“लंपट” – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

सुरसती चौधराइन ने करवट बदली तो खाट खाली खाली सी दिखयी दी. टटोलकर देखा तो भरतार कीरत राम चौधरी खाट पर नहीं था. भोर होने में अभी देर थी. न चिड़ियों की आवाज न मुल्ला की अजान.

कुछ देर ऐसे ही अलसाई सी पति की बाट जोहती रही मगर शंका का काला नाग दिल पर कुंडली मारकर फुंकारने लगा. उठकर ढिबरी जलाई और बाहर निकलकर आसमान के दिशा बदलते तारों को देखा. सबेरा होने में ज्यादा देर नहीं थी.

पड़ोसन सुलखना ठीक ही कहती थी. जब से जमना का खसम मरा है, डायन सी हो गयी है. न जाने कौन से टोने टोटके करके गाँव के सबसे बांके नौजवनों को फंसाती है और मकड़ी की तरह चूंस कर फेंक देती है. जरूर जमना ने ही मेरे मरद को फंसा लिया है.

सुरसती विक्षिप्त सी हालत में आंगन में चक्कर लगाने लगी. दिल में एक तूफ़ान सा मचा था. अब क्या होगा. मेरी तो घिरस्ती ही उजड़ जाएगी. डायन पैसा धेला और मेरे मरद की जवानी, सब लूट लेगी. निचोड़कर फेंक देगी घर से बाहर. अरे चुड़ैल मेरा ही घर मिला था उजाड़ने को. कुछ तो करना पड़ेगा. आज नहीं तो कभी नहीं.

अमावस की सी अंधेरी रात में बिखरे बाल, फैला हुआ काजल, अस्तव्यस्त कपड़े और पांव में टूटी सी चप्पल पहनकर सुरसती घर से निकल पड़ी. काली अंधेरी रात में डरावनी सी कच्ची गलियों के चक्करदार मोड़ों से गुजरकर जमना के टूटे खँडहर से मकान के सामने खड़ी होकर कुछ पल आहट सी लेती रही.

मुखौटा – डॉ. पारुल अग्रवाल

किसी मरद और औरत के खुसफुसाने की आवाज तो आ रही थे. बस फिर क्या था. आगे बढकर दरवाजे को एक धक्का दिया तो भीतर से शंकित सा दबा घुटा सा स्वर सुनायी दिया “कौन है”.

एक और धक्का दिया तो जर्जर सी सांकल उखड़ कर गिर गयी और दरवाजा खुल गया. धुंधले से उजाले में साफ़ दिखाई दिया कि कोई पीछे की दीवार कूदकर भाग गया है.

सुरसती के तन बदन में आग लग गयी. जरूर वो मेरा मरद ही होगा. कद काठी तो वैसी ही लग रही थी. सत्यानास हो इस वेश्या का. उजाड़ने को मेरा ही घर मिला था. खूब खरी खोटी सुनायी जमना को. गलियां दीं, लानत मलानत सुनायी और बेबस सी होकर चेतावनी देकर निकलने लगी तो जमना ने घुटी सी आवाज में कहा “अपने आदमी को खूंटे से बांधकर रखा नहीं जाता और सारा दोस हमें देती हैं चौधरन”.

मन तो हुआ कि अभी इसका झोटा पकड़कर बाहर खींच ले मगर गाँव भर में बदनामी हो जाएगी.

सुरसती की देह क्रोध से जल रही थी. दिमाग में तूफ़ान सा उठ रहा था. कुछ भी हो, ये काँटा तो निकलना चाहिए वर्ना, भिरगू कश्यप की तरह एक दिन घर के बासन भी बिक जायेंगे और बर्बाद होकर दरबदर की ठोकरें खाने को मजबूर होना पड़ेगा. कहाँ जाऊं.

क्या करूँ. पुलिस ………. पुलिस तो मेरी सगी न उसकी और सबसे पहले तो मेरे आदमी पर डंडे फटकारेगी. जमना का क्या है. जमना तो पुलिस वालों को भी प्रसाद खिलाकर खुश कर सकती है. अब …… अब क्या होगा मेरे राम.

तभी उसके दिमाग में बिजली सी कौंध गयी. गांव के किनारे पुराने मंदिर में बरगद के पेड़ के नीचे झौंपड़ी बांधे पड़ा नजूमी ओझा चिंतामणी किस मर्ज की दवा है. सुना है बड़े जादू टोने, जंतर मंतर जानता है. प्रेत बाधा, वशीकरण, सम्मोहन, ऊपरी हवा और न जाने क्या क्या.

