गाँव चलेगा गंवार नहीं – अंजु अनंत

घर में मेरी शादी की बात चल रही थी, उम्र भी हो आई थी शादी की। वैसे तो हमारा पूरा परिवार गाँव में रहता है लेकिन पापा की नौकरी के कारण हम लोग हैदराबाद में रहते हैं।

मुझे मेरे गाँव से बहुत लगाव है, अक्सर गर्मी की छुट्टियों में हम वहां जाते थे।

भरा-पूरा परिवार है वहा हमारा। दादी, चाचा-चाची, बड़ी माँ-पापा और हमारे चचेरे भाई बहन। गर्मियों की छुट्टियों में हम जब वहाँ जाते हैं तब दोनों बुआ भी आ जाती हैं, फिर तो ऐसा लगता है जैसे किसी शादी-ब्याह का माहौल हो।

छोटे चाचा हम सब बच्चों को खेत घुमाने ले जाते, वहाँ हम सब बच्चे मिल कर खूब धमा चौकड़ी मचाते। गर्मियों में आम के पेड़ पर खूब रसीले आम भी मिल जाते खाने को। हम सब बच्चों की तो जैसे पार्टी ही हो जाती। घर आ कर चूल्हे की रोटी, अपने ही खेत की उगी सब्जी और सिल में पीसी हुई टमाटर की चटनी खाने को मिलती।

जैसा कि मैंने बताया कि घर में मेरी शादी की बात चल रही थी, मम्मी पापा के विचार शहर में आने के बाद थोड़ा बदल गए थे, उन्होंने एक अच्छे माँ-बाप का फर्ज निभाते हुए मेरी पसंद पूछी। मैंने एक शब्द में अपना जवाब दिया “मैं गाँव के लड़के से शादी नहीं करुँगी”।

मेरे मम्मी-पापा मेरी बात सुन कर चौंक गए “अरे तुम्हे तो इतना लगाव है गाँव से फिर गाँव में शादी करने में क्या दिक्कत है? तुम्हारे बड़े पापा ने बहुत ही अच्छा रिश्ता खोजा है तुम्हारे लिए, बहुत बड़े लोग है वो, पाँच सौ बीघा खेती है खुद की, खुद का बड़ा सा घर है उनका। लड़के के नाम भी बहुत जमीन है, एकलौता है। जो है सब तुम्हारा ही होगा। राज करोगी वहां तुम।”

पापा-मम्मी की बात सुनने के बाद मेरे पास कुछ कहने के लिए बचा ही नहीं। “माँ-बाप बच्चे के भले के लिए ही करते है सब” ये सिद्धांत अपनाते हुए मैंने हामी भर दी।

लड़का गाँव का था इसलिए हमें भी गाँव ही जाना था। वहीँ दिखाई की रस्म होनी थी।

हम सब दो दिन पहले ही गाँव के लिए निकल गए क्योंकि वहां तैयारियां भी करनी थी।काफी साल बाद गाँव जा रही थी मैं। ट्रेन अपनी रफ्तार में थी, उसी रफ्तार से मैं भी पुरानी यादों में चली गई।

पाँच साल पहले छोटे चाचा की शादी हुई थी, हमारी नई चाची बनारस की थी, बहुत ही अच्छा स्वभाव था उनका।


पढ़ी-लिखे परिवार से आई थी वो। मैं तो उनको देख कर देखते ही रह गई। बहुत अलग थी वो, ना ज्यादा श्रृंगार, छोटी सी माथे पर बिंदी, सर तक पल्लू। बातों में इतनी मिठास झलकता। बड़ी चाची और बड़ी माँ उनके आते ही उनकी बुराई का ठीकरा ले कर बैठ गई “शहरी मेम लाए है देवर जी, पता नहीं कैसे कटेगी।” इतने में दादी में कहा-” सुधिया (सुधा) तू उसे समझा यहां ये सब ना चलेगा।” इतने में बड़ी चाची बोल पड़ी-“अरे अम्मा हमारी सुनेगी वो?? मैने कहा कि नई नवेली को भरा-पूरा श्रृंगार करना चाहिए, पर वो मानती ही नही, बिंदी भी बड़ी लगाने के लिए तैयार नहीं हुई।” तभी बड़ी माँ ने कहा-“मैंने तो बस इतना बोला कि भारी साड़ी पहन लें तो बोलती है मुझसे सम्भाली नहीं जाती भारी साड़ी।” ये सब बातें मेरी समझ से परे थी। मैंने तो मम्मी को भी अक्सर मैक्सी पहने देखा था इसलिए समझ नहीं आ रहा था कि इतनी छोटी सी बात के लिए चाची कैसे गलत हो गई।

