मुखौटा – डॉ. पारुल अग्रवाल

आज कामिनी बाज़ार में कुछ सामान ले रही थी तभी उसकी मुलाकात अपने चचेरे भाई से हो गई। जिनसे वो काफी समय के अंतराल पर मिल रही थी। भाई से मिलते ही उसका मन खुश हो गया वैसे भी पिताजी की मृत्यु के बाद उसका मायके के सभी रिश्तेदारों से संबंध ना के बराबर ही रह गए थे। बातों-बातों में उनसे पता चला कि वो यहां आलोक जीजाजी को देखने आए थे। जो उसकी भी सगी बुआ के दामाद थे। आलोक जीजाजी का नाम सुनते ही उसका मन कसैला हो गया पर उसने अपनी भावनाओं पर काबू रखा। 

इसके चचेरे भाई ने बताया कि उन्हें पक्षाघात का दौरा पड़ा था। अब वो चलने फिरने में तो असमर्थ हो ही गए हैं साथ-साथ दिमागी तौर भी काफ़ी कमज़ोर हो गए हैं। यहां तक की वो खाने-पीने के लिए भी दूसरों पर मोहताज़ हो गए थे। कुल मिलाकर बहुत ही कष्टदाई अंतिम दौर से गुज़र रहे थे। बेटा-बहु भी हॉस्पिटल में एडमिट कराके अपनी ज़िम्मेदारी निभा कर चले गए हैं। दीदी तो वैसे भी तीन साल पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गई थी। अपने उन जीजाजी का नाम आते ही वो ना तो ज्यादा देर तक अपने चचेरे भाई से बात कर पाई ना ही उनको अपने घर आने का आमंत्रण दे पाई।वो बच्चों के स्कूल से लेने का बहाना बनाकर वहां से चल दी।

उसका मन बहुत व्यथित हो गया था। वो बाजार का सारा काम छोड़कर घर वापिस चली आई। जीजाजी का कुत्सित और दोगला चेहरा बार-बार उसकी आंखों के सामने आने लगा।




 घर आकर वो निढाल सी बैठ गई और पुरानी स्मृतियां उसके मन मस्तिष्क पर हावी हो गई। वो ऐसी स्मृतियां थी जिन्हें सोचने मात्र से उसका सर्वांग कांप उठता था। किसी तरह से समय के साथ वो दब गई थी पर आज अचानक से फिर बाहर आ गई थीं । बचपन से ही वो बहुत प्यार भरे पर अनुशासन के माहौल में पली-बढ़ी थी। पढ़ाई-लिखाई पर घर में बहुत ध्यान दिया जाता था। उसके पिताजी अपने तीनों बच्चों की तो परवरिश अच्छे से कर ही रहे थे साथ साथ अपने भाई बहनों के बच्चों को भी उन्होंने कभी पराया नहीं समझा था। यहां तक की अपनी बहनों की बेटियों के लिए रिश्ते भी उन्होंने बिल्कुल अपनी बेटी समझ कर ढूंढे थे।

 सब ठीक चल रहा था। उसकी एक बुआ की बेटी जो लगभग उससे लगभग बीस साल बड़ी होगी,उनकी शादी भी पिताजी के सहयोग से बैंक में कार्यरत एक लड़के से हुई थी।वो शादी के बाद से ही दूसरी जगह कार्यरत होने से बाहर चले गए थे। अब दस-बारह साल के बाद उनका ट्रांसफर फिर इसी शहर में हो गया था। वो खुश थी कि मातृ सदृश दीदी उसके शहर में वापिस आ गई हैं क्योंकि बचपन से ही उसका उनसे काफ़ी स्नेह था। पर उसे नही पता था कि उसकी खुशियों पर इन्हीं लोगों की वजह से ग्रहण लगने वाला है। 

अब तो वो भी बचपन पार कर अपने किशोरावस्था के दिनों में पहुंच गई थी। दीदी और जीजाजी ने घर भी उनके घर से थोड़ी दूरी पर लिया था। अधिकतर दीदी, जीजाजी और उनके बच्चों का आना-जाना लगा रहता पर अब वो थोड़ा समझदार हो रही थी उसको कई बार अकेले जीजाजी की कई हरकतें जैसे गलत तरीके से छूना, उसकी खाने की प्लेट में से उसका झूठा खाना उठाकर खा लेना बहुत नागवार गुजरती। वैसे भी कहते हैं कि लड़कियों और स्त्रियों को भगवान ने एक छठी इंद्री दी है जिससे सामने वाले की नीयत को वो भांप जाती है। उनके इस तरह के व्यवहार को उसने कई बार अपने घर के अन्य लोगों से कहने की कोशिश की पर जैसा कि होता है कि इस तरह के लोग बहुत ही धूर्त, दूसरों से लच्छेदार बातें करने वाले और दोहरे चेहरे वाले होते हैं। 