क्रोध की आग ने मष्तिष्क के सारे कपाट बंद कर दिए थे. अपनी गृहस्थी के लिए चारों तरफ अंधेरा ही अँधेरा दिखाई दे रहा था. न जाने किस अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर कदम खुद बखुद नजूमी की झौंपड़ी की और बढ़े जा रहे थे. आज कुछ भी हो जाय, उस चुड़ैल जमना का सर्वनाश करके रहेगी. मेरी गृहस्थी पर डाका डालने वाली डायन.

शादी या सौदा..? – रोनिता कुंडू

गाँव से चार फर्लांग दूर पुराने शिव मंदिर के सामने बरसों से खड़े बरगद के नीचे एक फूंस की झौपड़ी में फूंके हुए से काले खुरदरे चहरे और मकड़ी जैसे दुबले हाथ पाँव वाला चार फुट का प्रौढ़ ओझा, लंगोट बांधे एक बल्ली का सहारा लगाए चिलम फूंक रहा था. मुहं अँधेरे एक सुन्दर नारी को देखकर उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कामेन्द्रियाँ सक्रिय हो उठीं और दीदे फाड़ फाड़कर आगंतुका को देखने लगा.

“क्या कष्ट है बच्चा. कौन के घर से आयी हो”.

“हम कीरत राम चौधरी की लुगाई हैं महाराज”. सुरसती ने घुटनो के बल बैठते हुए कहा.

महाराज ने कामुक निगाहों से सुरसती को एक बार ऊपर से नीचे तक देखा. तेज कदमो से चलने और आवेश के कारण उसकी छातियां ऊपर नीचे, उठ और बैठ रही थीं. ओझा की आँखों में वासना के लाल डोरे तैरने लगे. मन तो किया कि सूर्योदय से पूर्व सौभाग्य से झोली में आ गिरे इस शिकार को भूखे व्याघ्र की तरह यहीं दबोच ले और बरसों की क्षुदा बुझा डाले,

मगर चौधरियों की बहु पर हाथ डालने की हिम्मत किसकी है भला. फिर चिलम में एक लम्बा कश मारकर धीरे धीरे धुंआ आसमान की तरफ उड़ा दिया और संतों की तरह आँख बंद करके बोला “बालक बच्चा की परेसानी है का? गोद हरी भरी …… “

“ना बाबा. वैसा कुछ ना है. हमारे मरद के पीछे एक डायन पडी है. मछेरे के जैसा जाल में फंसा लिया है. कोई उपाय करो महाराज. उसके शिकंजे से छूट जाय”.

“जमना की बात कर रही है क्या”.

“आप तो अन्तर्यामी हैं महाराज. आप से क्या छुपा है. सत्यानाश हो उस चुड़ैल का. मेरा ही घर मिला था बिगाड़ने को. उपाय करो महाराज. झोली भर देंगे”.

दोहरी मानसिकता – संगीता अग्रवाल

“झोली ……. ” ओझा चिंतामणी ने सुल्फे की चिलम से  एक लम्बा कश लिया और उतावला सा होकर पहलू बदलते हुए बोला “मन की झोली खाली है बालिके. पापी पेट का क्या है. भरता है, रीत जाता है. बस तन की आग नहीं बुझती. समझ रही है न… मैं तेरा कांटा निकाल दूँगा. तू मेरा कांटा निकाल देना.”

सुरसती को ओझा की लम्बी सांसों, घूरती हुई कामुक निगाहों, और कुत्ते की तरह लार टपकाती जीभ को पहचानने में अधिक देर नहीं लगी, मगर उसने चालाकी से बात की दिशा मोड़ने का प्रयास किया.

“महाराज, जमना पर ऐसा वशीकरण डालिये कि आप की दासी बनकर पाँव पूजे. कुछ भी करिये पर हमारे मरद को छुड़ा दीजिये. बड़ी कृपा होगी.”

