एक नारी का संघर्ष – संजु झा

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,

आँचल में है दूध और आँखों में पानी।”

वर्षों पूर्व   कवि मैथिलीशरण  गुप्त  द्वारा नारी  के प्रति कही गई  उपरोक्त पंक्तियों में अब बदलाव देखने को मिल रहें हैं।अब नारी के आँचल में केवल दूध और आँखों में पानी नहीं रह गया है,बल्कि उनके जीवन में संघर्ष भी जुड़ गया है।वर्षों पूर्व एक नारी को सपने बुनने का कोई अधिकार नहीं था।

उसकी सारी इच्छाएँ परिवार की मर्जी पर ही निर्भर  रहती थीं,वैसे कह सकते हैं कि नारी के लिए अभी भी परिस्थितियाँ कुछ खास नहीं बदली हैं,परन्तु एक अच्छी बात यह हुई है कि आधुनिक पढ़ी-लिखी महिलाएँ अपने अस्तित्व और अपने खिलाफ  हुए अन्याय के लिए आवाजें उठाने लगीं है।उन्हें जीवन में कठिन संघर्ष से भी डर नहीं लगता है।

विदेश में निभा को अचानक भारत के  पड़ोसी अंकल द्वारा माँ की तबीयत खराब  होने की खबर मिलती है।माँ की तबीयत खराब की खबर सुनकर निभा काफी घबड़ा जाती है।ठंढ़ के वातावरण में भी वह पसीने-पसीने हो जाती है।वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है।उसके पति सुरेश उसे संभालते हुए आनन-फानन  में भारत के लिए टिकट कटा देते हैं।उसे भारत विदा करते हुए  सुरेश सान्त्वना देते हुए कहते हैं -” निभा!तुम धैर्य से काम लो।पड़ोसी अंकल  माँ को अस्पताल ले गए हैं,सब ठीक  ही होगा।बच्चों को मैं सँभाल लूँगा,तुम चिन्ता मत करना।”

निभा स्वीकृति में सिर हिलाकर  भरे नयन से पति से विदा लेकर  अपनी फ्लाइट की ओर बढ़ जाती है।नियत समय पर हवाई जहाज तेज गति से उड़ान भरने लगता है।जैसे-जैसे हवाई जहाज अपनी गति पकड़कर आसमां को चूमने लगता है,वैसे-वैसे निभा का मन भी माँ की यादों के पालने में हिचकोले खाने लगा।

वह मन-ही-मन माँ की सलामती की दुआ करते हुए  बातें करने लगी-“माँ के सिवा मेरे मायके में कोई और नहीं है।माँ शब्द  तो अपने आप में संपूर्णता समेटे हुए है,परन्तु पितृसत्तात्मक  समाज ने हमेशा उसे और उसकी माँ को अधूरेपन का एहसास  कराया।कितनी बार उसने  माँ से कहा कि आप हमारे साथ विदेश  चलो,परन्तु हरेक बार संस्कारों की दुहाई देते हुए कहती-“बेटी!अब पराए देश और बेटी के घर क्या रहने जाऊँगी!अपने ही देश की मिट्टी में प्राण त्यागूँगी।”




हवाई जहाज के गन्तव्य स्थान पहुँचने की सूचना से निभा के विचारों पर अचानक से विराम लग जाता है।फ्लाइट से उतरकर निभा सीधे अस्पताल की ओर भागती है। माँ की मौत तो एक दिन  पहले ही हो चुकी थी,परन्तु निभा के लिए  ही माँ का पार्थिव शरीर  सुरक्षित रखा गया  था।

निभा बदहवास-सी माँ को एकटक देखती है,मानो वह माँ के अंतिम दर्शन की स्मृति  सदा के लिए अपने दिल में संजोए लेना चाहती हो।कुछ देर बाद  पड़ोसी अंकल उसके कंधों को थपथपाते हुए उसे सजग करते हैं।खुद को संभालते हुए  वह पड़ोसी अंकल की सहायता से सभी औपचारिकताएँ पूरी करती है,फिर उसे अस्पताल की ओर से माँ का पार्थिव शरीर  सौंप दिया जाता है।

