राधिका ने हंस कर सबका स्वागत किया……..। आइए आइए कैसे हैं आप सब बैठिए बैठिए और दीदी कैसी है आप बच्चे तो दिख रहे पर जीजा जी कहां है।
कुछ नहीं बस उन्हें काम थोड़ा ज्यादा था , इसलिए वो बोले तुम चली जाओ फिर हमें भी तो…….।
हां वो तो है ये दिन ही ऐसा है कि हर कोई व्यस्त रहता है।
चलिए कोई बात नहीं कहते हुए वो रसोई में चली गई।
चाय का पानी चढ़ा बिट्टू को आवाज लगाई…..।
बिट्टू देख बुआ आईं हैं चल नीचे उतर के आ जल्दी ,कहती हुई डब्बे खंगालने लगी।
थोड़ी सी चीनी थोड़ी सी चाय पत्ती थी जो कि अभी का काम चल जाएगा बुदबुदाती हुई प्याज काटने लगी ।इतने में रेखा भी रसोई में आ गई।क्या कर रही हो भाभी लाओ मैं कर देती हूं।अरे बैठो बैठो कुछ नहीं बस चाय बना रही चलो आती हूं लेकर, गर्मी में काहे परेशान होती हो।
अभी तो सफ़र से चली आ रही हो।
कहते हुए वो प्याज का छिलका उतारने ही वाली थी ,कि रेखा ने उसका हाथ पकड़ लिया।
अरे अरे ये क्या कर रही हो सिर्फ चाय बनाओ ,मैं ढेरों नाश्ता लाई हूं अभी सब आ जाएंगे तो बात करने का मौका नहीं मिलेगा।
चलो चाय लेकर बैठक में चलते हैं।
कहते हुए उसने चाय को हिलाया और कप में जानने लगी।
इतनी देर में सुमित भी आ गया।फिर सबने बैठकर चाय पी।उसके बाद बात करते करते देर हो गई तो बोली ऐसा करो भाभी खिचड़ी बना लो कल जब जीजा जी आएंगे तो कुछ बनाना।
अरे नहीं नहीं तुम तो और इतने दिन बाद आई हो और खिचड़ी।हां भाभी खिचड़ी तुम तो जानती हो मुझे खिचड़ी कितनी पसंद है और वहां कोई खाता ही नहीं तो बनती ही नहीं प्लीज बनाओ ना।
कहते हुए वो उसके गले लिपट गई।
अच्छा अच्छा बाबा बनाती हूं कहते हुए वो रसोई में गई और खिचड़ी चढ़ा दी।
इतनी देर में दरवाजे पर सब्जी वाला बोला तो रेखा दौड़कर सब्जी वाले को रुकवा ली,और ढेरों सब्जियां खरीद डाली।
ये देख राधिका गुस्सा भी हुई , उसके इतना कहने पर कि क्या अब ये घर मेरा नहीं कि हम भी कुछ कर सके।उसे चुप करा दिया।
फिर क्या खूब धमाचौकड़ी हुई।हफ्ता कैसे बीत गया पता ही न चला ।राखी भी आई सबने बांधी भी। पकवान भी खाए ,पर राधिका के चेहरे पर एक अजीब सी शून्यता रही जिसे सिर्फ़ उसकी वर्षों साथ रही हमजोली ही समझ सकी।
क्योंकि उसने पूजा करते वक्त उसे कृष्ण को दो राखी समर्पित करते हुए मीठा खिलाकर अपने जीवित पर रिश्तों में आई एक ऐसी खाई को जो वक्त भी नहीं भर सका उस बिछड़े भाई के लम्बे उम्र की कामना करते सुन लिया था।
हे न अजीब स्त्रियों का जीवन ग़म हो या खुशी खुद को सामान्य रखती हुए हर दौर को जीना है।
स्वरचित
कंचन श्रीवास्तव आरज़ू