“हो जायेगा. हो जायेगा बालिके. बहुत सरलता से हो जायेगा मगर ………. “

हमारे देश के ढके दबे समाज में किसी औरत का चरित्र और उसकी चर्चा तालाब में फेंके कंकड़ की तरह होती है कि कंकड़ तो एक गिरा मगर लहरें पूरे तालाब पर फ़ैल गयीं. सामाजिक वर्जनाओं के बोझ से दबे कुचले हर उम्र के मर्द के मन में उस औरत के प्रति एक हूक सी उठने लगती है और ‘हाय हम न हुए’ की लिप्सा के बाद असफलता की कुंठा और क्रोध, बदनाम करने और कोसने पर आकर ठहर जाता है. 

दरअसल जमना के चरित्र और सहज उपलब्धता की गुलाबी चर्चाओं से उत्तेजित ओझा जी ने भी एक रात उस रस ताल मे अपनी चौंच डुबाने का प्रयास किया था और अर्ध रात्री में जमना के घर की कुंडी जा खटखटायी थीं.

अब ओझा जी को कुदरत ने ऐसा अनोखा रूप प्रदान किया है कि रात्री बारह बजे जमना इस अजीब से जीव को देखकर घबरा गयी और उसने चीखना शुरू कर दिया. ओझा जी को सर पर पाँव रखकर भागना पड़ा वार्ना न जाने क्या हो जाता.

उस घटना की डाह निकालने को ओझा खुद ही बड़े लम्बे समय से जमना से बदला लेने की फिराक में था. अब पका हुआ फल झोली में आ ही गिरा है तो एक तीर से दो शिकार हो सकते हैं. सुरसती का यौवन भी भोगने को मिल जाय और जमना से अपमान का बदला भी लिया जा सके.

“काम तो हो जायेगा मगर ………… एक रात्री अनुष्ठान के लिए तुझे हमारे पास आना पड़ेगा. वार्ना …… वार्ना वो मायावी स्त्री तेरा घर बर्बाद कर देगी. सोच ले. एक रात या पूरी जिंदगी.”

दोहरी राजनीति – गुरविंदर टुटेजा

सुरसती बड़ी देर तक नाखूनों से जमीन कुरेदती रही. नजरें जमीन में गड़ी थीं. हृदय में तूफ़ान उठ रहा था. इस धूर्त ढोंगी से कैसे काम निकलवाया जाय इसी उधेड़ बुन में लगी थीं.

“सोच ले बहुरिया. मैं ही तेरा घर संसार बचा सकता हूँ. तन का क्या है. धुलकर फिर नया हो जाता है. सब मोह माया है. किन्तु जो क्षय रोग तेरे पति को भीतर से खोखला करने में लगा है उस से छुटकारा मैं ही दिलवा सकता हूँ, अन्यथा तेरा घर संसार जलकर ख़ाक हो जायेगा. रोग अनियंत्रित होकर पिशाच की तरह मारक नृत्य करने लगे, उस से पहले निर्णय लेना होगा.”

अंत में सुरसती ने धीरे से कहा “आप मेरा काम कर दीजिये. उसके बाद जैसा आप कहेंगे ….. “

“वचन से मुकर मत जाना. अभी सोच ले. महाराज की झोली अनेक मायाओं से भरी हुई है. मुझ से छल करने का प्रयास किया तो यहीं से बैठे बैठे सर्वनाश कर दूंगा.” ओझा ने अपना आखिरी ब्रहमास्त्र दाग दिया.

सुरसती ने सहमती से गर्दन हिलाई और दक्षिणा स्वरूप अपनी उंगली से अंगूठी निकालकर महाराज के सामने अर्पित कर दी.

“स्वर्ण नहीं चाहिए. देवता को अपनी कंचन काया का अर्पण कर. अब जा और अपना वचन याद रखना. तेरा काम हो जायेगा”. ओझा ने गर्जना की.

ओझा चिंतामणी के हृदय पर सुरसती के उन्मुक्त यौवन का और चित्ताकर्षक सौंदर्य का ऐसा डंक लगा था कि उठते बैठते, सोते जागते, सुबह शाम उस दिन की कल्पना में खोया रहता, जब एक रात को ही सही, सुरसती उसकी अंकशायनी बनेगी. बस वो हर समय अवसर की तलाश में था और अवसर था कि किसी दिवास्वप्न सा धुंधला होता जा रहा था.

दो महीने गुजर गए. लू के गर्म थपेड़े बरसात की पुरवैया में बदल गए. सूखे जंगल हरे हो उठे मगर ओझा के मन के उपवन में अभी भी वीरानी छाई थी.