हम लोग वहां एक हफ्ता बस रुके थे। मैं इतने दिन बस छोटी चाची के पास ही ज्यादा रहती थी। छोटे चाचा उनको हर छोटी बात पर टोकते, वो कभी चुप चाप सुन लेती, कभी कुछ सफाई देती तो कभी बस मुस्कुरा के रह जाती। “तृषा बेटा उठो स्टेशन आ गया।” मम्मी की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई। ट्रेन से सामान उतार कर हम लोग बस में बैठ कर घर आ गए।

मेरे कदम घर के दरवाजे पर ही ठिठक गए। आज अंदर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। बड़ी मुश्किल से मैं अंदर गई। सब हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे। मम्मी ने स्टेशन से ही लम्बा सा घूँघट ले लिया था। सब से मुलाकात हुई, सिर्फ एक छोटी चाची ही नहीं थी वहाँ।

मैं अपना सामान ले कर छोटी चाची के कमरे में गई। वहाँ दीवार पर कपड़े के पीछे छुपी चाची की तस्वीर को देखा। कपड़ा हटाया, हार चढ़ी हुई उस तस्वीर को देख कर मेरी रुलाई छूट गई -“उफ चाची मरने के बाद भी घूँघट” इतना कह कर मैंने उस कपड़े को फेक दिया। “अरे कपड़ा क्यों हटा दिया बिटिया, सब कमरे में आते है बहुरिया का मुंह देख लिए तो??” बड़ी चाची की बात को मैंने बीच में ही काटते हुए कहा-“तो क्या चाची जी?? अब वो इस दुनिया में नहीं है अब तो उन पर ये नियम-कानून मत चलाओ।” बड़ी चाची मेरी बात का बिना जवाब दिए चली गई।रात फिर गहरा रही थी.. मेरा मन बिल्कुल  नहीं लग रहा था वहाँ… मैं फिर उन्हीं यादों में खो गई।

तीन साल पहले की बात है, अचानक छोटी चाची के बारे में ये बुरी खबर आई कि अब वो इस दुनिया में नहीं है। मुझे चाची से बहुत लगाव हो गया था। ये खबर मेरे लिये सदमा पहुँचाने वाली बन गई थी। हम सब हैदराबाद से गाँव के लिए निकले। डेड बॉडी ले जाने की तैयारी चल रही थी, हमारे लिए ही रुके थे सब। मुझमे ना जाने कहाँ से हिम्मत आ गई मैंने छोटी चाची के ऊपर से कपड़ा हटाया, मेरी आँखों के थमे आंसू फिर झरने लगे। छोटी चाची के चेहरे और हाथ पर जगह-जगह मारने के निशान बने थे। बड़ी माँ ने जल्दी से फिर से ढक दिया और मुझे पकड़ कर दूर ले आई।


दो दिन तक बेहोशी के हालत के बाद जब मुझे थोड़ा-थोड़ा होश आया तो मैंने सुना कि बड़ी चाची छोटे चाचा और बड़ी माँ कुछ बातें कर रहे हैं।”पुलिस वालों से बात कर ली है, वो लोग थोड़ा पैसा ले कर केस बंद कर देंगे” छोटे चाचा ने कहातभी बड़ी चाची ने कहा-“चलो कलंक से बच गए, वरना बड़ी थू-थू होती हमारी।”तभी चाचा ने कहा-“हट मैं नहीं डरता इन सब से, अच्छा हुआ मार दिया मैंने। बड़ा ज्ञान दे रही थी। अरे मेरे पैसे मैं कहीं भी उड़ा दूँ, पेट में बच्चा आते ही बच्चे का भविष्य सोचने लगी। अरे जैसे हम पले है वैसे वो भी पल जाता। मुझसे कहती है टीचर की नौकरी करुँगी, अरे कभी देखा है हमारे यहां की औरतों को नौकरी करते। चार अक्षर पढ़ ली थी तो भूल गई कि औरत की भलाई इसी में है कि मर्द के कहे अनुसार चले।”

“अब हटाओ… जिसको जाना था चला गया। तू परेशान ना होना मुन्ना, तेरे लिए इस बार गाँव की लड़की लाएंगे, इसकी तरह शहरी मेम नहीं।” बड़ी माँ ने चाचा को शांत करते हुए कहाउनकी बातें सुन कर मैं अंदर तक कांप गई। डर, गुस्सा, रोना सब कुछ आ रहा था। उनके जाते ही मैं अंदर ही अंदर खूब रोई। तुरंत मम्मी को बुला कर सारी बात बताई लेकिन मम्मी ने सिर्फ इतना कहा-“सब पता है मुझे, तुम भी चुप रहना। किसी से कुछ मत कहना।” इतना कह कर वो भी चली गई।पुरानी यादें सोचते-सोचते मैं फिर रोने लगी। पता नही रोते-रोते कब आंख लग गई।सुबह उठी, सर भारी सा था। सब अपने कामों में लगे थे।

