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मैं भी तो उसकी माँ हूँ -नीरजा कृष्णा

“मम्मी जी, मैं जाऊँ क्या? वहाँ प्रोग्राम शुरू होने वाला है। दो बार फ़ोन आ चुका है।”

“अरे हाँ बेटा! मैं तो भूल ही गई थी। ड्राइवर आया या नहीं?”

“जी मम्मी, वो आ गया है।”

माधवी जी की परम मित्र सुलेखा जी उन सबसे मिलने आई हुई थीं। वो इन सास बहू की बातचीत को बहुत आश्चर्यचकित होकर सुन रही थीं।  शालू के जाने के बाद उनसे चुप नहीं रहा गया,”माधवी, ये क्या कर रही हो..अभी गुड़िया को गए कितने दिन हुए हैं। तुमने तो बहू को प्रोग्रामों में जाने की भी छूट दे दी है। सोच तो तुम्हारी ऊँची है पर कुछ समाज के नियम कायदे भी तो होते हैं।”

सुन कर माधवी जी तैश में आ गई,”सुलेखा, कौन से समाज की बात कर रही हो? जब गुड़िया की बीमारी में हम सब तिल तिल करके जल रहे थे, तब इसी समाज ने बेचारी शालू को कितने घाव दिए थे….मैं भूली नही हूँ।”

सुलेखा जी समर्थन में चुप हो गई  पर फिर बोली,”सच है, गुड़िया तो बस एक जिंदा माँस का लोथड़ा ही तो थी। उसकी देखभाल में बेचारी बहू ने तो जैसे स्वयं की आहुति ही दे दी थी।”



“हाँ सुलेखा! वो उस समय गुड़िया की ममतामयी माँ ही तो थी। उसने अपने तरीके से माँ होने के दायित्व निभाए। हमने भी उसकी भावनाओं का आदर करते हुए कभी रोका टोका नही पर अब मैं भी तो उसकी(शालू की) माँ हूँ। उसके मृतप्राय शौक  पूरा करने में सहायक बन रही हूँ….उसे फिर से जीवन जीते हुए देखना चाहती हूँ। यहाँ मुझे किसी बात की परवाह नहीं है… एक माँ होने का कर्तव्य निभाने में तुम मेरी  सहायता करो।”

“सच माधवी, तुमने तो मेरी आँखें ही खोल दी हैं। पहले मुझे कितना अजीब लग रहा था…सच कहूँ तो बुरा लग रहा था..पर अब तुझ पर , तेरी दोस्ती पर गर्व हो रहा है।”

“सुलेखा, तेरे से ज्यादा मेरा हमराज़ और हमदर्द कौन है?मेरी बच्ची ने एक दिन भी सुख का नही देखा। ताना ही सुना कि  ऐसा लोथड़ा पैदा किया है।  वो बेचारी मुझसे लिपट कर कितना रोती थी पर अब गुड़िया को मुक्ति मिल गई है ।मैं शालू को फिर से खुश रहने के लिए प्रेरित कर रही हूँ….आखिर मैं भी तो उसकी माँ हूँ।

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