इस तरह के लोग अपनी पत्नी और दूसरों के सामने भी अपनेआपको नारी उत्थान का बड़ा हिमायती दिखाते हैं। वैसे भी ये ऐसे विषय होते हैं जिस पर खुलकर बोलने की आज़ादी, वो भी घर के दामाद के विषय में उस समय नहीं होती थी। 




अभी वो इन कशमकश से गुजर ही रही थी तभी उसको किसी काम से दीदी के यहां जाना पड़ा, उसका जाने का मन तो नहीं था पर फिर उसको लगा कि अभी जीजाजी तो बैंक में होंगे इसलिए वो दीदी को समान देकर आ जायेगी। पर जब वो वहां पहुंची तो घर पर सिर्फ जीजाजी थे, उन्होंने आज अपनी सीमाएं लांघने की कोशिश की पर वो सचेत थी।

उन्होंने उसका हाथ पकड़ा ही था वो उनको धक्का देकर बाहर भागती हुई अपने घर चली गई। आज वो पूरी तरह से उस दोहरे चेहरे वाले आदमी, जिसने अपने व्यभिचारी चरित्र पर अच्छे होने का मुखौटा चढ़ाया हुआ था, को भली-भांति समझ गई थी।

 घर पर तो उसके बैंक में बड़े पद और लच्छेदार व्यवहार ने सबका मन मोह रखा था पर कामिनी के सामने उसकी पूरी असलियत आ चुकी थी। उस अब वो अकेले ही उससे निबटने की योजना बना चुकी थी। जब भी घर में कोई कार्यक्रम होता वो उससे पूरी तरह दूरी बनाकर रखती, अगर वो कोई अशिष्ट मज़ाक भी करता तो वो घूर कर वहां से चली जाती। अब वो घटिया आदमी जब अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हुआ।

कहीं उसकी पोल-पट्टी ना खुल जाए इस डर से उसने पिताजी के बैंक के कई सारे काम बिल्कुल असली दामाद की तरह अपने ऊपर ले लिए। उस आदमी ने दीदी को भी एक तरह से अपनी योजना का हिस्सा बना लिया था। दीदी तो वैसे भी अपने मामा के घर की सभी चीजों पर अपना अधिकार समझती थी और कामिनी को अपना प्रतिद्वंदी समझती थी।

 उनको लगता था कि कामिनी अगर नहीं होती तो मामाजी की पुत्री के बाकी अधिकार भी उनको मिल जाते। दीदी को शायद अपने पति के घटिया चरित्र का भान नहीं था पर कामिनी के साथ उनकी उम्र का बीस साल का अंतर भी उनको उससे तुलना करने से रोकने में असमर्थ था। 

वैसे भी ये हमारा मानव स्वभाव है कि जब कोई आपसे जरूरत से ज्यादा सहानभूति, संवेदना और आपके अनुसार बातें करता है तब हम उसी की तरफ झुकते चले जाते हैं। यही हो रहा था, उसके पिताजी और घर के अन्य लोग जरूरत से ज्यादा उस घटिया आदमी पर निर्भर होते गए। उस आदमी और दीदी का घर पर आना निरंतर बना रहा। उनकी घर में बढ़ती पैंठ ने कामिनी को अपने ही घर में पराया कर दिया था। पर कामिनी बहुत समझदार थी उसने अपने आपको पढ़ाई लिखाई में लगाकर हॉस्टल की राह पकड़ ली। 

