गुरु दक्षिणा – संजय मृदुल

रमा ने दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर नौजवान खड़ा था। असमंजस से डूबे हुए स्वर में उसने पूछा- जी कहिए, किससे मिलना है आपको?

अरे रमा आंटी! पहचाना नहीं मैं हूँ रिंटू। आपके पड़ोस में रहते थे ना हम। 

मैं यहीं खड़ा रहूं या भीतर आऊं? उसने पूछा।

अरे! आओ ना। मैं इतने सालों बाद तुम्हें यूँ देखकर थोड़ी हैरान हो गयी। रमा  मुस्कुराते हुए उसका हाथ पकड़ भीतर ले आई।

रमा को याद आ गया रिंटू के पिता सरकारी कर्मचारी थे, ट्रांसफर में यहां आए थे। दो तीन साल रहकर फिर और कहीं चले गए थे।

तुम अचानक यहां कैसे बेटा? और तुम्हे हम, ये घर याद था अब तक? रमा ने प्रश्न किया।

जी आंटी! मेरी बैंक में नौकरी लगी है और पहली पोस्टिंग इसी शहर में मिली।

कुछ दिन पहले ही आया हूँ यहां। माँ ने पता बताया। और आंटी, भूलने का तो सवाल ही नहीं उठता आपको। आपकी वजह से तो आज मैं यहां तक पहुंचा हूँ। आप की दी हुई सीख भूल चुका होता तो पापा की तरह शराबी, जुवांरी हो गया होता।

रमा को बिसरा हुआ सब याद आने लगा। रिंटू के पिता आदतन शराबी थे, करेला और नीम चढ़ा, जुंए का भी जबरदस्त शौक था। आये दिन घर पर महाभारत होता। रिंटू की मां परिस्थितियों के कारण कर्कशा हो गयी थी। रोज रोज की मारपीट, झगड़े ने रिंटू का बचपन छीन लिया था। 

जैसे ही शाम होती वो भागकर रमा के घर आ जाता। जब तक उसके पिता की आवाज आनी बंद नहीं होती तब तक दुबके रहता। रमा को भी उस नन्हे बच्चे पर तरस आता। उसे खाने को देती, पढ़ाती, नई बातें सिखाती।

क्या सोचने लगी आंटी? मैं आपसे ही मिलने आया हूँ आज गुरु पूर्णिमा भी है तो इससे शुभ मुहूर्त नहीं मिलता और कभी आपसे मिलने आपके आशीर्वाद लेने का।

रमा वर्तमान में लौट आई। रिंटू को इस तरह खुश और विश्वास से भरा हुआ देखकर उसे अच्छा लग रहा था।



घर में सब कैसे हैं रिंटू? उसने प्रश्न किया।

सब कौन आंटी? मैं और माँ ही हैं। पापा कुछ साल पहले चल बसे। उनकी जगह माँ को नौकरी मिल गयी।

याद है आंटी, जब मैं रोज आपके यहाँ आकर छुपता था आप कितना समझाती थीं मुझे। जब हम शहर छोड़कर जाने वाले थे आपने एक बात कही थी उसी बात ने मुझे आज ये मुकाम दिया है।

ऐसा क्या कहा था रे मैंने? मुझे तो याद नहीं। रमा ने सवाल किया।

हमारे घर की हालत तो आपको याद होगी? जब हम शहर छोड़कर जाने वाले थे तब आपने मुझसे कहा था, रिंटू! कीचड़ केवल कमल में ही खिलता है। तुम्हारे घर के हालात कितने भी खराब हों तुम कभी अपने पापा की तरह बनने की मत सोचना। बल्कि सोचना की कैसे इनके तरह ना बनूँ। खूब पढ़ना, मेहनत करना, अपनी मां को सारी खुशियां देना। देखना एक दिन तुम्हारे पापा भी समझ जाएंगे सुधर जाएंगे। बस सब्र रखना।

और आंटी जी, मैं ने आपकी बात को गांठ बांध लिया। जितनी भी मुश्किल आई हार नहीं माना। घर में जितना भी माहौल खराब रहा मां को समझाता रहा कि एक दिन सब अच्छा हो जाएगा। और देखिए आज मैं एक अच्छी नौकरी पर हूँ। बस दुःख यही है कि पापा नहीं है। उन्हें भी खुशी तो होती आज।

बिल्कुल होती बेटा। कौन सा बाप बेटे की सफलता पर खुश नहीं होता। भले ही वो खुद कितना भी बुरा क्यों ना हो।

जी आंटी। आपने जो भी सिखाया था उसी का ये परिणाम है।

रिंटू ने बैग से कुछ सामान निकाला, ये मेरी तरफ से कुछ भेंट है मेरी तरफ से गुरु दक्षिणा। मैं आपको दे भी क्या सकता हूँ। आपने तो मुझे इंसान बनाया है,अपना बेटा समझ कर स्वीकार कर लीजिए।

रमा की आंखों में आंसू झिलमिला उठे। स्नेह से उसने रिंटू के सिर पर हाथ फेरा। वाकई कीचड़ में कमल खिलते देख लिया था उसने।

©संजय मृदुल

रायपुर

मौलिक एवम अप्रकाशित

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