क्या सारी जिम्मेदारी आपकी है?  – गीता वाधवानी

सुंदर, सुशील, व्यवहार कुशल सांची का 3 वर्ष पहले अखिल से विवाह हुआ था। अखिल की माताजी मृदुला बहुत सरल और सहयोगी स्वभाव की महिला थी और अखिल के पिता चंद्रप्रकाश अक्खड़, स्वयं को सर्वोच्च और सर्वगुण संपन्न समझने वाले व्यक्ति थे। 

      सांची तब से देखती आ रही थी कि कैसे उसकी सासू मां सुबह सुबह उठकर उसके ससुर जी का नाश्ता और टिफिन तैयार करती है। ससुर जी का उनको सख्त आदेश था कि सुबह 7:30 बजे तक उनका चाय नाश्ता और टिफिन मेज पर तैयार होना ही चाहिए। 1 मिनट की भी देरी उन्हें बर्दाश्त नहीं थी, वे तुरंत चीखना चिल्लाना और डांटना शुरू कर देते थे। उनकी गालियां देने की भी बहुत आदत थी। यहां तक कि सासू मां के बीमार होने पर भी उन्हें कोई आराम नहीं मिलता था। 

      सांची उनसे कहती थी-“मां, मैं आपकी मदद कर देती हूं, आप थोड़ा आराम कर लीजिए।” 

    तब मृदुला जी कहती-“अरे बहू छोड़, जा ,जाकर तैयार हो। तुझे भी तो ऑफिस के लिए 8:00 बजे निकलना है। मैंने तेरा और अखिल का लंच भी पैक कर दिया है। याद से ले जाना। जब तुम लोग ऑफिस के लिए चले जाओगे, तब मुझे आराम ही तो करना है।” 

       शाम को ससुर जी 6:00 बजे ऑफिस से आ जाते और 6:15 पर उन्हें हर हाल में चाय चाहिए और ठीक 9:00 बजे रात का खाना। आधे घंटे बाद एक कप गर्म दूध और फिर सरसों के तेल से पैरों की मालिश। 

     अब तो चंद्र प्रकाश जी नौकरी से रिटायर हो गए थे। अब वे सुबह अपने दोस्तों से मिलने पार्क में जाया करते थे और उनके साथ खूब बातें करके, गप्पे लड़ा कर 1 घंटे बाद वापस आते थे, वैसे उन्हें सैर करने का कोई खास शौक नहीं था। रिटायरमेंट के बाद उनके आदेशों में एक आदेश यह भी जुड़ गया था कि दोपहर का खाना ठीक 2:00 बजे मिल जाना चाहिए और उसके बाद में जब लंबी तान कर सो जाऊं, तब 5:00 बजे तक मुझे कोई डिस्टर्ब ना करें। 

    हर समय पर खाना उन्हें बहुत ही स्वादिष्ट चाहिए  और जरा सी भी कमी वे सहन नहीं करते थे। 

       दोपहर में अगर मृदुला जी का कभी लेटने का मन होता तो वह अपने पति के सो जाने के बाद थोड़ी देर लेट जाती और उनके जागने से पहले उठ जाती। वरना वे उन्हें हर समय सोने का ताना मारते थे।कभी कमर में या सिर में दर्द होने पर वह अपने पति से नहीं कहती थी वरना वे इस पर भी उन्हें ही दोष देते थे कि-“मेरी तरह पार्क तो जाती नहीं हो इसीलिए तो तुम्हारा शरीर बैठता जा रहा है। ” 



      मृदुला जी अगर कहीं किसी रिश्तेदार के यहां जाना चाहती तो चंद्र प्रकाश जी उन्हें जाने नहीं देते थे और जहां वह स्वयं चाहते थे, वहां वह मृदुला जी का मन ना होने पर भी जबरदस्ती ले जाते थे और कहते थे कि इतनी बड़ी उम्र हो गई है दुनियादारी कब सीखोगी और जाने से मना करने पर गालियां देना शुरु कर देते थे। 

      एक बार मृदुला जी से सांची ने कहा-“मां जी, आप पिताजी से इतना दबती क्यों है और डरती भी है। आपका जो मन करता है वही कीजिए।” 

      मृदुला जी-“सांची बेटा, इतनी उम्र निभा ली, अब क्या इस उम्र में अपनी मनमर्जी चलाऊंगी, हां वैसे अगर देखा जाए तो, मेरी गलती भी है। मैं इनके आदर और प्यार के कारण इनकी सारी बातें बिना सोचे समझे मानती चली गई और इन्हें लगने लगा कि मैं हमेशा सही कहता हूं और मेरी पत्नी मुझसे डरती है।” 

        एक बार सांची ने अखिल से कहा था-“तुम पिताजी से कुछ कहते क्यों नहीं, वह बात बात में मां का अपमान करते हैं मानो कि वे उनकी पत्नी नहीं, नौकरानी है।” 

अखिल-“मां ने मुझे एक बार मना किया था कि तुम कुछ मत कहा करो।” 

    अब रिटायरमेंट के बाद बाबूजी ने ठान लिया था कि मैं और मृदुला गांव जाफर रहेंगे। अखिल और सांची ने बहुत मना किया पर वे टस से मस ना हुए। 

     दोनों गांव चले गए। पिताजी तो वहां मस्त हो गए पर मां वहां पर अकेली पड़ गई। कभी कभार कोई औरत मिलने आ जाती थी बस। 

