इंसानियत – नीलम सौरभ : Short Moral Stories in Hindi

Short Moral Stories in Hindi : “ये क्या समाजसेवा का चस्का पाल लिया है भाभी आपने? इतनी ठण्ड में यूँ रात को टहलने निकलने की आपकी सनक पहले ही समझ में नहीं आ रही थी पर अब तो और भी….हर बार टाल जाती हो आप लेकिन आज बताना ही पड़ेगा!”

उर्मि ने आज अपने कमरे की ओर बढ़ रही सोनाली को हाथ पकड़ कर रोक ही लिया था। ननद के सवाल पर वह जब ठिठक कर खड़ी रह गयी, उसके पति करुणेश ने उसे बाँह से पकड़ पास खींच लिया और हॉल में जल रहे अलाव के पास अपने बाजू ही बिठा लिया।

कड़कड़ाती ठण्ड में घर की सारी युवा पीढ़ी वहाँ बैठी हुई थी। सब उसका मुँह देखने लगे तो वह एकदम से सकुचा उठी। क्या बताये, किन शब्दों में बताये कि घर के लोग समझ सकें, परेशान होकर वह यही सोचे जा रही थी।

सुन्दर, सुशील सोनाली साल भर पहले जैसे ही सरकारी बैंक में ऑफिसर बनी थी, उसके लिए रिश्तों की कतारें लग गयी थीं। जिनमें से एक करुणेश को सुयोग्य वर जान कर माता-पिता ने उसके साथ अपनी लाड़ली को ब्याह दिया था।

बड़े धूमधाम से विवाह के सारे संस्कार हुए और सोनाली विदा होकर अपने नए घर आ गयी थी। मायके की तुलना में ससुराल अति सम्पन्न था और ससुर जी के दो अन्य भाइयों का परिवार भी साथ ही रहता था यानी कि संयुक्त परिवार की नयी-नवेली बहूरानी बन कर आयी थी वह।

वैसे तो सबकुछ सहज, स्वाभाविक ढंग से ठीक चल रहा था, किन्तु सोनाली की कुछ आदतें ससुराल वालों को बहुत असामान्य लगती थीं। जैसे अपने खाने-पीने, घूमने-फिरने या फिर मूवी-थियेटर जैसे केवल ऐश-मौज के लिए किये जाने वाले खर्चों में भरसक कटौती करती दिखती थी वह।

कभी-कभी तो इस हद तक कि पीठ पीछे लोग उसे कंजूस की उपाधि देते थे। मगर वही सोनाली जब कभी सुपरमार्ट जाती या कहीं और घर-परिवार के लिए खरीददारी के लिए जाती तो कभी आठ-दस पीस पतले कम्बल खरीद कर रख लेती, कभी सस्ती साड़ियाँ तो कभी बिस्कुट टोस्ट आदि के पैकेट बिना के कारण ले लेती और अपने पास ही सँभाल कर रख लेती।

सबको पहले तो लगता था कि शायद मायके में इसने गरीबी देखी है इसीलिए कंजूसी और सस्ते सामान खरीदने की आदत पड़ी हुई है लेकिन अब जब इतनी बड़ी अफसर बन गयी है, घर भी भरापूरा है फिर अब क्यों?

फिर भी नयी बहू ज्यादा पूछताछ या टोकाटाकी से बुरा न मान जाये सोच कर सभी समझदारी दिखाते चुप ही रह जाते थे। मगर कौतूहल तो बना ही रहता था।

फिर सोनाली हफ्ते में दो-तीन बार रात का खाना खाने के बाद जिद करके पति के साथ ठण्डी रात में टहलने निकल जाती। तब तक सभी बड़े-बुजुर्ग अपने-अपने कमरों में सोने जा चुके होते थे।

परिवार के सारे बच्चे बीचोंबीच वाले बड़े हॉल में अलाव जलाकर घण्टा भर हँसते-बतियाते मस्ती करते रहते थे। शुरू-शुरू में करुणेश को कोफ़्त होती कि सारी दुनिया जब गरम रजाई में दुबकी हुई है या आग के सामने बैठ सर्दी का मज़ा ले रही है, इन मोहतरमा को इतनी ठण्ड में वॉक या आउटिंग की पड़ी रहती है।

मगर नयी-नवेली पत्नी को रुखाई से मना करते उससे बनता नहीं था, अतः बेमन से साथ चला जाता। फिर धीरे-धीरे वह भी सोनाली के रंग में रंगता चला गया था, बिना कुछ कहे साथ हो लेता। घर में सबको इस बात से भी अचम्भा होता।



