कहानी बहु की कहानी – मनीषा देबनाथ

हां हम लेखक है, हम रोज कहानियां ढेर सारी लिखते है हर रोज नई रचनाएं बनाते है। उन रचनाओं में हम कितने किरदारों को नाम देते है। कितनी बार किसी को मौत देते है तो कितनी बार हम अपनी कहानियों में किसी को चमत्कारिक जीवन दान देते है। हमारी कहानी के किरदार और घटनाए हमारे बस में होते है। लेकिन इसके बीच हम एक लेखक की कहानी कई बार बायां नहीं कर सकते। क्यों की एक लेखक होना भी आसान नहीं है।

उस दिन एक ऐसी ही कहानी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। नहीं नहीं… आप जिस कहानी के बारे में सोच रहे है वो नहीं नही, ये कहानी है सुशीला की बहु, जिसका नाम कहानी है। वो पेशे से एक लेखिका थी. को लेखिका इस लिए नही थी की वो उसका शौक था। को लेखिका इस लिए थी क्यों की शादी होते ही ससुराल में उसे एक दुर्घटना का सामना करना पड़ा। है वो ये था की सास ने कह दिया,

“देखो बहु हमारे खानदान की बहुएं बाहर जा कर नौकरी नहीं करती… ये तो हमने शादी से पहले ही तुम्हारे मां बाप को बता दिया था!” 

अब किसी पढ़ी लिखी लड़की के लिए ये एक दुर्घटना से कम था क्या! 

वैसे उसने ससुराल के जीवन को अपना तो लिया था। लेकिन दो साल बैठ कर सासुरल में सिर्फ घर का काम, सास ससुर की सेवा और पति की सेवा करती हुई कहानी खुद को अनपढ़ ही महसूस करने लगी थी। तो उसे हटाने के लिए एक दिन उसकी नज़र सोशल मीडिया के एक मंच पर पड़ी. और वो मंच का नाम था “किताब_ए_कलम”। 

कहानी उस सोशल मीडिया के पेज पर रखी गई तरह तरह की अलग अलग रचनाएं और सुंदर कविताएं पढ़ती गई। जो उसकी तरह कई और औरतें द्वारा प्रकाशित की गई थी। कहानी को वो देख कर जैसे एक छोटा सा पंख मिल गया हो। उसने भी अपनी शानदार रचनाएं लिखनी सुरू की, कहानियां लिखनी सुरू की और उसी मंच पर धीरे धीरे वह अपनी शानदार रचनाओं से वह आगे बढ़ती जा रही थी। हां कदम बहुत ही छोटे थे बिना शोर शराबे वाले, लेकिन कहानी को ये खुद पर यकीन था की उसकी कहानी एक दिन लोग पढ़ेंगे और उसका साक्षात्कार भी होगा।




“अरे अरे… बहु कहां खोई हुई हो दूध उबल रहा है देखो तो कितना सारा दूध उबल कर गिर चुका है! सामने खड़ी देख रही हो लेकिन गैस बंध करना समझ नहीं आया! कहानी बहु भी ना पता नही कहां खोई रहती है।”

सुशीला झट से जा कर कहानी बहु के सामने उबल रहे दूध का गैस झट से बंध कर बड़बड़ाती हुई रसोई से चली जाती है दूसरे कमरे में। इधर कहानी इतनी खोई हुई थी की उसे यह भी पता नहीं चला की कब उसकी सास आई और गैस बंध कर के चली गई। उसे यूं तो अपनी सास के ऐसे बड़बड़ाने से कहा फर्क पड़ रहा था। वो तो अपनी ही कोई कहानी के गुमशुदा थी। आपने आप में भटकी हुई कहानी गर्म दूध के पतीले को अपने खुले हाथ से उतरते हुए उसके हाथ जल जाते है। फिर देखती है की दूध का गैस तो किसीने पहले ही बंध कर दिया। देखा सास तो बड़ी भड़की हुई है और गैस पर दूध भी गिरा हुआ है। कहानी समझ गई की फिर से वो अपने कहानी के कोई किरदार के सोच में ऐसी डूब गई की उसे आस पास का कोई भान ही नहीं रहा। कहानी अब घड़ी की और देखती है। पति के ऑफिस जाने का समय हो गया था। दौड़ती भागती हुई कहानी पति के लिए चाय नाश्ते का इंतजाम कर देती है। टेबल पर आ कर पति सोमेश ने कहा,

