औलाद – पुष्पा पाण्डेय

काशीनाथ जी के दिन का अधिकतम समय बरामदे के सामने लगे आम्र-वृक्ष के नीचे ही एक लकड़ी की चौकी पर बीतता था। जाड़े के दिन में तो  सूर्योदय के साथ ही चले आते थे और लगभग सारा दिन वहीं निकल जाता था। बीच-बीच में वृक्ष से छाया भी उपलब्ध हो जाती थी। नौकरी के शुरुआती दिनों में ही उन्होंने शहर के बाहरी इलाके में कुछ जमीन खरीद पेड़-पौधे लगा दिए थे। सचिवालय में नौकरी करते थे। नौकरी से निवृत होने के बाद उसी जमीन में घर बना शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे।

बच्चे तो रोजी-रोटी के लिए बाहर चले गये, लेकिन आज ये वृक्ष उनके साथ ही है। आस-पास के लोग भी वहीं आ जाते थे। खूब महफिल जमती थी। जब-तक पत्नी थी तो चाय- पानी भी मित्रों तक पहुँच जाती थी, लेकिन पत्नी अधिक दिन तक साथ न दे सकी।अब तो बनवारी के सेवा-भाव से ही दो जुन रोटी और चाय मिल जाती है।————

बनवारी गाँव के पुराने नौकर का बेटा था। जन्म से ही गूंगा था। उसके पिता की मौत के बाद उसे अपने घर गाँव से लाए थे। घरेलु काम में पत्नी को हाथ भी बटा देता था और कुछ पैसे माँ को गाँव भेजता था। माँ दामा की मरीज थी। कुछ दिनों बाद जब वह भी चल बसी तो बनवारी काशीनाथ जी का होकर रह गया। 

काशीनाथ जी शान्त स्वभाव के संतुष्ट व्यक्ति थे। हमेशा पठन-पाठन में ही दिन व्यतीत करते थे। पत्नी के जाने के बाद तो बनवारी ही पूरा घर सम्भाल रखा था। बनवारी की निष्ठा और समर्पण को देखकर काशीनाथ जी अब उसके बारे में कुछ सोचने लगे थे।

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एक दिन काशीनाथ जी अपने एक वकील मित्र को बुलवाए।

“क्या बात है काशीनाथ जी?

मुझे फौरन बुलाए?”

“आपसे एक सलाह करनी थी।”

“अच्छा! 

काशीनाथ जी, आज के युग में ये वृक्ष की छाँव और शीतल बयार कहाँ सबको मिलेगी?आप बहुत खुश नसीब हैं।”




कहते हुए पास में रखी कुर्सी पर बैठ गये।

काशीनाथ जी ने जो कहा वो सुनकर वकील साहब को थोड़ा आश्चर्य हुआ।

उन्होंने कहा-

“क्या आपके बच्चे मान जायेंगे।”

काशीनाथ जी  अपने मन की पूरी बात वकील साहब से कह डाले।

कहने को तो दो बेटे हैं, लेकिन मैं अपनी पाँच औलादें मानता हूँ। बनवारी के साथ-साथ ये दो वृक्ष भी मेरी औलादें जैसी ही हैं। इसी ने अपनी छाँव में मुझे पनाह दिया है। बनवारी सगा बेटा से भी बढ़कर है। मेरे दोनों बेटे बनवारी के कारण ही अपने पिता से निश्चिंत हैं। अपनी माँ की मौत के बाद ही मुझे अपने पास ले जाना चाहते थे, लेकिन मैं अपनी जड़ से दूर नहीं रह सकता था। 

यह बनवारी हमारी हिम्मत और सहारा था।

मैं घर का एक हिस्सा बनवारी के नाम करना चाहता हूँ और कुछ पैसे खर्च कर  एक छोटी दूकान खोलवा दूँ जिससे आगे उसका भविष्य सुरक्षित हो जाए। किसी गरीब घर की या कोई  विधवा लड़की भी मिल जाती तो  इसका घर बस जाता। बच्चे यदि कभी आयेंगे भी तो घर का बड़ा हिस्सा तो उनका रहेगा ही।

             वकील साहब उनकी बात से काफी प्रभावित हुए। उनकी भूरि-भूरि प्रसंसा करने लगे।  काशीनाथ जी बच्चों को भी अपने मन्तव्य से अवगत करा दिए। बेटों को कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन बहुओं को खटक रहा था, क्योंकि………..

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बनवारी को जब ये सब मालूम हुआ तो वह काशीनाथ जी के पाँव में गिरकर रोने लगा। जुबान से तो कुछ बोल नहीं सकता था, आँसुओं से उनका चरण पखारने लगा। बनवारी के सिर पर हाथ फेरते हुए काशीनाथ जी ने एक लम्बी साँस लेते हुए बोले-

आज मैं बहुत हल्का महसूस कर रहा हूँ। देखो तुम्हारी मालकिन भी दूर खड़ी मुस्कुरा रही है।

स्वरचित और मौलिक रचना

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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