सोनाली घर से निकलते समय एक बैग ले लेती। रास्ते में सड़क के दोनों तरफ निगाहें फेरती जाती। कोई फुटपाथ पर ठिठुरता बैठा दिखता या खुले में बिना कुछ ओढ़े सोया हुआ दिखाई देता, बैग से कम्बल या शॉल निकाल कर ओढ़ा देती और बिना कुछ कहे-सुने आगे बढ़ जाती।

काँपते-ठिठुरते बच्चे आग जला कर बैठे दिखते या भूख से बिलबिलाते कुत्ते, छोटे पिल्ले कहीं दिख जाते, सोनाली बिस्किट-टोस्ट के पैकेट फाड़कर सबको बाँटती बढ़ती चली जाती।

घर लौट कर जब अलाव सेंकते घर के अन्य सदस्य उन्हें तिरछी नज़र से देखते आपस में मुस्कुराते, बिना कुछ बोले सोनाली सीधे अपने कमरे में घुस जाती। करुणेश भी चुपचाप उसके पीछे चला जाता। पीछे से सबके खिलखिलाने की आवाज़ें सुनाई देतीं।

“आपके टहलने जाने का रहस्य तो पता चल गया है, अब समाज सेवा का राज़ भी बता ही दो भाभी?”

सोनाली की तन्द्रा भंग हुई। उसने पाया, बड़ी ननद उर्मि तो आज पीछे ही पड़ गयी थी। कल करुणेश भइया से उसे सबकुछ पता चल गया था, जब बाहर से टहल कर लौटने के बाद सबने जबरन पकड़ कर उसे साथ ही बिठा लिया था।

कड़ाके की ठण्ड में भाभी के घूमने निकलने का राज़ जान कर करुणेश के सभी भाई-बहनों को सख्त हैरानी हुई थी। भरी जवानी में भाभी बड़े-बूढ़ों की तरह धरम-करम से पुण्य कमाने वाली सोच रखती हैं या फिर खुद को कुछ ज्यादा ही कूल दिखाना चाहती हैं, कल से सब यही सोच रहे थे।

सोनाली पहले तो मौन धारण करके बैठी रही लेकिन जब छोटी ननद सुमि और चचेरा देवर अभि भी उसके पास सिमट आये, सहानुभूति के साथ पूछने लगे, वह विचारपूर्ण मुद्रा में बोली,

“ठीक है, आप लोग इतना जिद कर रहे हैं तो बताने की कोशिश करती हूँ, मगर वादा करिए कि सब कुछ सुन कर मेरी हँसी नहीं उड़ाएँगे!”

“कोई भी हँसी उड़ाने की सोचेगा तो मेरी तरफ से मार खायेगा, तुम इसकी चिन्ता न करो डियर!” करुणेश ने पत्नी का उत्साह बढ़ाते हुए कहा।

सोनाली अपना अतीत याद करती हुई बताने लगी।

“आप लोगों को तो पता ही है कि चार भाई-बहनों में दूसरे नंबर की हूँ मैं। मेरे पापा की सरकारी नौकरी थी, मगर तनख्वाह छोटी थी। आठ लोगों का परिवार था, दादा-दादी, माँ-पापा और हम चार भाई-बहन। गरीबी-गुजारा वाली हालत थी।

सिर ढाँपो तो पाँव उघड़ जाते थे। पापा एक बात पर शुरू से अड़े हुए थे, चाहे पेट काट कर पढ़ाना पड़े, लेकिन मेरे चारों बच्चे पढ़ेंगे जरूर, जितना चाहेंगे। हम सब भाई-बहनों को घर के बड़ों की ऊँची सोच प्रेरणा देती थी कि चाहे कितनी भी मेहनत करनी पड़े, कुछ भी सहन करना पड़े, अपने पैरों पर खड़ा होकर दिखाना ही है।



इंटर के बाद पढ़ाई के लिए मुझे पास वाले शहर के होस्टल में रहना पड़ा चूँकि रोज 40 किलोमीटर बस से आना-जाना सहज नहीं था।

यह भी एक तरह से अच्छा ही हुआ था। छुट्टियों में कई बार मैं होस्टल से बस द्वारा घर अकेली आ जाती, वापस भी चली जाती तो ऐसे कहीं बाहर आने-जाने, सफर करने में आत्मनिर्भर हो गयी थी जो उन दिनों बहुत जरूरी भी थी।

पापा की तबीयत ज्यादा ठीक नहीं रहती थी और माँ नितान्त घरेलू महिला। दोनों बहनें ख़ुद ही छोटी थीं। और भइया, वे आप ही घर-बाहर के सौ कामों में पहले से उलझे हुए रहते थे।