“अच्छा मैडम आज भी देरी कर दी इतना क्या कौनसे कहानियों में खोई रहती हो… और आज तक कुछ ढंग का लिखा भी है क्या तुमने! और कौनसी ऐसी बड़ी लेखिका बन ने चली हो इन सबसे कुछ हासिल नहीं होगा! हो सके तो ठीक से अपने पति और घर पर ही ध्यान दे दो! क्या पता मां और मैं भी तुम्हारी उस बात पर जम कर तारीफ़ कर देंगे। यही तो चाहिए ना तुम्हें लोगों की तारीफें!”

“अच्छा, ये किसने कह दिया आपसे की मुझे सिर्फ लोगों के मेरी तारीफ़ करवाने से मतलब है, माना की अभी में बस कुछ छोटी बड़ी कहानियां हर रोज़ सोशल मीडिया पर डाल कर ही अपना शौक पूरा कर रही हूं! लेकिन देखना एक दिन तुम भी अपनी कहानी की कहानियां पढ़ोगे!”

“माफ़ करना मोहतरमा… हमें साहित्य और कहानियों में कोई रुचि नहीं!”

पति सोमेश ऑफिस चला गया. उधर सास सुशीला का बड़बड़ाना बंध नहीं हुआ. लेकिन कहानी ने उस पर ध्यान नहीं दिया. बाकी बचा काम वह चुप चाप से अपनी सास के सामने खुद को ना लाने की कोशिश करती हुई अपना काम करने लगी. और फिर कहानी को जल्द से जल्द घर का काम निपटा कर सुबह जो घटनाएं उसके जहन में घूम रही थी, जो उसे अपनी कहानी को आगे बढ़ाने के लिए लफ़्ज़ मिल गए थे… उसे एक स्थाई स्वरूप भी तो देना था! कहानी सब काम खतम कर अपने कमरे में अपना फोन ले कर बैठ गई और तभी सास कमरे में आई,




“बस बैठ गई महारानी… दोपहर का खाना कौन बनाएगा! भूखा मरोगी क्या हमको!”

“नहीं माजी अभी खाने में तो समय है ना तब तक बना दूंगी!” 

कहानी अपने फोन में अपनी कहानी को आगे बढ़ा रही थी. एक घंटा बीत चुका था सास गुस्से में फूल रही थी. कभी बहु के कमरे में चक्कर लगा रही थी तो कभी अपने कमरे से ले कर रसोई के आंगन तक… बहु कहानी लिखते हुए इतनी खो गई की उसे समय का भान ही नही रहा. वह कहानी लिखते हुए कभी मुस्कुरा रही थी तो कभी उदास हो रही थी. क्यों की उसकी कहानी अब सीमा छू रही थी. उसे आसपास और कुछ नज़र नही आ रहा था सिवाय अपनी कहानी को एक सुनहरा अंत देने के। 

अपनी बहु को अकेले बैठ कर कभी मुस्कुराता और कभी उदास होते देख सास के तो तोते उड़ रहे थे। अपनी बहु कहानी का ये रूप आज से पहले देखा भी तो नहीं था। सास सुशीला के मन में खयाल आया की कही उसकी बहु कहानी, दिमागी बीमारी से तो पीड़ित नहीं है! अरे… कहीं वो पागल तो नहीं है! सास तो डर गई। और बिना बोले दोपहर के खाने का खुद ही इंतजाम करने लगी. लेकिन सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम हो चुका था। कहानी एक ही जगह पर बैठी कहानी को आगे बढ़ाए ही जा रही थी. और आखिर के कहानी ने अपनी कहानी को अंत दिया और वहां से उठी तो देखा शाम के छे बज चुके थे। ना ही उसने दोपहर का खाना बनाया और ना ही खुद खाया। अपनी कहानी के दौरान सास ससुर की सेवा में चूक तो गई थी।