अस्पताल के बाहर उसके सारे पड़ोसी जमा हैं।उनकी मदद से माँ का क्रिया-कर्म सभी कुछ अच्छे से निबट गया।वह सोचती है -“एक तो माँ का सभी के साथ अपनेपन का सम्बन्ध था,जिसके कारण सभी हमेशा सभी कामों में तत्पर  रहें,दूसरी बात अपने देश की उसे सबसे अच्छी लगती है कि सुख में पड़ोसी भले ही बिन बुलाएं न आतें हों,परन्तु वही पड़ोसी दुख की घड़ी में बिन बुलाएं जान लेकर हाजिर हो जाते हैं।”

आज सभी कामों से निवृत्त होने के बाद  निभा बैठी हुई सोच रही है-“अब माँ के बिना यहाँ बचा ही क्या है?बस माँ की कुछ यादें हैं,जिन्हें दिल में समेट लूँ।”

यह सोचकर  बेचैनी में उठकर निभा माँ की आलमारी खोलती है,तो एक लाल रंग की डायरी पर उसकी नजर जाती है। डायरी खोलने पर माँ की लिखावट देखकर  निभा पढ़ना शुरु करती है,जिसमें उसकी माँ के जीवन की संघर्ष-गाथा लिखी हुई है।

डायरी की शुरुआत-

माँ शान्ति देवी-मैं बचपन से ही जिद्दी रही हूँ।जो मेरे मन में आता था,वो मैं जिद्द करके अपने परिवार से मनवा ही लेती थी।मैंने परिवार से विद्रोह कर शहर से बाहर पढ़ने का फैसला लिया।मैं परिवार की पहली लड़की थी,जिसने बाहर पढ़ाई की हो और नौकरी भी।मैं नौकरी पाकर काफी खुश हूँ।मुझमें जवानी का जोश और जिन्दगी का उमंग-उत्साह भरा हुआ है।मुझे हमेशा लगता कि मैं अपनी जिन्दगी अपनी तरह से जिऊँगी।माँ,चाची,बुआ की तरह पति के हाथों की कठपुतली नहीं बनूँगी।घर-परिवार में माता-पिता,भाई सभी मुझे विद्रोहिणी कहते हैं।




 संयोग से उम्र के 25वें वसंत में रमेश मेरे जीवन में आएँ।उनका आगमन मेरे जीवन में वसंत ॠतु के समान था।मेरे जीवन में कल्पनाओं की नई-नई कोपलें

 फूटने लगीं।रमेश देखने में जितने आकर्षक हैं,उतने ही वाक्पटु और व्यावहारिक  भी।रमेश से दोस्ती होने पर मैं कल्पना के सतरंगी इन्द्रधनुष पर चढ़कर जिन्दगी के सुनहरे सपने बुनने लगी।एक दिन हम दोनों भावनाओं के आवेश में बहकर एक-दूसरे  की आगोश में खो गए। हमारा तन और मन एकाकार हो चुका था।हम प्रेम के अद्भुत  समंदर में गोते लगाने लगें।जब हमें होश आया ,तो हमें कोई ग्लानि नहीं हुई। हमारा प्यार सच्चा था।सच्चा प्यार  तो एक-दूसरे में समाहित होने में ही है।हम दिल से पति-पत्नी बन चुके थे।बस समाज की स्वीकृति के लिए  हम दोनों शादी करने को तैयार थे।

डायरी पढ़ते-पढ़ते निभा  माँ के दुख-दर्द को और करीब से महसूस कर रही थी।आँखों के भींगी कोर को पोंछते हुए निभा चाय बनाने के लिए उठती है।हल्का चाय-नाश्ता कर निभा फिर से डायरी पढ़ने के लोभ का संवरण नहीं कर पाती है और फिर डायरी पढ़ना शुरु करती है-