ग्रैजुएशन की आखिरी साल की परीक्षा के बाद मैंने तीन-चार परीक्षाओं के फार्म भरे थे जिसमें से एक स्टेट-बैंक की नौकरी के लिए था, जिसकी परीक्षा भोपाल में होनी थी। भइया ने मेरा ट्रेन में रिजर्वेशन करवा दिया था और माँ और बहनों ने पूरी तैयारी करके दे दी थी।

रास्ते के लिए खाना, पराँठे, अचार और सूखी सब्जियाँ, ओढ़ने-बिछाने के लिए चादर-कम्बल, शॉल आदि सबकुछ। पापा के साथ मैं समय से पहले रेलवेस्टेशन पहुँच गयी थी। दो दिन बाद भइया की खुद परीक्षाएँ थीं, वे भी तैयारी में जुटे हुए थे, मेरे साथ जा नहीं सकते थे,

भले ही मुझे इस बार बहुत दूर की यात्रा करनी थी। चूँकि हमारे कस्बे से रेललाइन नहीं गुजरी थी तो सबसे पास वाले रेलवेस्टेशन तक बस या अपने निजी वाहन से जाना पड़ता था। स्टेशन पहुँच कर पता चला कि मेरी ट्रेन लेट हो गयी है

जिसकी बिल्कुल भी सम्भावना नहीं थी। हम दोनों पिता-पुत्री परेशान हो गये। इंतज़ार करने के सिवाय कोई चारा नहीं था लेकिन उसकी भी एक सीमा थी। एनाउंसमेंट द्वारा बार-बार सूचना दी जा रही थी कि किसी तकनीकी समस्या के कारण ट्रेन के और अधिक विलम्ब से आने की सम्भावना है।

इंतज़ार करते-करते पापा की जरूरी दवाई का समय पार हो गया था, जिसकी वजह से उनकी तबीयत बिगड़ सकती थी। मुझे उनकी सेहत को लेकर बहुत चिन्ता होने लगी थी अतः मैंने पापा से लेडीज़ रेस्टरूम तक सामान सहित चलने को कहा और वहाँ पहुँच कर पापा को जबरन घर वापस भेज दिया।

रेलवेस्टेशन पर कई और लड़के-लड़कियाँ मिल गये थे जो परिचित तो नहीं थे मगर वे भी मेरी तरह परीक्षा देने ही जा रहे थे। मैं उनके साथ ही हो ली। ट्रेन की राह तकते-तकते अधिकांश की आँखें बोझिल हो चली थीं पर सो जाने का रिस्क मैं ले नहीं सकती थी तो किसी तरह जागती ही रही।

स्टेशन के उस बन्द रेस्टरूम में भीड़ के कारण या फिर उबाऊ प्रतीक्षा के कारण मुझे गरमी और बेचैनी लगने लगी थी तो मैंने पतले आधी बाजू वाले स्वेटर को छोड़कर मफलर और मोटे शॉल को कम्बलों वाले बैग में ही भर दिया कि जब गाड़ी चलने पर ठण्ड लगेगी, ओढ़ लूँगी।

हमारी वह गाड़ी रात को बारह बजे आखिर आ ही गयी। नींद के झोंकों के कारण या फिर एनाउंसमेंट की आवाज़ पर ध्यान न दे पाने के कारण मुझे लगा, गाड़ी बिना सूचना के अचानक आ पहुँची है। पूरे स्टेशन में एक अफरातफरी सी मच गयी थी।

उस भीड़भाड़ की आपाधापी में ट्रेन में चढ़ते समय मेरा सर ट्रेन के गेट के एक हत्थे से टकरा गया। कुछ पल के लिए दिमाग पूरा सुन्न हो गया लेकिन भीड़ के धक्के से मैं बोगी के अन्दर पहुँच गयी। इसी बीच गरम कपड़े, कम्बल और खाने वाला बैग कहाँ छूट गया या गिर गया मुझे कुछ होश नहीं रहा।



बीच सफर में रात के तीन-साढ़े तीन बज रहे होंगे कि अचानक किसी तकनीकी खराबी के कारण ट्रेन धीमी होती हुई रुक गयी। पता चला कोई बड़े खतरे वाली समस्या आ गयी है, ट्रेन किसी जगह सूने जंगल वाले इलाके में रुक कर फँस सकती है। इसी परेशानी के कारण शायद ट्रेन लेट हुई थी।