इस तरह से उसने अपने आपको अपने घर से दूर कर अपनी अलग दुनिया की तरफ कदम बढ़ा लिए थे। ये तो सिर्फ शुरुआत थी, अभी बहुत कुछ होना बाकी था।उसकी शादी हुई और भाईयों की भी शादी हुई तब पिताजी ने अपने सगे दामाद और बेटी से अधिक अपनी बहन के दामाद और बेटी की खातिरदारी की। उनको भी अपनी सगी बेटी के समान देना-लेना किया।उस इंसान की वजह से पिताजी कभी अपने सगे दामाद से जुड़ ही नहीं पाए। यहां तक तो ठीक था पर कहते हैं ना कि इंसान को जितना मिल जाये पर उसकी लालसा बढ़ती ही जाती है। 

अब दीदी और जीजाजी ने उसके दोनों भाई के बीच में भी झगड़े करवाने शुरू कर दिए। उसने अपने भाई भाभी को भी थोड़ा सचेत करने की कोशिश की। उसने उन लोगों को उस कुत्सित आदमी की सच्चाई बताने की कोशिश भी की पर नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कौन सुनता। जब बुद्धि पर भ्रम का पर्दा पड़ा हो और सामने वाले से हमें लाभ प्राप्त हो रहा हो ऐसे में उन लोगों ने भी जीजाजी के पद और प्रतिष्ठा की दुहाई देते हुए उनसे ही संपर्क रखा। 




ये तो अच्छा था कि उसको ससुराल और पति बहुत अच्छे मिले थे उन्होंने कामिनी के कोमल मन पर लगे घावों को समझा। माताजी और पिताजी के जीवित रहने तक कामिनी के अपने मायके से संबंध रहे पर उनके बाद रही-सही कसर भी पूरी हो गई। आज उसके पास मायके के नाम पर कोई नहीं था सिर्फ उस दोगले चेहरे वाले इंसान की वजह से। कामिनी का दिल को ये मलाल भी था कि वो उस इंसान का मुखौटा दुनिया के सामने नहीं उतार पाई, वही दूसरी तरफ कुछ हद तक ये संतोष भी था कि वो उस जैसे घटिया आदमी की चाल का शिकार बनने से बच गई। उसके बाद बीच-बीच में कुछ और रिश्तेदारों के द्वारा उनके इसी तरह से औरों के घरों में घुसने की खबर तो मिली पर उसने अपने आपको इन सब से दूर रखा। वैसे भी उसका विश्वास था कि हम इंसानों और कानून की देवी की आंखों पर भले ही पट्टी क्यों ना बंधी हो पर उस विधाता का न्याय हमेशा अचूक होता है। 

आज अपने चचेरे भाई से उनकी अंतिम अवस्था में ऐसी दुर्दशा सुनकर उसके हाथ खुदबखुद उस परम पिता के लिए जुड़ गए। तभी उसके कानों में घर की डोरबेल बजने की आवाज़ आई। 

उसने दरवाज़ा खोला तो सामने काम वाली उसके दोनों बच्चों के साथ खड़ी थी। दरवाज़ा खुलते ही दोनों शैतान बस्ता वहीं पटक घर के अंदर की तरफ भाग गए। वो भी पिछली बातों को भुलाकर अपने दुःस्वप्न से बाहर आ गई और व्यस्त हो गई अपने नौनिहालों की शरारत भरी बातें सुनने में।

दोस्तों कैसी लगी आपको मेरी कहानी, अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। कई बार हमारे आस-पास अपितु घर में ही कुछ लोग मुखौटा लगाकर रखते हैं। अपनी दोहरे चेहरे और व्यक्तित्व के दम पर वो हमारे घर और बाकी रिश्तों को भी दीमक की तरह चाट जाते हैं।

 कई बार ये हम लोगों के छोटे बच्चों को भी अपना शिकार बनाने से पीछे नहीं हटते। हम लोगों को अपने बच्चों पर भरोसा करते हुए एक बार उनकी बात जरूर सुननी चाहिए जिससे की इस तरह के लोगों को बढ़ावा ना मिल सके और परिवार का विघटन होने से बचा जा सके। 

नोट: ये घटना सत्यता पर आधारित है, जिसे मैंने अपनी एक मित्र के कहने पर लिखा है। उसने वैसे तो काफ़ी सारी बातें बताई थी पर कहानी का रूप देने के लिए इसको इसमें कुछ ही तथ्यों का समावेश किया है।उसका इस कहानी को लिखवाने के पीछे सिर्फ इतना उद्देश्य था कि किसी भी बेटी का मायका कुछ लोगों के दोहरे चेहरे की वजह से छूटना नहीं चाहिए।

#दोहरे_चेहरे

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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