शाम को पति सोमेश घर लौटा और सास ने पति के कान भरने सुरू कर दिए। पास में बहु कहानी भी खड़ी थी। पर उसे कोई फर्क नही पड़ रहा था। पति बहुत गुस्से में था अपनी पत्नी कहानी को वह सुनाए जा रहा था। लेकिन कहानी फिर से अपनी ही कहानी के खोए हुए मुस्कराए जा रही थी. पति ने भी मान लिया की उसकी पत्नी पागल हो चुकी है। घर से निकाल दिया गया, उसे मायके भेज दिया गया। ये कह कर की पागल लड़की के साथ उसकी शादी करवा दी गई… जिसे खुद अपना भान नहीं रहता वो घर और संसार क्या संभेलगी! लेकिन बहु कहानी फिर भी चुप थी। क्यों की उसे अपने ससुराल से निकाले जाने के गम से ज्यादा खुशी इस बात की थी की आखिर लंबे समय के बाद, काफी संघर्षों के बाद उसने अपनी कहानी को अंत दे ही दिया था। 

“बेटी कहानी ऐसी तो नहीं थी, क्या हुआ बेटा ऐसा क्या कर दिया की तुझे ससुराल वाले पागल कहने लगे!”

मां परेशान पिता नादान, अपनी बेटी से सवाल पर सवाल करते रहे… कहानी ने एक ही बार में जवाब देते हुए कहा,

“मां आपने और पिता ने मुझे ऐसे घर में भेजा जहां लड़कियों के पंख होना और उन्हें उड़ने की इज़ाजत ही नहीं… तो जब मैने थोड़े से पंख फैलाए और उड़ने की कोशिश की तो मेरे पति और सास को ये रास ना आया! उस दौरान मैने उन महान कलाकारों के बीच खुद एक लेखिका होने का सफर तय किया है… ना भूख महसूस की ना प्यास आड़े आई! और इसी बात को वो मेरा पागलपन मान बैठे!” 




कहानी के मां बाप को उसकी बाते समझ नहीं आ रही थी।समय गुजरता गया। कहानी मायके में ही रहने लगी, ससुराल से ना किसी को खबर ना ही कहानी ने उनकी खबर लेनी जरूरी समझी। मां पिताजी परेशान हुए जा रहे थे, और अपनी बेटी से साफ़ साफ़ बात करने ही जा रहे थे की आखिर उसे करना क्या है… और तभी फोन की रिंग बजी, कहानी ने फ़ोन उठाया और बात की… थोड़े ही देर में उसने फोन काट दिया और कहा,

“कल आपको और पिताजी को मेरे साथ आना है और मां जरा वो आप बनारसी साड़ी पहन लेना और पिताजी आप वो जो नारंगी रंग का कुर्ता है ना आपके पास जो आपको बहुत पसंद है वो पहन लेना, हमे कल एक जगह जाना है!”

अपनी बेटी पर उनको पूरा भरोसा था। सुबह हुई और कहानी अपने मां और पिताजी को एक ऑफिस ले आई। देखते ही पिता समझ गए की ये एक पब्लिकेशन हाउस है। पिता ने अपनी बेटी की तरफ देखा और मां तो एकदम अनजान ही थी। थोड़े ही देर में ऑफिस के अंदर बुलाया गया और कहानी ने एक डॉक्यूमेंट साइन की जिस पर लिखा था की उसकी लिखी हुई कहानी का विमोचन होने जा रहा था। और पहले उसकी किताब की उसकी साइन की हुई पहली १००० कॉपीज बनेगी। उसकी किताब का एडवांस कहानी को दिया गया, वो एडवांस कहानी ने अपने पिता और मां के हाथ में थमा कर बोली…

“मैं पागल हूं सही मां, पर मेरा पागलपन यही तक सीमित था… मेरी किताब जब लोगों के दिल तक पहुंचेगी तब कहना मेरे ससुराल वालों को की एक पढ़ी लिखी गावर बहु से बेहतर था मेरा पागल हो जाना!”

अगले ही पल कहानी का साक्षात्कार भी हुआ, जिसमे कहानी ने अपनी कहानी के कुछ वो लम्हें जाहिर किए जो उसकी किताब में लिखी हुई कहानी का हिस्सा थे। 

कहानी की कहानी तो आखिर बयां हो गई लेकिन उसका संघर्ष आज भी जारी था, क्यों की वो रुकना नहीं चाहती थी। 

तो ये थी कहानी बहु की कहानी, पर ऐसे ही इन्हीं कहानियों के बीच कहीं ना कहीं इसके किरदार और एक लेखक के असल जीवन के किरदार मिलते जुलते लगते है ना! 

मनीषा देबनाथ (स्वरचित)

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