मनचाहा साथी – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

       बेला के पति शेखर ने उसे बताया कि मेरा तबादला जबलपुर हो गया है तो वो खुशी-से फूली नहीं समाई,” अरे वाह! वहाँ तो मेरी सहेली प्रभा रहती है..अब तो मैं रोज उसके साथ गप्पे मारा करूँगी…।”

   ” हाँ-हाँ..मारती रहना गप्पे लेकिन पहले जाने की तैयारी तो करो..।” कहकर शेखर ऑफ़िस चले गये और वो अलमारी खोलकर देखने लगी कि क्या पैकिंग करनी है…कैसे पैकिंग करनी है…।

     महीने भर बाद वो जबलपुर शिफ़्ट हो गई।एक दिन उसने प्रभा को फ़ोन किया और बताया कि मैं तेरे शहर में रहने आ गई हूँ तो प्रभा भी खुशी-से उछल पड़ी।फिर दोनों सहेलियों मिलने लगी और स्कूल-काॅलेज़ की यादें ताज़ा करने लगीं।

     एक दिन प्रभा ने बेला को फ़ोन किया,” सुन बेला..मैं कल एक शादी-समारोह में जा रही हूँ, तू भी चल ना…तुझे अच्छा लगेगा और मुझे भी साथ मिल जाएगा।” 

   ” शादी-समारोह!…वहाँ कुछ स्पेशल है क्या!” बेला ने आश्चर्य-से पूछा।

   ” हाँ… स्पेशल तो है..तू आएगी तो देख लेना..दिन का कार्यक्रम है..बता..तू कब आ रही है?” 

  ” अच्छा-अच्छा..10 बजे तक तेरे पास आती हूँ..फिर साथ चलते हैं तेरे..हा-हा..।” फ़ोन डिस्कनेक्ट करके बेला ने शेखर के व्हाट्सअप पर अपने कल के प्रोग्राम का मैसेज़ दे दिया।

      अगले दिन बच्चों को स्कूल भेजकर बेला ने पति को लंचबाॅक्स देते हुए याद दिला दिया कि मैं तो प्रभा के यहाँ जा रही हूँ..आप जल्दी आकर बच्चों को संभाल लीजिएगा।उसने अलमारी से नीले रंग की शिफ़ाॅन-साड़ी निकाल कर पहनी, हाथ में मैंचिंग चूड़ियाँ डाली और चेहरे पर हल्का मेकअप करके दर्पण में खुद को निहारा।फिर अपना पर्स लेकर बाहर निकल गई।रास्ते में उसने फूलों का एक गुलदस्ता लिया और ऑटोरिक्शा में बैठकर प्रभा के घर चली गई।

औलाद का सुख – पुष्पा जोशी

       प्रभा बाहर ही खड़ी थी, दोनों सहेलियाँ उसी ऑटोरिक्शा से समारोह-स्थल पर पहुँच गईं।बेला ने देखा कि वो एक बड़ा हाॅल था जिसे फूलों और रंग-बिरंगी बल्बों से सजाया गया था।आये हुए मेहमान छोटे-छोटे समूहों में खड़े बातें कर रहें थें।एक तरफ़ मंच बना हुआ था, जिस पर आठ सोफ़े रखे हुए थे और दूसरी तरफ़ खाने की व्यवस्था की गई थी।हाॅल के एक दीवार के बीचों-बीच लिखा था ‘ मनचाहा साथी’। 

     बेला हाॅल का मुआयना कर ही रही थी तभी वर-वधू के चार जोड़े एक-एक करके सोफ़े पर बैठने लगे।शालीन लिबास पहने एक अधेड़ दंपत्ति जैसे ही मंच पर आये तो तालियों की गूँज से सभागार गूँज उठा।

     बेला के पूछने पर प्रभा ने बताया कि शहर के उद्योगपति मणिकांत जिंदल और उनकी धर्मपत्नी कांता देवी हैं।दोनों हर साल इसी जगह पर अपने खर्चे पर लव-जोड़े का विवाह कराते हैं।आज भी सामने बैठे चार जोड़ों का विवाह है।वरमाला के बाद लंच और फिर विवाह..।

   ” अरे वाह! जिंदल साहब तो बड़ा पुण्य का काम कर रहें हैं..।” बेला चहकते हुए बोल ही रही थी कि गंभीर स्वर में प्रभा बोली,” पुण्य नहीं..# प्रायश्चित कर रहें हैं।”

   ” क्या मतलब!” 