गाँव में मलेरिया का भयानक प्रकोप हुआ था. कोई घर नहीं था जहाँ कोई न कोई बिस्तर थामे न पड़ा हो. अनेक लोग ओझा से झाड़ फूंक करवा चुके थे मगर विपदा थी कि जाने का नाम ही नहीं लेती थी.

भाभी आपको शर्म नही आती – किरन विश्वकर्मा

एक दिन चिंतामणी सुबह सुबह अपनी धूणी के सामने बैठा चिलम फूंक रहा था कि गाँव के रोते बिलखते लोग एक अर्थी उठाये उसके सामने की बटिया से गुजर कर मुर्दघाट की ओर जाते दिखयी दिए. एक घंटा भी न हुआ था कि दूसरा और फिर तीसरा अंतिम यात्री अपने महा प्रयाण की ओर उन्मुख हो रहा था.

ओझा की कपटी कुत्सित दृष्टी किसी धूर्त षडयंत्र से चमक उठीं. 

रोज की तरह ओझा के छद्म वेश के कारण उसे सन्यासी समझने वाले कई किसान और कुछ सुल्फे के एक कश की आस लगाए नसेड़ी चिलमची ओझा की झौंपड़ी पर आकर जुट जाते थे. गांव में आपदा आई थी इसलिए आज तो दस पंद्रह लोग ओझा के पास किसी उपाय की अपेक्षा में सर नवाये बैठे थे.

अचानक देह पर भभूत लगाए, बाल विकराल रूप से बिखेरे ओझा खड़ा हुआ और अजीब सा नृत्य करने लगा. बीच बीच में उसके मुह से कुछ अस्फुट शब्द भी फुट रहे थे.

“खा गई …….. खा गई डायन. मेरे बच्चों को खा गई. ठहर जा. थम जा. भस्म कर दूँगा तुझे. चली जा डायन चली जा. तेरा खूनी खप्पर भर गया है. और कितना पिएगी”. सुल्फे के नशे से लाल भभूका हो रही आँखों से आसमान को देखते हुए चिंतामणी चिल्ला रहा था.

फिर उसने अपनी झोंपड़ी की छान मे से एक लंबा सा तिनका निकाला. निकट रखे पात्र से उसके ऊपर पानी के कुछ छींटे डाले और आँखें मूंदकर कोई मंत्र सा पढ़ने लगा. तिनके को मोड़कर दिशा सूचक यंत्र की तरह हाथ में पकड़ लिया. फिर जिधर तिनका मुड़ता उधर ही तेज गति से चलने लगता. कभी तिनका दांयें घूम जाता तो ओझा उसी तरफ दौड़ने लगाता. कभी दायें कभी बाएँ.

तिनके का रुख गांव की तरफ हो गया या कर दिया गया और ओझा जोर जोर से अस्फुट से मन्त्र बोलता हुआ गाँव की और जाने वाली बटिया पर चलने लगा.

ओझा के निकट बैठे लोग भी उसके साथ चलने लगे.

ओझा ने जान बूझकर गांव के दूसरे सिरे से प्रवेश किया ताकि अधिक से अधिक लोग जुटते रहें. वो लगातार कोई अजीब से मन्त्र बोल रहा था और बीच बीच में “डाइन, मैं आ रहा हूँ. बचकर कहाँ जाएगी. मेरे लालों को खा गयी. आज तेरा अंत आ गया है” जैसे नारे लगाता रहता।

जैसे जैसे ओझा का काफिला गाँव के रास्ते तय कर रहा था भीड़ बढ़ती जाती थी. लोग हाथों में लाठी डंडा और जलती हुई मशाल लेकर गांव में रोग फ़ैलाने वाली चुड़ैल से मुकाबला करने को ओझा चिंतामणी के पीछे पीछे चल रहे थे और ओझा अपने हाथ में पकड़े तिनके को इधर उधर घुमाकर भीड़ को मनचाही दिशा में अपना अनुसरण करवा रहा था.

सुनीता आंटी-तूफ़ान एक्सप्रेस – रश्मि सिंह

रोष बढ़ता जा रहा था और लोग महामारी फ़ैलाने वाली चुड़ैल को सबक सिखाने के किये उतावले हुए जा रहे थे. काफिले के सर पर खून सवार था.

अचानक ओझा एक स्थान पर रुका और उसने अपने दिशा सूचक तिनके का मुँह जमना के घर की और मोड़ दिया और जोर से चिल्लाया “महाकाल तेरा सर्वनाश करेंगे डाइन। आज बचकर कहाँ जाएगी”.

