लुटेरा कहीं का -मीनाक्षी चौहान

दो घन्टे के सफ़र में चार घन्टे लगा दिए, खटारा बस ने। पत्नी और बच्चों के साथ उनकी मौसी के घर से वापस आ रहा था। अपने शहर पहुँचते-पहुँचते रात के ग्यारह बज गए। दोनों बच्चे भूखे और निंदियासे हो रहे थे। एक बड़ा सा रेस्टोरेंट दिखा भी पर उनमें जाने की इजाजत जेब ने नहीं दी और जो छोटे ढ़ाबे-होटल थे वो अब तक बन्द हो चुके थे। अपने बजट वाले होटल की खोज बीन जारी थी। अच्छा, इन मामलों में बच्चों का दिमाग बड़ा तेज़ चलता है बोले, “पापा घन्टाघर के सामने मधुर होटल खुला होगा, वहीं चलते हैं।”

“वो…….लुटेरा कहीं का……नहीं।” मेरे ये कहते ही तीनों ने मुहँ बना लिया। मन तो मेरा बिल्कुल नहीं किया उस लुटेरे के यहाँ जाने का। आस-पास के सारे छोटे-मोटे होटलों में सबसे महँगा खाना उसी का होता है। भीड़ क्या मारामारी होती है, खाने के लिए। एक बार तो मेरी भी तू-तू, मैं-मैं हो गई थी खाने में देरी को लेकर, फिर कभी गया ही नहीं पर अब तो मजबूरी थी।

वहाँ पहुँचे देखा, बाहर पटरी पर ही नौकर ये बड़े-बड़े कुकर, भिगोने, थाल रगड़ने में जुटे हुए थे। अंदर झाँका टेबल के ऊपर कुर्सियाँ औंधी पड़ी थी फिर भी पूछ बैठा, “खाने का बन्दोबस्त हो जाएगा क्या?”

“नहीं जी अब तो सब खत्म हो गया।” नौकर मेरी तरफ देखे बिना ही भिगोना रगड़ते-रगड़ते मुँह बना के बोला। मलिक करेला तो नौकर नीम चढ़े। जानता था यही होगा। चल दिए आगे तभी……पीछे से किसी ने आवाज़ दी। ” रुकिये” मुड़ कर देखा होटल का वही लुटेरा मालिक पुकार रहा था। “खाने का प्रबंध हो जाएगा, आप लोग अंदर बैठो।”

वापस गये, टेबल से चार कुर्सियाँ उतार कर आमने-सामने लगा दी गईं थीं। हम चारों बैठ गये।

“इस समय बस डोसा ही बन पायेगा” मलिक बोला।

” कोई नहीं, चलेगा। चार प्लेट डोसे की लगवा दीजिये।” मैंने कहा।

खाने के बाद मैंने बिल माँगा। पता था मुझे इस समय एक्स्ट्रा चार्ज तो वसूलेगा ही।

“जी कैसा बिल?” अपने नौकरों को हड़काते हुए वो मुझसे बोला।

“चार डोसों का बिल।”

अब वो अंदर आ गया। बोला, “देखो जी, ना तो मैं अब गल्ले पर बैठा हूँ और ना ही होटल खुला हुआ है। आप इस समय मेरे ग्राहक नहीं मेहमान हो और मेहमानों से कोई पैसे नहीं लेता।” मेरे लाख कहने पर भी वो नहीं माना।

पेट भर गया था, मन भी भर आया। मन ही मन बोल रहा था उसे, ‘लुटेरा कहीं का’…….इस बार दिल जो लूट लिया था उसने मेरा।

मीनाक्षी चौहान

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