  ” कुछ नहीं..सामने देख..।” दोनों चुपचाप मंच पर होने कार्यक्रम को देखने लगी।जिंदल साहब ने मेहमानों के स्वागत में दो शब्द कहे, फिर चारों जोड़ों ने एक- दूसरे को जयमाला पहनाई और जिंदल दंपत्ति के चरण-स्पर्श करके आशीर्वाद लिया।जिंदल साहब ने मेहमानों से भोजन करने का आग्रह किया और मंच से उतर कर पति-पत्नी अतिथियों का स्वागत करने लगे।बेला का हाथ पकड़कर प्रभा बोली,” चल..हम लोग भी खाना खा लेते हैं..फिर इत्मीनान से बैठकर शादी देखेंगे।”

   ” वो जिंदल साहब का…।” 

” खाने की प्लेट ले ले..तब बताती हूँ।”

        मेज़ पर प्लेट रखकर बेला बोली,” तो बता..उनसे ऐसी क्या गलती हो गई जो…।”

    कुछ याद करते हुए प्रभा बोली,” मणिकांत जिंदल और कांता देवी की एक बेटी थी जिसका नाम था ईशा।दोनों उसे अपनी पलकों पर बिठाकर रखते थें।घर में लक्ष्मी की कमी तो थी नहीं..बेटी के मुँह खोलने से पहले ही वो उसकी फ़रमाईश पूरी कर देते थें।

      ईशा स्कूल जाने लगी और अच्छे अंकों से पास होती हुई उसने बारहवीं की परीक्षा पास की और फिर काॅलेज़ में दाखिला ले लिया।बीए के सेकेंड ईयर में उसका परिचय मीनू नाम की लड़की से हुआ।मीनू का भाई निशांत जो बैंक परीक्षा की तैयारी कर रहा था, से ईशा दिल लगा बैठी।निशांत भी उसे चाहने लगा।दोनों कभी पार्क तो कभी रेस्ट्राँ में मिलने लगे।इसी बीच निशांत को एक प्राइवेट बैंक में नौकरी भी मिल गई।कहते हैं, इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपते।

अंश – मंजू तिवारी

      छुट्टी का दिन था।ईशा मीनू से मिलने का बहाना करके घर से निकल रही थी कि जिंदल साहब ने उसे टोक दिया,” रामलाल(ड्राइवर) बता रहा था कि तुम आजकल किसी लड़के से मिलती रहती हो..।”

  ” वो पापा…मैं..।” उसकी आवाज़ लड़खड़ाने लगी।बस उसी दिन से उसका घर से निकलना बंद हो गया।जिंदल साहब को अपने रुतबे और पैसे पर बहुत अभिमान था।वो अपनी बराबरी का दामाद लाना चाहते थे।”

   ” निशांत तो बैंक में नौकरी करता था, उसकी सैलेरी भी अच्छी..।” बेला ने टोका तो प्रभा बोली,” लेकिन था तो वो एक किसान का बेटा..।

  ” फिर..।” 

  ” फिर क्या…ईशा ने अपनी माँ से विनती की कि निशांत के बिना मैं जी नहीं पाऊँगी…किसी दूसरे के साथ मैं खुश नहीं रह पाऊँगी..।उस वक्त तो कांता देवी को भी अपनी नाक बचानी थी, उन्होंने बेटी की बात को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया।

    ” ओह..बेचारी…।

    ” बेटी कहीं उनकी नाक न कटा दे..इस डर से जिंदल साहब ने शीघ्र ही शहर के जाने-माने बिजनेस मैन के बेटे सिद्धांत के साथ ईशा का ब्याह करा दिया।लेन-देन में उन्होंने कोई कमी नहीं की थी लेकिन फिर भी बेटी के लिए सुख नहीं खरीद पाए।”

   ” क्या मतलब!” बेला चौंकी।

  ”  ईशा का पति शराबी तो था ही, उसके अन्य लड़कियों से गहरे संबंध भी थे।देर रात घर आना या कभी न भी आना उसकी आदत थी।ईशा के सास-ससुर बेटे का ही साथ देते थे।जब वो मायके गई तब कांता देवी को सच्चाई बताई।सुनकर उन्होंने ईशा को समझाया कि चिंता मत कर..कुछ दिनों में सिद्धांत अपनी ज़िम्मेदारी समझने लगेगा।

ईशा उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हुई।इसी बीच एक दिन मीनू उसके घर आई।जब पता चला कि ईशा की शादी हो गई तो उसे खुशी हुई लेकिन अपने भाई के बारे में सोचकर दुख भी हुआ।

