‘ एक शुरुआत ‘ – विभा गुप्ता

    रश्मि रोज अपने बेटे को प्ले स्कूल छोड़ने जाती, वहाँ दस मिनट रुक कर वापस घर आ जाती और फिर छुट्टी के समय पर बेटे का लाने प्ले स्कूल जाती थी।वह देखती कि प्ले स्कूल के बच्चों की माताएँ कुछ ज़्यादा ही माॅडर्न थीं।कोई आधे पैर वाली जींस के साथ बनियान जैसा टाॅप पहनती तो कोई स्कर्ट।किसी-किसी के जींस को देखकर तो ऐसा लगता मानों रात में चूहे ने कुतर दिये हो।उनके पहनावे में तो माँ वाला लुक ज़रा भी न था।आधुनिकता का ये नया ढ़ंग उसे समझ नहीं आता था।वो सोचती, इन महिलाओं के पास पैसे की कमी तो है नहीं,फिर ऐसे बेढ़ंगे और कम कपड़े क्यों पहनती हैं?फ़ैशन तो कपड़े के होते हैं,यूँ अंग-प्रदर्शन करना कहाँ का फ़ैशन है?

         एक दिन जब वह अपने बेटे को लेने प्ले स्कूल पहुँची तो उसने एक जगह भीड़ लगा देखा।बच्चों की माताएँ वहीं खड़ी थीं, कुछ हँस रहीं थीं तो कुछ अपने मोबाइल से फोटो खींच रहीं थीं।उसने सोचा,कुछ अजूबा होगा,चलकर देखा जाए और भीड़ को साइड करके जो उसने दृश्य देखा तो चकित रह गई।एक अर्द्धविक्षिप्त पच्चीस-छब्बीस वर्षीय महिला बैठी थी जो कभी हँसती तो कभी हाथों से अभिनय करती तो कभी अपने तन पर पड़े चिथड़ों से अपने बदन को ढ़ँकने का असफल प्रयास करती।पुरुषों की नज़रों का उसपर पड़ना तो उसे समझ आया लेकिन महिलाएँ…।खुद फ़टे कपड़े शौक से पहने तो फ़ैशन और इस बेचारी की मज़बूरी,उनके लिए एक मज़ाक!क्या उनकी संवेदना मर गई थी?उसने तुरंत अपने सिर का स्कार्फ़ निकाला और उसके शरीर को ढ़कने लगी, तभी भीड़ से आवाज़ आई, ” एक दिन ढ़कने से क्या होगा? ” वह मन में बोली, ” एक शुरुआत तो करें ” और फिर उसने पास की दुकान से उसकी साइज के कपड़े खरीद कर उसे पहना दिये,कुछ फल- ब्रेड खाने को दिये।साथ में पानी का एक बाॅटल रखकर उसको इशारे से कहा कि खाकर पानी पी लेना।

          उस महिला ने कितना समझा,ये तो रश्मि नहीं जानती लेकिन अगले दिन से उस महिला के आगे भीड़ नहीं लगी।किसी ने उसे प्लेट दे दिया था।वह उस प्लेट से लेकर ब्रेड खा रही थी,रश्मि को देखकर उसने मुस्कुराते हुए अपना एक हाथ उठा दियाजैसे रश्मि को धन्यवाद कह रही हो।उसे देखकर रश्मि ने बहुत सुकून महसूस किया।

          —विभा गुप्ता

              स्वरचित

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