लगाव – विनय कुमार मिश्रा

एक साहब के घर का शिफ्टिंग हो रहा था। मैं मूवर्स एंड पैकर्स में शिफ्टिंग कराने का काम करता हूँ। कंपनी में ट्रेनिंग के दौरान जाना था कि इन साहब लोगों को कई बार अपने सहेजे सामान के प्रति भावनात्मक लगाव होता है। अच्छे से सुरक्षित एक स्थान से दूसरे स्थान तक इनके सामान को पहुँचाना हमारा काम है। इनके आशियानें में सामान को उसी तरह रखना है जैसे उस आशियाने से उठाया था। इससे पहले भी शिफ्टिंग करा चुका था। आज एक गलती हो गई। गाड़ी में लोडिंग के समय इनका टीवी मुझसे टूट गया था। ये बात सिर्फ मुझे पता थी। टीवी काफी महंगा है मेरे हिसाब से..और मैं हिसाब किताब बिठाने लगा तीन महीने की सैलरी कट जाएगी अगर बताया तो।साहब का घर आ गया हम सारा सामान उसकी जगह रखने लगे तभी..

“पापा सबसे पहले टीवी लगवा दो ना, आज मैच है” आदेश मिला तो मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा। बॉक्स में से टूटा हुआ टीवी निकला

“धीरज! टीवी तो तू रख रहा था ना?” मेरे साथी ने मेरी गलती पर मोहर लगा दी। मैं कुछ बोल ना पाया। आँखों में आने वाले तीन महीनों की तंगहाली उतर आई जिसमें बिटिया का एडमिशन भी कराना था। साहब मेरी ओर गुस्से से देख रहे थे। उन्होंने कुछ बोला नहीं उन्हें तो सिर्फ रिमार्क बुक पर लिखना था और..! पर साहब ने कुछ नहीं लिखा, हम जाने को हुए..मुझे अब भी लग रहा था कि साहब फोन पर मेरी कंपनी में शिकायत करेंगे। मैं जाते जाते एक विनती करने गया

“साहब! मैंने जानबूझकर नहीं किया, गलती हो गई..

“धीरज! मैं दूसरी टीवी ले लूंगा, पर शायद तुम्हें दूसरा मौका ना मिले।आगे से काम पर ध्यान देना तभी परिवार पर ध्यान दे पाओगे” साहब की आँखों में इस बार गुस्से से ज्यादा इंसानियत दिखी। ट्रेनिंग में एक बात नहीं बताई गई थी कि

कुछ लोगों में सामान से ज्यादा इंसानों के प्रति भावनात्मक लगाव होता है

विनय कुमार मिश्रा

 

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