घर के सभी आदमी आँगन में बैठ कर बात कर रहे थे, शायद मेरे रिश्ते की।”लड़का देखा है हमने, बढ़िया है। खेती-बाड़ी, जमीन-जायदाद सब है उसके पास।” बड़े पापा लड़के के बारे में बता रहे थे, तभी पापा ने पूछा-“कोई नौकरी वोकरी भी है??” बड़े पापा ने आंख दिखाते हुए कहा-” खेती किसानी से बढ़ कर भी कुछ है क्या?? अरे इतनी जमीन-जायदाद है कि नौकरी की जरूरत ही नहीं। आराम से खाते-खाते ज़िन्दगी कट जानी है।”…अगले दिन…लड़के वालों के आने की तैयारियां चल रही थी। मैं छोटी चाची के कमरे में तैयार हो रही थी। छोटी चाची की फ़ोटो को सामने रखा था मैंने। आज चाची में मैं खुद को देख रही थी… कहीं वैसा ही मेरे साथ ना हो जाये जैसा छोटी चाची के साथ हुआ… सोच कर ही डर गई मैं। मैंने चाची की तस्वीर के आगे हाथ जोड़ कर कहा-“चाची मेरे साथ रहना… मेरा साथ देना।”


तभी मम्मी बुलाने आ गई। लड़के वाले आ गए थे। मैं साड़ी पहन कर मम्मी के साथ चल दी, जाते-जाते एक बार फिर से चाची की तस्वीर देखा।सब को नमस्ते कह कर मैं दादी के पास बैठ गई। लड़के के साथ उसके पिताजी, चाचा और चाचा का बेटा आये थे। मेरे पापा थोड़ा नए जमाने की सोच रखते थे इसलिए उन्होंने निवेदन किया कि लड़का और लड़की को आपस में बात करने दिया जाए जिससे वो एक दूसरे को समझ सके। बड़े पापा ने फिर से उन्हें घूर कर देखा लेकिन पापा को कोई फर्क नहीं पड़ा। हम दोनों को चाची के ही कमरे में भेजा गया बात करने के लिए। लड़का जिसका नाम धीरज था मुझसे बात करना शुरू किया, पहले तो उसने अपने बारे में और अपनी जमीन-जायदाद के बारे में बताया जिसे मैं पहले से ही सुन चुकी हूं।

फिर उसने मुझसे पूछा- “तृषा कहाँ तक पढ़ाई की है , आगे क्या करने का सोचा है??”मैंने कहा-” ग्रेजुएशन के बाद ही शादी की बात चलने लगी, अगर आगे पढ़ने का मौका मिला तो जरूर पढूंगी।”मेरी बात में उसकी जरा सी भी दिलचस्पी नहीं थी, उसने लापरवाही से कहा-” हमारे यहां ज्यादा पढ़ी लिखी बहु नहीं चाहिए, बस तुम घर का काम सीख लो। वैसे भी पढ़ के कौन सा चुनाव लड़ना है। औरत को मर्द के कहे अनुसार ही चलना चाहिए।” आखिरी वाली लाइन मेरे दिल को चीर गई। मैंने उस वक़्त कुछ नहीं कहा सिर्फ जी कह कर मुस्कुरा दी। वो फिर इधर-उधर की बातें करने लगा, मैं उसे गौर से देख रही थी। ब्रांडेड कपड़े पहने, महंगी घड़ी, ब्रांड के जूते पहने सर पर स्टाइल से गॉगल रखे, अचानक मुझे अपनी ओर ऐसे देख कर वो सकपका गया।

मैंने मन ही मन सोचा-“काश कहीं से ब्रांडेड सोच भी मिल जाती इसे।”तभी बड़ी चाची आ गई। हम लोग उनके साथ चल दिये।लड़के के पापा ने उससे पूछा रिश्ते के लिए, उसने फिर से लापरवाही से जवाब दिया-“मुझे कोई दिक्कत नहीं है इससे भी पूछ लो।”पापा ने मेरी ओर देखा मैंने तुरंत कहा-“मुझे दिक्कत हैं, मैं ये शादी नहीं कर सकती।”सब लोग मुझे देखने लगे, घर की औरतें भी दरवाजे के पास घूँघट डाल कर खड़ी हो गई। पापा ने कहा-“बेटा क्या हो गया, तुम्हे तो गाँव से कोई परेशानी नहीं है तो फिर??मैंने शान्ति से ही जवाब दिया-“जी पापा गाँव से परेशानी नहीं है पर गंवार से है। मैं नहीं चाहती कि मेरी ज़िंदगी भी छोटी चाची की तरह हो, मैंने उनसे बहुत बड़ा सबक लिया है।  यहां सब चाहते है कि औरत मर्द के कहे अनुसार चले, कोई ये क्यों नहीं सोचता कि औरत तो अर्धांगिनी होती है उसे साथ ले कर चलें। मुझे नफरत है ऐसी छोटी सोच रखने वालों से। पापा…..   गाँव चलेगा, लेकिन… गंवार नहीं।”

 

(स्वलिखित रचना)

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