माँ शान्तिदेवी-नियति के गर्भ में क्या छिपा है,कोई नहीं जानता है!अचानक  से मेरी जिन्दगी में काल का क्रूर खेल आरंभ हो गया।  रमेश को ऑफिस के काम से विदेश जाने का मौका मिला।हमदोनों काफी खुश थे।एक महीने बाद  रमेश लौटकर आनेवाले थे,फिर हमारी शादी होनी थी।विदेश जाते समय रमेश का हवाई-जहाज  दुर्घटनाग्रस्त हो गया और मेरी जिन्दगी उजड़ गई।

रमेश के बिना मेरी जिन्दगी अंधकारमय हो गई। 25 वर्ष की आयु में ही मैं बिन ब्याही विधवा बन गई। रमेश के बिना कब सुबह होती,कब शाम होती कुछ पता नहीं चलता!मैं पूरी तरह टूट चुकी थी।बार-बार  मन में आत्महत्या का ख्याल  आता था,परन्तु एक दिन अचानक  रमेश के प्यार का अंकुरण मेरे शरीर में हलचल का आभास देने लगा।अब मैं रमेश की यादों के सहारे उसकी निशानी को दुनियाँ में लाने का साहस बटोरने लगी।

डायरी पढ़ते-पढ़ते निभा ने अपने गालों पर ढ़लक आएँ आँसू को पोंछा और शून्य में इधर-उधर देखने लगी। उठकर सामने टेबल पर से एक गिलास पानी  हाथ में लेकर फिर माँ की संघर्ष गाथा पढ़ने लगी।




 शान्तिदेवी-“बिन ब्याही होकर बच्चे को जन्म देने के फैसले से पिता और भाई  ने मुझे अपनी जिन्दगी से सदा के लिए  निष्कासित कर दिया,परन्तु माँ तो माँ ही होती है।मेरे प्रसव के समय मेरी माँ परिवार से झगड़कर मेरे पास आ गई। “बेटी निभा!जब तुमने इस धरती पर कदम रखा,तो मुझे एहसास हुआ कि रमेश का छोटा रुप फिर से मेरी जिन्दगी में खुशियाँ भरने आ गया है।बेटी!तुम मेरे जीने का सहारा बन गई। मेरी उम्र अभी मात्र 30वर्ष है,परन्तु मेरे जीवन का संघर्ष विस्तृत रुप ले चुका है।

ऑफिस, घर,समाज सभी जगह  लोगों की दिलचस्पी मेरी निजी जिन्दगी में बढ़ने लगी।दफ्तर  से लेकर मेट्रो,सड़कें सभी जगह लोगों की कामुक भरी चुभती निगाहें मेरे शरीर को बेधतीं ।सबकुछ जानकर भी मैं अनजान बनने की कोशिश करती।आजाद ख्यालोंवाली मैं खुद को सीमित दायरों में बाँधने लगी।सिंगल मदर होना मेरे लिए  दुरुह बनता जा रहा है,परन्तु समाज के तानों से मैंने खुद को टूटने नहीं दिया।बेटी!तुम्हारी प्यारी मुस्कान   दुगुने वेग से मुझे जीवन में संघर्ष करने को प्रेरित करती है।

बेटी निभा तुम्हारा चेहरा हर वक्त  मुझमें नई ऊर्जा और नई  स्फूर्ति का संचार करता रहता है।आधुनिक नारी ने बाहरी दुनियाँ में अपने कदम तो निकाल दिए हैं,परन्तु पग-पग पर उसे नई चुनौतियों से संघर्ष करना पड़ता है।बेटी!मुझे आज तुम्हारे स्कूल के प्रिसिंपल की बातों ने  झकझोर कर रख दिया।पढ़े-लिखे पुरुष भी महिलाओं के मनोबल को तोड़ने की कोशिश करते हैं।तुम्हारे दाखिले के समय पिता की जगह जब मैंने अपना नाम लिखने को कहा तो प्रिंसिपल  ने व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष करते हुए कहा -“मैडम!कोई तो इस बच्ची का पिता होगा या यूँ ही आपकी रंगरेलियों

 का परिणाम है?”

