“किरदार बदल गए” –  तृप्ति उप्रेती

“मासी मां, मां उठ गई” ऑफिस से आते ही कार्तिक ने माया से पूछा। “हां बबुआ, बस अभी ही उठी। मैंने पानी पिला दिया है। तुम हाथ मुंह धो लो,तब तक चाय बनाती हूं।” कार्तिक फटाफट कपड़े बदलकर मां के कमरे में पहुंचा।

मां चुपचाप अपने साफ-सुथरे पलंग पर लेटी थीं। कार्तिक ने पास जाकर पुकारा तो उन्होंने धीरे से आंखें खोली। मां के भावविहीन निर्विकार चेहरे को देखकर कार्तिक ने बमुश्किल अपने आंसुओं को रोका। तब तक मासी चाय ले आई। कार्तिक ने अपने हाथों से मां को चाय पिलाई और फिर मासी मां की सहायता से उन्हें व्हीलचेयर पर बिठाया और बाहर पार्क में घुमाने ले गया।

        पिछले पांच-छह वर्षों से यही कार्तिक की दिनचर्या थी।पिता को उसने बचपन में ही खो दिया था। मां ने अकेले ही उसे पाला।घर की थोड़ी बहुत जमीन थी जो वह बटाई पर देती और उन दोनों का गुजारा हो जाता। कार्तिक बचपन से ही मेधावी छात्र रहा।

छात्रवृत्ति के सहारे पढ़ते हुए उसने अपनी शिक्षा पूरी की और पास के ही शहर में उसकी नौकरी लग गई। नौकरी लगते ही वह मां को अपने साथ ले आया। मां बेटा बहुत खुश थे। मां ने उसके लिए लड़की देखनी शुरू की। काफी खोजबीन के बाद कृति के साथ कार्तिक का रिश्ता पक्का हो गया और सगाई अगले महीने निश्चित हुई।

       परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था। कुछ दिन बाद जब मां बाजार कुछ सामान लेने गईं तो वापसी में उन्हें एक कार ने टक्कर मार दी और वह बुरी तरह घायल हो गई। खबर मिलते ही कार्तिक अस्पताल पहुंचा।

क्योंकि हादसा घर के पास ही हुआ था तो पड़ोसियों ने तुरंत उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया था। मां को सिर और पीठ पर बहुत चोट आई थी। तीन दिन तक बेहोश रहने के बाद जब मां ने आंखें खोली तो वह किसी को नहीं पहचानीं। 

यहां तक कि अपने बेटे को भी नहीं। डॉक्टर ने कहा कि सिर पर चोट लगने से शायद उनकी याददाश्त चली गई है और रीढ़ की हड्डी में चोट की वजह से पैरों में हरकत नहीं है। शायद यह अपने आप कभी चल ना पाएं। कार्तिक की तो दुनिया ही बदल गई।

उसकी मां ही उसका सब कुछ थीं। कल तक जो मां बेटे की बलाएं लेते, उस पर लाङ लुटाते नहीं थकती थी, वही आज उसे पहचानती तक नहीं। विधि की इस से बड़ी विडंबना नहीं हो सकती।



         इधर यह सब जानकर कृति और उसके मां-बाप ने इस रिश्ते से इनकार कर दिया। कृति का कहना था कि वह जिंदगी भर बिस्तर पर पड़ी सास की सेवा टहल नहीं कर सकती। कार्तिक दिन-रात मां की देखभाल करता पर आखिर उसे नौकरी भी तो करनी थी।

इसीलिए उसने गांव से माया मौसी को बुला लिया। माया गांव में उनके पड़ोस में रहती थीं और बिल्कुल अकेली थीं। उनके पति का बहुत पहले देहांत हो चुका था और बाल बच्चे नहीं थे। मां और माया मौसी गांव में अक्सर एक-दूसरे का सुख दुख बाँटते।

यहां आकर मौसी ने घर अच्छे से संभाल लिया। उन्हें भी सहारा मिल गया और कार्तिक भी मां की तरफ से थोड़ा निश्चिंत हो गया था।

     बस कार्तिक की सारी दुनिया मां में सिमट आई थी। वह भले ही बेटे को ना पहचाने पर बेटा तो मां को पहचानता था। वह कैसे अपनी मां को छोड़ देता।

जब वह छोटा, निरीह और असहाय था तो माँ उसका संबल बनीं, अपना दुख भुलाकर उसे सहारा दिया। आज उसकी बारी थी।

         मां को पार्क से वापस लाकर वह उनके पैरों की मालिश करने लगा। यह उसका रोज का नियम था, इस उम्मीद में कि शायद एक दिन मां अपने पैरों पर खड़ी हो सके। फिर उसने अपने हाथों से एक एक निवाला मां को खिलाया।

आखिरी निवाला खिलाकर पानी पिलाया और तौलिए से मां का चेहरा  पोंछा। मां के चेहरे पर तृप्ति के भाव थे और बेटे के चेहरे पर संतुष्टि के। दृश्य वही 30 वर्ष पूर्व का था बस किरदार बदल गए थे………..

कहानी अप्रकाशित,मौलिक एवं स्वरचित है।

   तृप्ति उप्रेती

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