर जाकर आराम कीजिये! वो तो आ ही जाएंगी!  मां कहती, जब से लड़की आ नहीं जाती तब से मुझे कुछ अच्छा नहीं लगेगा। थोड़ी ही देर में हम  ऑटो से दनदनाते हुए घर के दरवाजे पर होते। वहाँ दरवाजे पर ही अगल बगल के सारे बच्चे हमे घेर लेते। कोई पानी लाता तो कोई हमारा समान उठा कर रखने लगता। बड़ी भाभियाँ बड़े पिता की बहुये  कहतीं, आ गई दुलारी बेटी…. माता जी सुबह से परेशान हैं। रास्ता देख रहीं हैं। मैं उनकी बातें सुनकर फूली नहीं समाती!

मुझे लगता था कि मैं किसी पिंजड़े से छूट कर अपने लोंगों में आ गई हूँ। फिर शुरू हो जाता इनके घर घूमना, उनके घर बैठक!

भाभियों के साथ तरह तरह की बतकही। आजाद  पंछी की तरह चहकते रहती थी।

उर्मिला प्रसाद

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