बेकाबू भीड़ ने जमना का घर घेर लिया. आनन फानन में दरवाजा तोड़कर लोग भीतर घुस गए. ओझा घर के बहार खड़ा होकर ‘जय महाकाल’ के नारे बुलंद कर रहा था और भीतर से दारुण चीख पुकार की आवाजें सुनायी देने लगीं थीं.

कुछ ही क्षण में जमना के घर से धुंए का गुब्बार उठने लगा और पूरा गांव मानव देह के जलने की चिड़ान्ध से रोमांचित और भयाक्रांत हो उठा.

कुबड़े दानव ने एक तीर से दो शिकार कर लिए थे. जमना से अपने अपमान का बदला और सुरसती चौधराइन को भोगने का सुनहरा अवसर. 

रूढ़ियों और अंधविश्वासों में घिरे हुए और नजूमी की काल्पनिक मायावी शक्तियों से खौफ खाये दरोगा ने तहरीर में वही सब कुछ लिख डाला जो गाँव के प्रधान ने उस से लिखवाया. औपचारिकता पूरी करके केस बंद कर दिया गया.  

मायावी नरपिशाच चिंतामणी का महीनो जतन से बांधकर रखा चंचल मन घोड़ी के बछेरे की तरह कुलांचे भरने लगा. पंछी की तरह हवाओं पर तैरने लगा. इन्द्र की सभा से भटक कर आई अप्सरा जैसी सौंदर्य की प्रतिमूर्ती सुरसती के साथ  अनुपम अभिसार के रंगीन सपने देखने लगा. करवट बदलते रात गुजर जाती. अनियन्त्रित होकर दौड़ जाना चाहता था अपनी प्रेयसी की चौखट तक किन्तु, कोई युक्ति सूझती ही नहीं थी. 

जब सुरसती ओझा के झौंपड़े से दूर संकरी सी बटिया से अपने पति का खाना खेत पर ले जाने के लिए गुजर रही होती तो ओझा जोर जोर से चिल्लाने लगता. “महा काल की जय. काली कपाली खप्पर वाली की जय. भूत बंगाले की जय. कांटे से काँटा निकलेगा. काँटा चुभा तो खून निकलेगा. मान जा भवानी मान जा. बाबा के झोले में बड़ी बड़ी माया हैं.”

पता नहीं सुरसती दूरी के कारण सुन नहीं पाती थी या सुनकर अनसुना कर देती.

फिर एक दिन तो इन्तहा ही हो गयी. सुबह मुहं अँधेरे खेतों में शौच जाने के लिए सुरसती उठी तो दरवाजे के पास एक तुड़ा मुड़ा कागज पड़ा था. उसने उत्सुकतावश उठाकर ब्लाउज में रख लिया. उजाला होने पर पढ़कर देखा तो उसके पांव के नीचे से जमीन खिसक गयी. “रात्री आठ बजे किसी भी बहाने से आ जाओ वार्ना भांडा फोड़ दूंगा.”

एक बार तो मन हुआ कि किसी कुए खाती में डूबकर आत्महत्या कर ले. बदनामी होने से पहले ही मिटा ले खुद को मगर तर्क बुद्धि ने कहा कि हत्या का दोषी तो ढोंगी ओझा खुद है. मैंने किया ही क्या है. मैंने तो ओझा को जमना की हत्या करने को नहीं कहा था. अधिक से अधिक यही अपराध है कि मैं उसके पास पथ्य मांगने गयी थी. तो क्या हुआ. इस अपराध में पति घर से निकाल देगा तो मइके चली जाऊंगी मगर अपने चरित्र को नीचता के गर्त में नहीं गिरने दूंगी.

मन समझाए समझता नहीं था. ओझा के पास कोई मारक मन्त्र हुआ तो. कोई जादू टोना करके मुझे या मेरे पति को नुक्सान पहुंचाया तो. मेरे चरित्र पर दाग लगाकर मुझे बदनाम किया तो. बदनामी का जीवन तो मौत से भी कष्टदायक है. मगर कुछ भी हो, धर्म से गिरूँगी नहीं. अपने सतित्व की रक्षा करना ही नारी का धर्म है. सुरसती ने कागज को चिन्दी चिन्दी करके नाली में फेंक दिया.