सच कहूँ तो इच्छा हुई कि उसी समय उसे थप्पड़ जड़ दूँ,पर तुम्हारे भविष्य का सवाल  था,इस कारण  पिता का नाम रमेश लिखवाया । वास्तव  में वही तुम्हारे पिता थे।

घर के सामने एक दुकानदार है,जो मुझे हमेशा वासनाभरी नजरों से घूरा करता है।नजदीक होने के कारण मैं उसी से घर के सामान मँगवाती हूँ।मुझे उसकी नजरों से क्या मतलब?परन्तु उसने मेरी चुप्पी का गलत अर्थ निकाल लिया।एक दिन सामान पहुँचाने घर आया ,मुझे अकेले देखकर  मेरे साथ बदतमीजी करने लगा।मैंने भी उसे झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ते हुए कहा -” खबरदार!आगे से कभी मेरी ओर तिरछी नजर से भी देखा,तो तुम्हारी खैर नहीं।मैं छुई-मुई सी अबला नहीं,बल्कि पढ़ी-लिखी आधुनिक नारी हूँ।”

दुकानदार  अपनी गाल सहलाते हुए  निकल गया,परन्तु अपनी कुटिल चाल से बाज नहीं आया।
 
हमारा समाज कितना भी आधुनिकता का ढ़ोल क्यों न  पीटे,परन्तु नारियों के प्रति अभी भी अपनी संकीर्ण सोच से ऊपर नहीं उठ पाया है!पुरूष प्रधान समाज में आज भी  अकेली औरत को पग-पग पर  माता सीता की तरह अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है।अपने अस्तित्व  को साबित करने के लिए  संघर्ष का दुरुह मार्ग चुनना
 पड़ता है।फिर मैं खुद को दिलासा देते हुए कहती हूँ -” जब पाँच पतियोंवाली कुलवधू द्रौपदी को भी लोगों की वासनाभरी कुत्सित नजरों का सामना करना पड़ा,तो मेरी हैसियत क्या है? कुलवधू होते हुए  भी द्रौपदी की जिन्दगी ही संघर्षगाथा थी ।मेरी भी संघर्ष यात्रा जारी रहेगी।”
 
मेरे मनोबल को तोड़ने के लिए उस दुकानदार ने मुझे चरित्रहीन और चालू औरत कहकर बदनाम करने की कोशिश की।रमेश की मृत्यु से मैं टूटी जरूर थी,पर तुम्हारे लिए मैं जमाने से टकराने को तैयार थी।कभी-कभी मैं तुम्हारे मासूम सवालों से परेशान हो जाती।एक दिन तुमने मुझसे पूछा -” मम्मी!चालू औरत किसे कहते हैं?”
मैंने पूछा -” क्यों बेटा?”
तुमने कहा -“मम्मी !दुकानदार अंकल  मुझे दिखाकर किसी से कह रहे थे कि इसकी मम्मी चालू औरत है।”
 उस समय तो मैंने तुम्हें प्यार से समझा दिया।अकेली औरत होकर भी मैं जिन्दगी के झंझावातों से टकराते हुए संघर्ष कर रही हूँ।समाज में औरतें मुझसे नजदीकियां नहीं बढ़ाती,क्योंकि उन्हें  लगता था कि मैं उनके पतियों पर डोरे डालूँगी।मेरी दुनियाँ तुझपर ही आकर सिमट गई। मेरी जिन्दगी में तुम्हारा प्यार  और रमेश की स्मृति संजीवनी का काम कर रही है।
 
मेरी माँ कभी-कभी  मुझे समाज की तीखी नजरों से बचाने के लिए  लोगों से झूठ बोलते हुए कहती कि शान्ति का पति विदेश में नौकरी करता है।माँ के विचारानुसार महिलाओं के लिए  पुरुषरूपी पति का सुरक्षाकवच अत्यंत आवश्यक है।कभी-कभार माँ की बातें मुझे सत्य प्रतीत होतीं।
 
