माँ – कमलेश राणा

क्यों आज इतनी जल्दी खाना क्यों बन रहा है शुभा।

वो क्या है न माँ निधि के घर टी वी आया है तो उसने मुझे बुलाया है चित्रहार देखने इसीलिए जल्दी जल्दी काम निपटा रही हूँ वैसे आप भी चलो न इन दिनों उसकी दादी आई हुई हैं गांव से उनसे भी मिलना हो जायेगा।

बड़ा मन था कि तुम्हारे पापा टी वी ले लें पर क्या करें ऋतु की शादी में देना जरूरी है समधी जी की पहले ही खबर आ गई है कि टी वी तो चाहिए ही अब इतनी गुंजायश नहीं कि दो दो ले सकें.. रेवा लंबी सांस खींचते हुए बोली

उन दिनों नया नया टी वी लांच हुआ था बहुत क्रेज़ था लोगों में देखने का क्योंकि अब तक सिर्फ टॉकिज़ में जाकर ही फिल्म देख पाते थे अब सब घर बैठे सुलभ होना किसी सपने से कम नहीं था यूँ समझ लीजिये कि चित्रहार और फिल्म देखने के लिए हम सब जल्दी जल्दी काम निपटा लेते थे। वैसे भी ग्रुप में डिस्कशन करते हुए किसी भी प्रोग्राम को देखने का आनंद ही अलग है अकेले में वह आनंद कहाँ!!! 

अभी चित्रहार आने में देर थी धीरे- धीरे दर्शकों की संख्या में इज़ाफा होता जा रहा था और सबकी चहक भरी आवाज वातावरण को खुशनुमा बना रही थी सबसे ज्यादा खुशी अपने हमउम्र से मिलने की थी। सबने अपनी अपनी टोली बना ली। गाने के साथ उसके नायक नायिका उनके हाव भाव पर सभी अपने हिसाब से प्रतिक्रिया देने लगे। 

तभी साधना का एक गाना चलने लगा.. कहीं दीप जले कहीं दिल.. गाने की पृष्ठभूमि रोमांचक थी जिसे देखकर बहस छिड़ गई कि भूत होते हैं या नहीं.. हर कोई अपनी बात को सही साबित करने की पुरजोर कोशिश कर रहा था। 

तख्त पर बैठी निधि की दादी सबकी बातें बड़े ध्यान से सुन रही थी अचानक ही वह बोली.. पारलौकिक शक्तियां होती हैं मैंने देखी हैं। 

अब तो सबके कान खड़े हो गये और उनके अनुभव को जानने सुनने के लिए हर कोई उत्सुक हो गया। सब चिरौरी करने लगे… दादी सुनाओ न। 




अब तक चित्रहार भी समाप्त हो गया था निधि ने लपक कर टी वी बंद कर दी ताकि पूरे ध्यान से उनकी बातें सुन सकें।

उन्होंने बोलना शुरू किया.. उन दिनों निधि के दादा जी दिल्ली नौकरी करने चले गए थे । घर में बच्चों के साथ मैं अकेली रह गई । मेरी सासू माँ इन्हें मात्र पांच वर्ष का छोड़कर ही परलोक सिधार गई थी। मुझे अकेले बहुत डर लगता था पर इन्होंने मेरी एक न सुनी नया खून था, नई उमंगें, नया जोश और फिर दिल्ली की चकाचौँध.. खींच ले गई इन्हें।

 हफ्ते में एक बार रविवार को ये घर आते थे। दिल्ली से गांव आने में बस दो घंटे ही लगते थे तो रविवार को सुबह आठ बजे तक ये आ ही जाते थे। 

उस दिन मैं इंतज़ार करती रही, दोपहर के दो बज गये पर इनका कोई अता पता नहीं था सोचा कोई काम लग गया होगा। सर्दियों के दिन थे मैं अपनी पड़ोसन के आंगन में धूप सेकने चली गई। वह अपनी ताई के यहाँ जाने को तैयार खड़ी थी जो दो घर छोड़कर ही रहती थी तो मैं भी उसके साथ चली गई। 

सब धूप में बैठे गप्पें लगा रहे थे तभी दरवाजे पर एक अच्छी लंबी तगड़ी महिला खड़ी दिखी उसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था। उसने कमीज पहनी हुई थी पश्चिमी यू पी में उन दिनों अधिकांश महिलाएं ब्लाऊज़ के स्थान पर कमीज पहनती थी, माथे तक घूंघट था उसने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया… न जाने क्या था उसके इशारे में कि मैं तुरंत बिना किसी से कुछ कहे उठकर चली आई। 