अब यहाँ से सबसे पास वाले यार्ड में जाकर रुकेगी फिर ख़राबी सुधरने के बाद अपने गंतव्य को जायेगी। मतलब और कई घण्टों की देर होनी तय थी। फिर कहीं से जानकारी मिली कि पीछे दूसरी ट्रेन आ रही है। जिन यात्रियों को जल्दी है, वे उसमें सवार हो सकते हैं। उसके भरोसे 25-30 लोग उतर गये और ट्रेन यार्ड को जाने आगे बढ़ गयी।

जनवरी का पहला सप्ताह, घने जंगलों वाला बियाबान सा स्थान और आधी रात के बाद का ऐसा समय। चिल्ला जाड़ा पड़ रहा था जो हड्डियों के साथ रूह को भी कँपाये दे रहा था। उस छोटे से स्टेशन में मुश्किल से चार सीमेंट की बिना शेड वाली बेंच बनी हुई थी जिस पर यात्रियों का एक झटके में कब्जा हो गया था। शेष लोग नीचे प्लेटफॉर्म पर ही कुछ ओढ़-बिछा कर किसी तरह सिकुड़ कर बैठ गये थे।

मैं भी कितनी देर खड़ी रह पाती। थक कर ठण्डे प्लेटफॉर्म पर अपना स्कार्फ बिछाकर बैठ गयी थी। अपना छोटा बैग मैंने दोनों बाहों से भींच कर पकड़ लिया था, जिसमें जरूरी डॉक्यूमेंट्स और कुछ किताबें ही थीं।

धीरे-धीरे मुझे अनुभव हुआ कि जैसे ठण्ड के कारण मेरा शरीर अकड़ कर सुन्न हो रहा है। भरसक दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ कर उन्हें गर्म करने का प्रयास कर रही थी लेकिन सब बेकार सिद्ध हो रहा था।

हाइपोथर्मिया के कारण मुझ पर बेहोशी छाने लगी थी तभी किसी देवदूत की तरह वह बूढ़े बाबा पास आये थे। उनके पास दो कम्बल थे शायद, जिनमें से एक उन्होंने बिना कुछ कहे मेरे ऊपर डाल दिया था और मेरे सिर पर हल्के से हाथ फेर कर वे आगे बढ़ गये थे।

कम्बल के मिली गर्मी से जब मेरी थोड़ी चेतना जागी, मैंने देखा कि बिस्कुट का एक बड़ा पैकेट भी मेरी गोद में पड़ा हुआ है। पता नहीं ये भी उन्हीं बाबा ने दिया था या किसी और ने, कुछ भी याद नहीं था मुझे। उन बिस्कुटों को खाते ही जैसे मेरी जान में जान आ गयी थी। फिर लगभग आधे घण्टे बाद वो ट्रेन आ गयी थी जिसके लिये हम यहाँ रुके थे।



लोगों के लिए यह बहुत छोटी घटना होगी, पर मेरे लिये बहुत बड़ी थी। अगले दिन वाली परीक्षा में शामिल होने में मैं सफल हो गयी थी। मेरे सभी पेपर्स अच्छे गये थे और फिर मेरा सरकारी बैंक के लिए सेलेक्शन हो गया।

उस भीषण ठण्ड में मैं शायद जिन्दा ही नहीं बचती उस दिन अगर उन बूढ़े बाबा की नज़र मुझ पर नहीं पड़ती। उनकी इंसानियत और दयालुता की वजह से ही आज सही सलामत हूँ मैं और जिंदगी में इतनी सफल भी।

अब वे बाबा तो कहीं मिलने से रहे इसीलिए मैं ऐसे हर इंसान में उन्हें ढूँढ़ लिया करती हूँ जो निरुपाय ठण्ड में काँप रहा हो या भूख से तड़प रहा हो।”

देवर-ननदों के साथ उसके सास-ससुर भी कब अपने कमरे से निकल पास आकर खड़े हो गये हैं, सोनाली को पता ही नहीं चला था। उसे तालियों की आवाज़ सुनाई दी तो उसने सिर उठा कर देखा, उसके ससुर जी उसकी ओर स्नेह भरी दृष्टि से देखते ताली बजा रहे थे।

देखते ही देखते पूरा परिवार ही उनका अनुकरण करने लगा। फिर तो दोनों चाचाजी और चाचियाँ भी वहीं आ गयीं। सबकुछ जान कर वे भी मुक्तकंठ से बहू की संवेदनशीलता की प्रशंसा करने लगे। अब सोनाली भावविभोर सी बस सबको देखे जा रही थी और अनायास ही उसकी आँखों से मोती बरसते जा रहे थे

स्वरचित, मौलिक

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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