     कुछ समय बिता। अखिल और सांची ऑफिस से छुट्टियां लेकर गांव आ गए। सांची ने नोट किया कि पिताजी की सेहत तो और अच्छी हो गई है पर मां जी निढाल, थकी थकी सी नजर आ रही है। वह समझ गई कि शहर में तो बहू बेटे का लिहाज करके चंद्र प्रकाश जी मृदुला पर फिर भी कुछ कम ऑर्डर चलाते थे पर यहां उन्हें देखने वाला कौन था। सांची को अपनी सास की सहनशीलता पर बहुत गुस्सा आ रहा था। 

       उसने मृदुला जी से कहा-“अब बस कीजिए मां जी, सेवा के नाम पर क्यों गुलामों की तरह जीवन जी रही है। यह भी कोई जिंदगी है।” 



     मृदुला-“सांची, आ बैठ मेरे पास। आज मैं तुझे अपने दिल का सच बताती हूं। तुझे तो पता ही है कि अखिल को हम ने गोद लिया था। बहुत वर्षों तक इंतजार करने पर भी मुझे संतान प्राप्ति नहीं हुई। तब तेरे ससुर जी अगर चाहते तो मुझे छोड़कर दूसरा विवाह कर सकते थे। लेकिन उन्होंने मेरी बात मानी और अखिल को मेरी गोद में डालकर मुझे मां कहलाने का सुख दिया। मैं आज भी स्वयं को ही दोषी मानती हूं कि मैं एक औलाद पैदा ना कर सकी।”इतना कहकर मृदुला जी जार जार हिचकियां लेकर रोने लगी। सांची उनकी सहनशक्ति देखकर है रान थी। 

उसने कहा-“मां जी यह तो भगवान की मर्जी थी। आप खुद को दोषी ना समझे। अखिल और आपका प्यार देखकर तो कोई कभी भी कह नहीं सकता कि आप ने उन्हें गोद लिया है। ” 

     बात खत्म करके दोनों सास बहू आंगन में आकर बैठी। तभी खेतों में से घूम कर अखिल और उसके पापा भी आ गए। चंद्र प्रकाश जी ने मृदुला को अगले दिन नाश्ते में बेसन का हलवा बनाने को कहा। 

   मृदुला जी ने सुबह हलवा बनाया और परोस दिया। चंद्र प्रकाश जी ने हलवा चखा और उनका पारा हाई हो गया। जोर से चिल्लाए-“यह क्या बनाया है बकवास, इसे हलवा कहते हैं?”उन्होंने कटोरी फेंक दी। 

मृदुला जी ने बड़ी सौम्यता से पास आकर कहा-“इतना गुस्सा क्यों करते हो, आप के फायदे के लिए ही कम चीनी डाली थी। अगर आपको पसंद नहीं आया तो मैं और चीनी डाल देती हूं।” 

       लेकिन ये क्या? चंद्र प्रकाश जी ने आव देखा न ताव, कुर्सी से उठकर मृदुला जी के गाल पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया। मृदुला जी की आंखों से झर झर आंसू बह निकले। उनके मुंह से एक शब्द नहीं निकल पा रहा था। ऐसा लग रहा था कि उनका दिल फट गया है फिर भी वे शांति रहने की कोशिश कर रही है। 


       सांची और अखिल तो हैरत में पड़ गए। पिताजी तो गांव आकर और ज्यादा अक्खड़ हो गए हैं। लेकिन यह देखकर सांची अब चुप ना रह सकी। उसने गुस्से में अपने ससुर उसे बोल ही दिया-“बस अब बहुत हो गया पिता जी, मां जितना चुपचाप सहती जा रही है आप उन्हें उतना ही अधिक दबाते जा रहे हैं आज तो आपने अपनी सीमा लांघ ली। आखिर उनका भी तो कोई सम्मान है। आप उनके “आत्मसम्मान” को वर्षों से कुचलते आ रहे हैं।” 

चंद्र प्रकाश-“बहू, तुम बीच में मत बोलो।” 

सांची-“बोलूंगी मैं, मां जी को अब से देख रही हूं जो आप कहते हैं करती जाती है क्योंकि आपसे बहुत प्रेम करती हैं। आपकी पत्नी है वो, लेकिन आज आपने पत्नी को गुलाम और कमजोर औरत समझ कर हाथ उठाया है। इसीलिए आज औरत ही औरत का साथ देगी।” 

मृदुला जी से कहती है-“चलिए मां जी, आप हमारे साथ शहर चलकर रहिए। यहां पिता जी अपनी देखभाल स्वयं कर लेंगे।” 

मृदुला-“यह तुम क्या कह रही हो?” 

सांची-“मां और कितना अपमान सहन करोगी। क्या इतने वर्षों में आपने गृहस्थी संभाली नहीं है, क्या इसे संभालने की जिम्मेदारी सिर्फ आपकी है। पति का ध्यान रखना, उसकी देखभाल करना पत्नी का फर्ज है तो क्या पति का यह कर्तव्य नहीं कि वह भी पत्नी का ध्यान रखें ,उसे जीवनसाथी समझे ना कि अपना गुलाम। पिताजी ने आपका कितना ध्यान रखा है हम सब ने देखा है। आज आप अपने”आत्म सम्मान”की खातिर अपने डर को निकाल दीजिए, हम आपके साथ हैं।” 

ऐसा कहकर सांची ने मृदुला का एक हाथ कसकर पकड़ लिया और दूसरा हाथ अखिल ने। दो – दो संबल पाकर मृदुला ने अपने अंदर असीम शक्ति महसूस की और अपना “आत्म सम्मान”समेट कर चल पड़ी, अपने बच्चों के साथ शहर की ओर। मृदुला जी को लग रहा था कि इतने वर्षों में आज उन्होंने आजादी की सांस ली है। 

मौलिक स्वरचित 

गीता वाधवानी दिल्ली

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