दादी की कहानी आगे बढ़ रही थी और हम सब डर के मारे कि आगे न जाने क्या होगा एक दूसरे से चिपके जा रहे थे। मानो सारा शरीर ही कान बन गया हो जरा सी भी आहट पर उछल जाते। 

फिर क्या हुआ दादी… 

फिर मैं मंत्रमुग्ध सी उनके पीछे पीछे अपने घर चली आई। घर आकर वो बोली.. बहुत पंचायत करने का शौक है तुम्हें.. घर में लड़का भूखा बैठा है और तुम्हारे अते – पते ही नहीं है … 

कहकर उन्होंने चूल्हे के पास रखी अल्युमिनियम की पतीली उठाई और मुझे मारना शुरु कर दिया। अब तो घर में मेरी घुटी घुटी आवाज़ सुनाई दे रही थी और सुनाई दे रही थी पतीली की टनाटन और दिखाई दे रहे थे मेरे बदन पर पतीली की कालिख के निशान जिनमें शरीर पर पड़े नील छिप गए थे। 

वो मुझे मारती जा रही थी और कहती जा रही थी.. अब कभी मेरे बच्चे को भूखा छोड़कर घूमने जायेगी??? 

मुझे समझ नहीं आ रहा था ये कौन है और किसकी बात कर रही हैं क्योंकि मैंने तो बच्चों को सुबह समय पर ही खिला पिला दिया था पर उन्होंने मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया। 

अचानक मेरी नज़र टेबल पर रखे बैग पर पड़ी… अरे.. ये कब आ गये। 

तभी इन्होंने.. कहाँ चली गई थी.. कहते हुए घर में प्रवेश किया। 

जल्दी खाना दे दो भूख के मारे दम निकली जा रही है। 

मेरी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे तभी इनकी नज़र मुझ पर पड़ी… अरे यह क्या हाल बना रखा है तुमने… कुछ तो बोलो क्या हुआ और यह काले निशान कैसे हैं तुम्हारे पूरे शरीर पर। 

पता नहीं वो कौन थी, मुझे बुलाकर लाई और फिर यह कहते हुए कि मेरा बेटा भूख से तड़प रहा है और तुम गप्पें लगाती घूम रही हो.. बहुत मारा मुझे। 

पतीली में पड़े दोंचे इस बात की गवाही दे रहे थे। 

तभी मेरे अचानक वहाँ से चले आने पर चिंतित होकर मेरी सहेली और उसकी ताई भी आ गई और मेरी हालत देखकर पूछने लगी कि जो तुम्हें बुलाकर लाई क्या तुम जानती हो उन्हें। 

मैंने कहा… नहीं।

ताई और ये समवेत स्वर में बोले.. उनका हुलिया कैसा था। 

मैंने बताया.. अच्छी लंबी और तंदुरुस्त युवती थी वो। हल्का सा घूंघट निकाले हुए थी और कमीज पहने थी। 

ताई बोली.. वो सास थी तेरी.. अपने बेटे की भूख बर्दाश्त नहीं हुई उन्हें.. इसे उन्होंने तुम्हारी लापरवाही समझा और अपनी बेबसी में बेचारी कुछ कर नहीं पा रही थी तो तुम्हें दंड दिया ताकि भविष्य में तुम हमेशा इस बात का ध्यान रखो। 

माँ आखिर माँ होती है जीते जी तो वह अपने बच्चों के लिए सब कुछ करती ही है पर मरने के बाद भी उसकी आत्मा उनके आसपास ही रहती है आज यह सिद्ध कर दिया उन्होंने। 

पतिदेव की आँखों से आँसू अनवरत बह रहे थे और यह सुनकर मेरी भी आँखें आनंद के आँसू बहा रही थी कि चलो किसी भी रूप में सही मुझे उनके दर्शन तो हुये अब मैं अकेली नहीं हूँ उनका साया हरदम मेरे साथ है। अब इनके जाने के बाद मुझे कभी डर नहीं लगा। 

अब माँ जो थी मेरे साथ।

(दोस्तों यह एक संस्मरण है एक सच्ची घटना इसे शब्द देने में कहाँ तक सफल हो पाई मैं यह जरूर बताईये) 

#5वां_ जन्मोत्सव

स्वरचित एवं अप्रकाशित

कमलेश राणा

ग्वालियर

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