फिर वही हुआ जिसका डर था. दो दिन बाद एक और पत्र चौखट पर धरा मिला. इस बार गंभीर धमकियाँ दी गयी थीं. “भस्म कर दूंगा. तेरा सुहाग उजाड़ दूंगा. गली गली ऐसी बदनामी होगी कि कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं बचेगी. आज अंतिम चेतावनी समझाना. रात आठ बजे”.

सुरसती बुरी तरह से डर गयी थी. कैसे भी इस आपदा से छुटकारा तो पाना ही होगा किन्तु समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूँ. मन की व्यथा भीतर भीतर कुरेद रही थी. किसी से कह भी नहीं सकती.

माँ जी सहारे की ज़रूरत आपको होगी ,,मुझे नहीं – मीनाक्षी सिंह

शहर से दूर के ग्रामीण किसान के घर जन्म लेने के कारण सुरसती चौधराइन ने जिंदगी की बड़ी उंच नीच देखी थीं. गांव में डाकुओं का हमला भी देखा था. खेत के डौले के कारण होने वाले खूनी संघर्ष भी देखे थे और लंबी पुलिस बाजी और मुकदमे बाजी भी. अपनी छोटी सी उम्र मे दुरूह जीवन जीने के कारण सरस्वती बाला, जिसका नाम बिगड़कर सुरसती हो गया था एक निडर और जीवट वाली औरत थी,

किन्तु भारतीय समाज और विशेष तौर पर ग्रामीण परिवेश में एक औरत जिस चीज से सबसे अधिक डरती है वो है इसकी इज्जत. उसका आत्म सम्मान और स्वाभिमान. इस कसे बंधे समाज में बिना इज्जत के जीना मृत्यु के समान है.

अगर इसी तरह ओझा उल्टे सीधे पुर्जे फेंकता रहा तो एक दिन बात खुल जाएगी. कभी भी कोई रुक्का उसके पति के हाथ लग सकता है और उसकी घिरस्ती में आग लग सकती है. इसी उधेड़ बुन में पूरा दिन निकाल गया.

शाम होते होते सुरसती एक दृढ़ निश्चय पर पहुँच चुकी थी. चाहे कुछ भी हो जाय अपने सतीत्व पर आंच नहीं आने देगी किन्तु एक बार चिंतामणी से मिलकर उस से सब कुछ भूल जाने का अनुरोध जरूर करेगी. उसे पैसे या गहनों का प्रलोभन भी देकर देखना होगा. अगर इसपर भी वो नहीं माना तो मेरी तकदीर. फिर पति को सब कुछ सच सच बता देगी. बात बनी तो ठीक अन्यथा फिर कहीं अपना मुंह छिपाने के अलावा कोई रास्ता न होगा.

कीरत राम दुबारे मे बैठा हुक्का गुड्गुड़ा रहा था कि सुरसती हाथ में पानी का लोटा लेकर शौच के बहाने निकल पड़ी. 

बिजली न होने के कारण गाँव के लोग दिन छिपते ही घरों में समां जाते थे. गलियों में इक्का दुक्का आदमी ही दिखाई दे रहा था.

सुरसती तेज कदमो से गाँव को पीछे छोड़ते हुए खेतों की बीच बनी पगडंडी पर धड़कते दिल से आगे बढ़ती जा रही थी. दूर जंगल से गीदड़ों के रोने के आवाज आ रही थी. कभी किसी पेड़ पर कोई उल्लू अपनी मनहूस सी आवाज निकालकर मौन तोड़ देता था. खेतों में मेंडकों और झींगुरों की आवाज से एक संगीत सा उत्पन्न हो रहा था. पगडंडी के दोनों तरफ ईंख, जुआर और बाजरे के ऊंचे ऊंचे खेत खड़े थे.

अचानक सुरसती को लगा कि कोई उसका पीछा कर रहा है. दो कदमो की सरसराहट पत्तों को कुचलने की आवाज और सूखे पेड़ों की खोखर में रहने वाले पतोरी नाम के पक्षी के क्रंदन ने उसके ह्रदय को दहलाकर रख दिया था. उसने पीछे मुड़कर देखा तो ऐसा लगा जैसे कोई भागकर खेतों मे छिप गया है. सुरसती कई क्षण स्तब्ध खड़ी रही. कोई आहाट न होने के कारण आगे बढ्ने लगी. उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धडक रहा था.

