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दर्द – गीता वाधवानी

अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी मृदुल स्वभाव वाली संध्या को कहीं ना कहीं यह आभास था कि उसका जीवन अब शेष नहीं है। 

बिस्तर पर पड़े पड़े, उसे कुछ दिन पूर्व की बात स्मरण हो आई, जिस दिन उसके पति से उसकी छोटी सी बात पर कुछ कहासुनी हो गई थी और वह गुस्से में कड़वी बातें बोल कर अपने कार्यालय चले गए थे और संध्या स्वयं शाम तक वही बातें सोच सोच कर रोती जा रही थी। उसकी हिचकियां बंद होने का नाम नहीं ले रही थी। वह बहुत ज्यादा तनाव में थी और उसके पति के द्वारा कही बातों का उसे यकीन नहीं हो रहा था। 

    विवाह के कई वर्ष उपरांत भी जब संध्या को संतान नहीं हुई, तब सारे रिश्तेदारों ने उसे ताने मार कर बांझ कहकर पुकारा। ऐसे में उसके पति ने ही उसे हमेशा बचाया और मजबूती से उसके साथ खड़े रहे। कभी संतान के बारे में कोई शिकायत नहीं की और आज गुस्से में एक पल में उनके हृदय में छिपी बात अचानक से प्रकट हो गई थी और संध्या का भ्रम एक झटके में टूट गया था। 

उस दिन संध्या ने सुबह अपने पति सुशील से कहा था-“कल मेरी सहेली ममता आई थी, हमने बहुत देर तक बातें की। उससे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा। अब उसने मुझे कहा है कि किसी दिन मेरे घर आओ।” 

सुशील -“कोई जरूरत नहीं है फालतू लोगों के घर जाने की। तुम्हारी सहेलियां मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। तुम्हें ना जाने कौन कौन सी गलत पटटी पढ़ाती है।” 

संध्या-“आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? मेरी सहेलियां ऐसी नहीं है और अगर कोई कुछ कहता भी है तो क्या मेरे पास अपनी समझ नहीं है सोचने के लिए। क्या मैंने कभी कुछ ऐसा किया है जो आपको मेरी सहेलियों के बारे में ऐसा सोचने पर मजबूर कर रहा है।” 

सुशील गुस्से में चिल्ला कर बोला -देखा, यही है असर सहेलियों से मिलने का, बस शुरू हो गई, जवाब पर जवाब देती जा रही है और वह भी उल्टा।” 

संध्या-“इतना नाराज क्यों हो रहे हो, मैंने गलत क्या कहा है?” 

सुशील-“बस अपनी जुबान को चलाती रहना। यह नहीं कि पति को गुस्सा आ रहा है तो मैं चुप हो जाऊं। मेरा अपमान करना ही आता है। आज तक तुमने और किया ही क्या है, आज तक मैंने तुमसे पाया ही क्या है, एक संतान तक तो दे ना सकी बेकार औरत।” 

धड़ाम! दरवाजे को जोर से ठोकता हुआ सुशील ऑफिस चला गया। 

संध्या पर मानो तो बिजली गिर पड़ी थी। पति के कोई शिकायत ना करने का भ्रम टूट चुका था। सुशील का कुछ दिनों से हर बात में चिड़चिड़ करने का कारण आज उसे समझ में आ रहा था। 

और संध्या रोते रोते घर के काम निपटाती  रही। शाम को सुशील के घर लौटने पर शांत दिखने का नाटक करती रही। जबकि उसके हृदय में तूफान उठा हुआ था। उसे कोई पीड़ा नहीं हुई, सारी बातें भूल चुकी है, कोई दुख नहीं हुआ, आखिर ऐसा नाटक कितने दिन चलता। 

1 सप्ताह में ही भयंकर हृदयाघात हुआ। 

परिणाम! अस्पताल का बिस्तर और ढेरों दवाइयां, ढेरों परीक्षण। किंतु संध्या हो इस बात का आश्चर्य था कि सुशील का वह एक वाक्य हृदयाघात के दर्द से भी अधिक दर्दीला था। पूरी जिंदगी जमाने से लड़ने वाली संध्या, अपने पति के एक छोटे से वाक्य से हार गई थी। 

अपने पति के इस वाक्य को याद करते करते उसकी आंखों से फिर आंसू बह निकले और उसने सदा के लिए आंखें मूंद ली। 

अप्रकाशित, स्वरचित 

गीता वाधवानी दिल्ली

#5वां_जन्मोत्सव

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