गोश्त और रोटी – रचना कंडवाल

उसने दाम चुकाया था, एक लाख रुपए। वो लड़की केवल सत्रह साल की थी। सुंदर, दुबली पतली, चेहरे पर उदासी उसकी खुद की बेटी से एक साल छोटी। उसके पास पैसा था और कुछ था तो रूखी बीवी की बेरुखी। इसने औरत के प्रति उसके मन में बेहद नफरत भर दी थी। उसका बदला उसने अय्याश होकर चुकाया था।ऐसा नहीं था कि ये कोई पहली लड़की थी

इससे पहले भी उसके बिस्तर पर ऐसी कई आई गई थी उसका फार्म हाउस उसकी अय्याशी का अड्डा था। खैर उसने स्कॉच का एक लार्ज बनाया और सिगरेट का एक कश भरा फिर लड़की की तरफ देखा जिसे उसकी खुद की मां ने उसे बेच दिया था। लड़की शून्य में ताक रही थी। आंखें जिन्हें इस उम्र में चमकदार और सपनों से भरी होना चाहिए था वो बेजान थीं। ऐसा लग रहा था वो बहुत कुछ देख कर थक चुकी थी।

नाम पूछने की उसने जरूरत नहीं समझी।

सीधे पूछा, “ये सब तुम पहली बार कर रही हो”।

उसने हां में सिर हिलाया।

और तुम्हारा बाप??

बापू नहीं हैं।

तुम जानती हो कि यहां तुम्हें तुम्हारी मां छोड़ कर ग‌ई है।



उसने फिर सिर हिला दिया।

तो तुम्हें कोई एतराज़ नहीं है।

वो धीरे से बोली, मां  बर्तन और साफ सफाई करती थी मां को कोरोना हुआ तो किसी ने काम नहीं दिया। उसकी आंखें नम हो गई थी।

उसने उसके बगल में बैठ कर उसकी कमर पर हाथ रखा।

महसूस हुआ कि उसका बदन सिहर गया था।

तो तुमने अपनी मां से….. कुछ नहीं पूछा।

पूछा था पर.….. मां ने कहा ये दुनिया भेड़ियों से भरी है।

जिन्हें गोश्त चाहिए और हमें रोटी।

एक छोटी बहन है उसके लिए रोटी…. इतना कह कर उसके आंसू बह निकले।

भेड़िए कैसे होते हैं??? आज उसे पता चल गया था।

© रचना कंडवाल

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