ओझा की झौंपड़ी का प्रकाश दिखाई देने लगा था. उसने कुछ क्षण रुककर स्वयं को तैयार किया और ओझा से बोलने वाली याचना को मन ही मन दुहराने लगी. “आप तो संत महात्मा आदमी हो. मैं आप से हाथ जोड़कर माफी मांगती हूँ. जो हो गया उसे भूल जाओ. मैं एक ब्याहता स्त्री हूँ. मेरे गृहस्थी को बचा लो प्रभू. आप को जो पैसा गहने गाँठे चाहिए मैं लाकर दूँगी मगर ये शरीर किसी दूसरे की अमानता है” वगहरा. फिर दृढ़ कदमो से आगे बढ़ी.

ओझा की कुटिया के निकट पहुँचकर वो एक बार फिर रुकी और दूर से ही थाह लेने लगी की उसके पास कोई दूसरा ग्रामीण तो नहीं है. ढिबरी के धुंधलके प्रकाश में कुछ स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था.

तभी एक दिल दहला देने वाली हरदायविदारक चीख से वातावरण गूंज उठा. ओझा की पर्णकुटी के द्वार से कोई ठिगनी सी मानव देह प्रगट हुई और बाहर धूनी के पास धड़ाम से गिरकर चित्त हो गई.

सुरसती ने आव देखा न ताव, बेतहाशा उल्टे पाँव गाँव की ओर दौड़ने लगी. चप्पलें कहीं टूटकर गिर गईं. पाँव लहूलुहान हो गए मगर वो बादहवास भागी चली जा रही थी.

गाँव की गलियों मे पहुँचकर उसने खुद को संभाला. अपने वस्त्रों को व्यवस्थित किया. साँसों पर नियंत्रण करने का प्रयास किया और धीरे धीरे किसी अज्ञात आशंका से सहमी हुई घर की ओर बढ़ने लगी.

वसूली…… विनोद सिन्हा “सुदामा”

कीरत राम ने सर तक चादर ढक रखी थी और लंबी लंबी सांस लेकर शायद गहरी नींद में सो रहा था. सुरसती दबे पाँव घर के भीतर चली गई और अपने बिस्तर में मुंह दुबकाकर बिलख उठी. पिछले कुछ समय की घटना उसकी आँखों के सामने से हटने का नाम ही नहीं ले रही थी.

घंटों इसी तरह जागती हुई उस भयानक चीख का स्मरण करके काँप काँप जाती. आखिर ओझा के साथ हुआ क्या है. क्या ये भी उसकी कोई माया थी या नया ढोंग था. क्या उसके साथ कोई दुर्घटना हो गई है. क्या उसे कोई दौरा पड़ा था. कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

अर्ध रात्री में उठकर उसने अपने हाथ पाँव और मुह धोया. बालों को व्यवस्थित किया. पाँवों के कुछ काँटों को निकाला और कुछ वहीं टूट गए. डरी सहमी सी लेट रही.

रोज की तरह सुबह गाय दुह रही थी. पति कीरत राम चौधरी खेतों की ओर निकल गया था तो पड़ौसन ने सनसनीखेज समाचार कह सुनाया. “रात को ओझा चिंतामणी का किसी ने कत्ल कर दिया है. सारा गाँव उधर ही दौड़ा चला जा रहा है. पुलिस आने वाली है. हाय बता, कैसा बुरा वक्त आ गया है. हत्यारे साधू सन्यासियों को भी नहीं छोड़ते. भला उस गरीब के पास लूटने को रखा ही क्या था. महा पाप हो गया. जरूर गाँव पर कोई विपदा आने वाली है”.

न जाने क्यूँ सुरसती ने एक ठंडी सांस ली थी.

घर का काम निपटाकर दोपहर को चूल्हे पर गरम पानी में सोडा डालकर मैले कपड़े डाल रही थी. पति का कुर्ता भी कई दिन से नहीं धुला था. उसे भी गरम पानी के पतीले में डालने लगी तो सुरसती को लगा कि कुर्ते की बांह पर कुछ लाल लाल सा लगा है. मानव रक्त जैसा काला सा पड़ गया गहरा लाल रंग. उसका ह्रदय एक अज्ञात शंका से धड़क उठा. उसने जल्दी से कुर्ता उबलते पानी में डाल दिया और चूल्हे की लकड़ियाँ ठीक करने लगी. 

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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