डायरी पढ़ते-पढ़ते एक बार फिर से निभा की आँखें भर उठती हैं और श्रद्धापूर्वक मन-ही-मन माँ के संघर्षपूर्ण जीवन को सर झुकाकर नमन करती है। फिर आगे डायरी पढ़ना शुरू करती है- 
 
शान्तिदेवी -” अब मेरी उम्र चालीस वर्ष  हो चुकी है।तुम्हारी पढ़ाई  और शादी की चिन्ता मुझे परेशान कर रही है।मैं हमेशा दुआ करती हूँ कि ईश्वर तुम्हें भरा-पूरा परिवार  दें।मुसीबत की घड़ी में जब तुम नजरें उठाकर,तो मेरी तरह तुम्हें चारों तरफ खालीपन का एहसास न हो।परिवार के सहयोग से तुम्हारा जीवन संघर्ष सुगम हो जाएँ।”
 
अब मेरी उम्र  पचास वर्ष की हो चुकी है।तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो गई है ।तुमने अपनी पसन्द का लड़का सुरेश को चुना है। इस समय भी तुम्हारे पिता को लेकर तुम्हारे भावी ससुरालवालों ने सवाल उठाया है,परन्तु जिस समझदारी से सुरेश ने मामले को सुलझाया कि मुझे तुम्हारी पसन्द पर गर्व हो गया।
 
अब मेरी उम्र  साठ साल हो चुकी है।मेरे जीवन के संघर्ष की गति उम्र के साथ-साथ धीमी पड़ने लगी है।बेटी!तुम अपने घर में खुश हो,मुझे और क्या चाहिए?परन्तु बीमारियों का क्या करूँ,जो उम्र के साथ चुपके से दबे पाँव चलीं आतीं हैं?तुम्हें बताकर परेशान नहीं करना चाहती हूँ।आज तबीयत खराब होने पर डाॅक्टर के पास गई थी ।देखने के बाद  डाॅक्टर ने कहा -” मैडम!आपको दिल की बीमारी है । दिल का ऑपरेशन कराना होगा ।
मैंने डाॅक्टर से कहा-” सर! मेरे दिल में परिवार  और समाज के व्यंग्यवाणों से इतने छेद हो चुके हैं कि अब उनका इलाज  संभव नहीं है।”
मेरी बातों पर मुस्कराते हुए  डाॅक्टर ने मुझे तसल्ली दी।बेटी!उम्र के छठें दशक में ही मैं स्वास्थ्य से हारने लगी हूँ ।अब मेरी संघर्ष  क्षमता क्षीण होने लगी है।मेरा पूरा जीवन काँटों भरी शय्या ही रहा है।बेटी!मुझे खुशी है कि  तुम्हारे जीवन संघर्ष में तुम्हारे पति और बच्चे तुम्हारे  साथ हैं।आशीष है कि तुम सदा सुखी रहो।धीरे-धीरे सीने का दर्द बढ़ रहा है । रात बहुत हो चुकी है,अब सोने की कोशिश करती है ।
 
माँ की डायरी बन्द करते ही निभा की आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे।वह अपने आप  से बातें करते हुए कहती है -” माँ!आप खुद इतना कष्ट सहती रहीं और हमें कुछ भी नहीं बताया।माँ आप में तो मेरी जान बसी हुई थी।आप तो मेरी जिन्दगी की खुशबू थीं। आप में मेरा पूरा ब्रह्मांड समाया था।आपका जीवन सहनशक्ति,त्याग और संघर्ष का आदर्श था।आपको शत-शत नमन।”
 
अब निभा  आँखों में आएँ आँसू पोंछती है और अगले दिन  माँ की खूबसूरत यादों की पोटली सीने में दबाए विदेश के लिए रवाना हो जाती है।माँ का जीवन संघर्ष सदैव उसकी जिन्दगी को आलोकित और प्रेरित करता रहेगा।
 
समाप्त। 
लेखिका – डाॅ संजु झा(स्वरचित)

 

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