      वक्त गुजरता गया और ईशा की ज़िंदगी बद से बदतर होती चली गई।अब तो उसके शरीर पर चोट के निशान भी दिखाई देने लगे…मायके जाना तो उसने बहुत पहले ही छोड़ दिया था।फ़ोन पर भी कह देती कि सब ठीक है।उधर जिंदल दंपत्ति अपने दामाद की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।इसी तरह से आठ महीने बीत गए।फिर एक दिन…।”

औलाद – पुष्पा पाण्डेय

   ” एक दिन क्या हुआ?” बेला की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।

      प्रभा ने एक गहरी साँस ली और बोली,” ईशा ने अपनी मन की व्यथा और सारी तकलीफ़ों को एक कागज़ पर उतार कर एक विश्वासी के हाथ अपनी माँ को भेज दिया और खुद अपने कमरे की पंखे से लटक गई।”

    ” हे भगवान! ” बेला की आँखों में आँसू आ गये।प्रभा की आँखें भी नम हो आई थी।थोड़ा रुक कर बोली,” पति-पत्नी बेटी की चिता से लिपट-लिपटकर बहुत रोए।दोनों अपने को कोसते रहे कि बेटी के मन की बात क्यों नहीं सुनी…क्यों उसे दरिंदों के हवाले कर दिया..।जिंदल साहब ने तो खुद को कमरे में ही कैद कर लिया था।फिर पत्नी के समझाने पर उठे और ईशा के ससुरालों पर केस किया।दूसरा पक्ष भी कमज़ोर तो था नहीं लेकिन इन्होंने भी बेटी को न्याय दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।ईशा के हाथ से लिखा हुआ नोट उसके ससुराल वालों को जेल की हवा खिलाने के लिए बहुत था।”

   ” ओह, कितना दुखद है।लेकिन ये मनचाहा..का क्या चक्कर है?” 

    ” बेटी को उसकी पसंद का साथी न दे पाने का जो गुनाह उनसे हुआ था, उसी का# प्रायश्चित करने के लिये उन्होंने तय किया जो लड़के-लड़कियाँ अपनी पसंद से शादी करना चाहते हैं लेकिन समाज अथवा परिवार बाधक है तो वो स्वयं उनका विवाह करायेंगे।’मनचाहा साथी’ बैंक्विट हाॅल उसी कार्य को समर्पित है।

वो लड़की और लड़के के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करके ही उनकी शादी कराते हैं।साथ ही, अभिभावकों को भी समझाते हैं कि वो बच्चों की पसंद और उनकी खुशी को महत्त्व दे..अपनी इच्छा उन पर न थोपे..।जानती है..,जिंदल दंपत्ति नवविवाहित जोड़े को अपनी गृहस्थी शुरु करने के लिये आर्थिक सहायता भी करते हैं।

     अब ईशा को तो वापस नहीं ला सकते लेकिन कोशिश करते हैं कि किसी और बेटी का ऐसा दुखद अंत न हो।चल..बहुत बातें हो गई..मुहूर्त का समय हो रहा है..विवाह देखकर घर चलते हैं।” अपनी कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखते हुए प्रभा बोली और दोनों विवाह-मंडप की ओर प्रस्थान करने लगीं।

      विवाह संपन्न होने के बाद बेला अपने घर वापस जा रही थी तब उसे याद आया कि उसकी ननद नंदा भी किसी को चाहती थी।लेकिन जब शादी किसी और के साथ तय हुई तब नंदा ने उससे कहा था,” भाभी…मैं उनके बिना जी न सकूँगी।” उस वक्त तो उसने ननद की बात पर ध्यान नहीं दिया था लेकिन प्रभा की बातें सुनकर अब सोचने लगी कि ईशा की तरह कहीं नंदा भी…।

नहीं-नहीं..।घर पहुँचते ही उसने शेखर को नंदा के बारे में बताया।शेखर ने अपने पिता से बात की..और नंदा से पता लेकर उस लड़के के घर गए..बातचीत की और खुशी-खुशी दोनों का विवाह करा दिया।विदाई के समय जब नंदा ने उसे ‘ थैंक यू भाभी ‘ कहा तो उसे बड़ा सुकून मिला कि उसने दो प्यार करने वालों दिलों को मिला दिया है।

                                      विभा गुप्ता

# प्रायश्चित                  स्वरचित, बैंगलुरु 

              आज की पीढ़ी बहुत समझदार है।वो अपने माता-पिता के विचारों का सम्मान करती हैं।बड़ों को भी अपने बच्चों की पसंद का ख्याल रखना चाहिए।जिंदल दंपत्ति अपनी बेटी की पसंद को स्वीकार कर लेते तो आज ईशा उनके पास होती..उन्हें कोई प्रायश्चित नहीं करना पड़ता…।

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